"ब्रह्मगुप्त" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replace - "{{लेख प्रगति" to "{{प्रचार}} {{लेख प्रगति")
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
ब्रह्मगुप्त गणित ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य हो गये थे। प्रसिद्ध ज्योतिषी [[भास्कराचार्य]] ने इनको 'गणकचक्र-चूड़ामणि' कहा है और इनके मूलाकों को अपने 'सिद्धान्त शिरोमणि' का आधार माना है। इनके ग्रन्थों में सर्वप्रसिद्ध हैं, 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' और 'खण्डखाद्यक'। ख़लीफ़ाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद [[अरबी भाषा]] में भी कराये गये थे, जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द हिन्द' और 'अल अर्कन्द' कहते थे। पहली पुस्तक 'ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त' का अनुवाद है और दूसरी 'खण्डखाद्यक' का।
+
ब्रह्मगुप्त गणित ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य थे। [[आर्यभट्ट]] के बाद [[भारत]] के पहले गणित शास्त्री '[[भास्कराचार्य|भास्कराचार्य प्रथम]]' थे। उसके बाद ब्रह्मगुप्त हुए। ब्रह्मगुप्त खगोल शास्त्री भी थे और आपने 'शून्य' के उपयोग के नियम खोजे थे। इसके बाद [[अंकगणित]] और [[बीजगणित]] के विषय में लिखने वाले कई गणितशास्त्री हुए।  प्रसिद्ध ज्योतिषी [[भास्कराचार्य]] ने इनको 'गणकचक्र - चूड़ामणि' कहा है और इनके मूलाकों को अपने 'सिद्धान्त शिरोमणि' का आधार माना है। इनके ग्रन्थों में सर्वप्रसिद्ध हैं, 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' और 'खण्ड-खाद्यक'। ख़लीफ़ाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद [[अरबी भाषा]] में भी कराये गये थे, जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द हिन्द' और 'अल अर्कन्द' कहते थे। पहली पुस्तक 'ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त' का अनुवाद है और दूसरी 'खण्ड-खाद्यक' का अनुवाद है।
  
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म [[राजस्थान]] राज्य के भीनमाल शहर में ईस्वी सन 598 में हुआ था। इसी वजह से उन्हें भिल्लमालाआचार्य के नाम से भी कई जगह उल्लेखित किया गया है। यह शहर तत्कालीन [[गुजरात]] प्रदेश की राजधानी तथा [[हर्षवर्धन]] साम्राज्य के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन माना जाता है। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश ([[भीनमाल]]) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर [[उज्जयिनी|उज्जैन]] (वर्तमान [[मध्य प्रदेश]]) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होंने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन 628 में) और खन्डखड्यक (सन 665 ई में)।  
+
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म [[राजस्थान]] राज्य के 'भीनमाल शहर' में ईस्वी सन 598 में हुआ था। इसी वजह से उन्हें भिल्लमालआचार्य के नाम से भी कई जगह उल्लेखित किया गया है। यह शहर तत्कालीन [[गुजरात]] प्रदेश की राजधानी तथा [[हर्षवर्धन]] साम्राज्य के राजा 'व्याघ्रमुख' के समकालीन माना जाता है। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश [[भीनमाल]] के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर [[उज्जयिनी|उज्जैन]] (वर्तमान [[मध्य प्रदेश]]) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होंने दो विशेष ग्रन्थ लिखे:  
 +
#ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन 628 में) और  
 +
#खण्ड-खाद्यक (सन 665 ई में)।  
  
'ब्रह्मस्फुटसिद्धांत' सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक विभिन्न अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। हां, ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: 0/0 = 0। उन्होंने शक 550 (685 वि.) में 'ब्राह्मस्फुटिकसिद्धान्त' की रचना की। इन्होंने स्थान-स्थान पर लिखा है कि [[आर्यभट्ट]], श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की गणना से [[ग्रह|ग्रहों]] का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता है, इसलिए वे त्याज्य हैं और 'ब्राह्मस्फुटिकसिद्धान्त' में दृग्गणितैक्य होता है, इसलिय यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्राह्मस्फुटिकसिद्धान्त' की रचना ग्रहों का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी चाहिए। ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा।  
+
'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें '''शून्य''' का एक विभिन्न अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: 0/0 = 0। उन्होंने शक सम्वत 550 (685 वि.) में 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना की। इन्होंने स्थान-स्थान पर लिखा है कि [[आर्यभट्ट]], श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की गणना से [[ग्रह|ग्रहों]] का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता है, इसलिए वे त्याज्य हैं और 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' में दृग्गणितैक्य होता है, इसलिय यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना ग्रहों का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी चाहिए। ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा।  
 
{{प्रचार}}
 
{{प्रचार}}
 
{{लेख प्रगति  
 
{{लेख प्रगति  

14:31, 14 फ़रवरी 2011 का अवतरण

ब्रह्मगुप्त गणित ज्योतिष के बहुत बड़े आचार्य थे। आर्यभट्ट के बाद भारत के पहले गणित शास्त्री 'भास्कराचार्य प्रथम' थे। उसके बाद ब्रह्मगुप्त हुए। ब्रह्मगुप्त खगोल शास्त्री भी थे और आपने 'शून्य' के उपयोग के नियम खोजे थे। इसके बाद अंकगणित और बीजगणित के विषय में लिखने वाले कई गणितशास्त्री हुए। प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने इनको 'गणकचक्र - चूड़ामणि' कहा है और इनके मूलाकों को अपने 'सिद्धान्त शिरोमणि' का आधार माना है। इनके ग्रन्थों में सर्वप्रसिद्ध हैं, 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' और 'खण्ड-खाद्यक'। ख़लीफ़ाओं के राज्यकाल में इनके अनुवाद अरबी भाषा में भी कराये गये थे, जिन्हें अरब देश में 'अल सिन्द हिन्द' और 'अल अर्कन्द' कहते थे। पहली पुस्तक 'ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त' का अनुवाद है और दूसरी 'खण्ड-खाद्यक' का अनुवाद है।

आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के 'भीनमाल शहर' में ईस्वी सन 598 में हुआ था। इसी वजह से उन्हें भिल्लमालआचार्य के नाम से भी कई जगह उल्लेखित किया गया है। यह शहर तत्कालीन गुजरात प्रदेश की राजधानी तथा हर्षवर्धन साम्राज्य के राजा 'व्याघ्रमुख' के समकालीन माना जाता है। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश भीनमाल के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होंने दो विशेष ग्रन्थ लिखे:

  1. ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन 628 में) और
  2. खण्ड-खाद्यक (सन 665 ई में)।

'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक विभिन्न अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: 0/0 = 0। उन्होंने शक सम्वत 550 (685 वि.) में 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना की। इन्होंने स्थान-स्थान पर लिखा है कि आर्यभट्ट, श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की गणना से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता है, इसलिए वे त्याज्य हैं और 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' में दृग्गणितैक्य होता है, इसलिय यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना ग्रहों का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी चाहिए। ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध