"महाकालेश्वर" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
'''श्री महाकालेश्वर / Shri Mahakaleshwar'''<br />
 
'''श्री महाकालेश्वर / Shri Mahakaleshwar'''<br />
  
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग [[मध्य प्रदेश]] के उज्जैन जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का [[पुराण|पुराणों]] और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान [[मालवा]] क्षेत्र में स्थित [[क्षिप्रा नदी]] के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है-
+
श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग [[मध्य प्रदेश]] के [[उज्जैन]] जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का [[पुराण|पुराणों]] और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान [[मालवा]] क्षेत्र में स्थित [[क्षिप्रा नदी]] के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है-
 
<poem>
 
<poem>
 
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
 
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
पंक्ति 24: पंक्ति 24:
  
 
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपसना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-  
 
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपसना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-  
 +
<poem>
 
महाकालेश्वरो  नाम  शिवः  ख्यातश्च  भूतले।
 
महाकालेश्वरो  नाम  शिवः  ख्यातश्च  भूतले।
<poem>
 
 
तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।
 
तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।
 
यं  यं  काममपेदयैव  तल्लिगं  भजते  तु  यः ।
 
यं  यं  काममपेदयैव  तल्लिगं  भजते  तु  यः ।
तं  तं  काममवाप्नेति  लभेन्मोक्षं  परत्र  च।।</poem>
+
तं  तं  काममवाप्नेति  लभेन्मोक्षं  परत्र  <balloon title="शिवमहापुराण कोटिरूद्रसहिंता 16/50-51" style=color:blue>*</balloon>।।
(शिवमहापुराण कोटिरूद्रसहिंता 16/50-51) करते हुए शिवमहापुरण में एक कथानक इस प्रकार भी दिया गया है-
+
</poem>
उज्जनीय नगरी में महान् शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय चन्द्रसेन नामक एक राजा थे। उन्होंने शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन कर उनके रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया था। उनके सदाचरण से प्रभावित होकर शिवजी के पार्षदों (गणों) में अग्रणी (मुख्य) मणिभद्र जी राजा  चन्द्रसेन के मित्र बन गये। मणिभद्र जी ने एक बार राजा पर अतिशय प्रसन्न होकर राजा चन्द्रसेन को चिन्तामणि नामक एक महामणि प्रदान की। वह महामणि कौस्तुभमणि और सूर्य के समान देदीप्यमान (चमकदार) थी। वह महामणि देखने, सुनने तथा ध्यान करने पर भी, वह मनुष्यों को निश्चित ही मंगल प्रदान करती थी।
+
 
राजा चनद्रसेन के गले में अमूल्य चिन्तामणि शोभा पर रही है, यह जानकार सभीा राजाओं में उस मणि के प्रति लोभ बढ़ गया। चिन्तामणि के लोभ से सभी राजा क्षुभित होने लगे। उन राजाओं ने अपनी चतुरंगिणी सेना तैयार की और उस चिन्तामणि के लोभ में वहाँ आ धमके। चन्द्रसेन के विरूद्ध वे सभी राजा एक साथ मिलकर एकत्रित हुए थे और उनके साथ भारी सैन्यबल भी था। उन सभी राजाओं ने आपस में परामर्श करके रणनीति तैयार की और राजा चन्द्रसेन पर आक्रमण कर दियां सैनिकों सहित उन राजाओं ने चारों ओर से उज्जयिनी के चारों द्वारों को घेर लिया। अपनी पुरी को चारों ओर से सैनिको द्वारा घिरी हुई देखकर राजा चन्द्रसेन महाकालेश्वर भगवान् शिव की शरण में पहूँच गये। वे निश्छल मन से दृढ़ निशृचय के सथ उपवास-व्रत लेकर भगवान् महाकाल की आराधना में जुट गये।
+
[[Category:भारत_के_पर्यटन_स्थल]]
उन दिनों उज्जयिनी में एक विधवा ग्वालिन रहती थी,  जिसको इकलौता पुत्र थां। वह इस नगरी में बहुत दिनों से रहती थी। वह अपने उस पाँच वर्ष के बालक को लेकर महाकालेश्वर का दर्शन करने हेतू गई। उसने देखा कि राजा चन्द्रसेन वहाँ बड़ी श्रद्धाभक्ति से महाकाल की पूजा कर रहे हैं। राजा के शिवपूजन का महोत्सव उसे बहुत ही आश्चर्यमय लगा। उसने पूजन को निहारते हुए भक्तिभावपूर्वक महाकाल को प्रणाम किया और अपने निवासस्थान पर लौट गयी। उस ग्वालिन माता के साथ उसके बालक ने भी महाकाल की पूजा का कौतूहलपूर्वक अवलोकन किया था। इसलिए घर वापस आकर उसने भी शिवजी का पूजन करने का विचार किया। वह एक सुन्दर-सा पत्थर ढूँढ़कर लाया ओर अपने निवास से कुछ ही दूरी पर किसी अन्य के निवास के पास एकान्त मं रख दिया।
+
[[Category:मध्य_प्रदेश]]
उसने अपने मन में निश्चय करके उस पत्थर का ही शिवलिंग मान लिया। वह शुद्ध मने से भक्तिभावपूर्वक मानसकिरूप से गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य और अलंकार आदि जुटाकर, उनसे उस शिवलिंग की पूजा की। वह सुन्दर-सुन्दर पत्तों तथा फूलों को बार-बार सम्पूर्ण पूजन पूरा करने के बाद उस बालक ने बार-बार भगवान् के चरणों में मस्तक लगाया। बालक का चित्त भगवान् के चरणों में आसक्त था और वह विह्वल होकर उनको दण्डवत् कर रहा था। उसी समय ग्वालिन ने भोजन के लिए अपने पुत्र को प्रेम से बुलाया। उधर उस बालक का मन शिवजी की पूजा में रमा हुआ था, जिसके कारण वह बाहरसे ब्रसुध था। माता द्वारा बार-बार बुलाने पर भी बालक को भोजन करने की इच्छा नहीं हुई और वह भोजन करने नहीं गया तब उसकी माँ स्वयं उठकर वहाग आ गयी।
+
[[Category:मध्य_प्रदेश_के_धार्मिक_स्थल]]
माँ ने देखा कि उसका बालक एक पत्थर के सामने आँखें बन्द करके खींचने लगी। हाथ पकड़कर बार-बार खींचने पर भी वह बालक वहाँ से नहीं उठा, जिससे उसकी माँ को क्रोध आया और उसने उसे खूब पीटा। इस प्रकार खींचने और मारने-पीटने पर भी जब वह बालक वहाँ से नहीं हटा, तो माँ ने उस पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया। बालक द्वारा उस शिवलिंग पर चढ़ाई गई सामग्री को भी उसने नष्ट कर दिया। शिवजी का अनादर देखकर बालक ‘हाय-हाय’ करके रो पड़ा। क्रोध में आगबबूला हुई वह ग्वालिन अपने बेटे को डाँट-फटकार करके पुनः अपने घर में चली गई। जब उस बालक ने देखा कि भगवान् शिवजी की पूजा को उसकी माता ने नष्ट कर दिया, तब वह बिलख-बिलख कर रोने लगा। देव! देव! महादेव! ऐसा पुकरता हुआ वह सहसा बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। कुछ देर बाद जब उसे चेतना आयी, तो उसने अपनी बन्द आँखें खोल दीं।
+
[[Category:मध्य_प्रदेश_के_पर्यटन_स्थल]]
उस बालक ने आँखें खोलने के बाद जो दृश्य देखा, उससे वह आश्चर्य मे पड़ गया। भगवान् शिव की कृपा से उस स्थान पर महाकाल का दिव्यमन्दिर खड़ा हो गया था। मणियों के चमकीले खम्बे उस मन्दिर की शोभा बढा रहे थे। वहाँ के भूतल स्फटिक मणि जड़ दी गयी थी। तपाये गये दमकते हुए स्वर्ण-शिखर उस शिवालय को सुशोभित कर रहे थे। उस मन्दिर के विशालद्वार, मुख्यद्वार तथा उनके कपाट सुवर्णनिर्मित थे। उस मन्दिर के सामने नीलमणि तथा हीरे जड़े बहुत से चबूतरे बने थे। उस भव्य शिवालय के भीतर मध्य भाग में (गर्भगृह) करूणावरूणालय, भूतभावन, भोलानाथ भगवान् शिव का रत्नमय लिंग प्रतिष्ठित हुआ था।
+
[[Category:धार्मिक_स्थल_कोश]]
ग्वालिन के उस बालक ने शिवलिंग को बड़े ध्यानपूर्वक देखौ उसके द्वारा चढ़ाई गई सभभ् पूजन-सामग्री उस शिवलिंग पर सुसज्जित पड़ी हुई थी। उस शिवलिंग को तथा उसपर उसके ही द्वारा चढ़ाई पूजन-सामग्री को देखते-देखते वह बालक उठ खड़ा हुआ। उसे मन ही मन आश्चर्य तो बहुत हुआ, किन्तु वह परमान्द सागर में गोते लगाने लगा थाथ् उसके बाद तो उसने शिवजी की ढेर-सारी स्तुतियाँ कीं और बार-बार अपने मस्तक को उनके चरणों में लगाया। उसके जब शाम हो गयी, तो सूर्यास्त होने पर वह बालक शिवालय से नकिल कर बाहर आया और अपने निवासस्थल को दंखने लगा। उसका निवास देवताओं के राजा इन्द्र के समान शोभा पा रहा था। वहाँ  सब कुछ शीघ्र ही सुवर्णमय हो गया था, जिससे वहाँ की विचित्र शोभा हो गई थी। परम उज्ज्वल वैभव से सर्वत्र प्रकाश हो रहा था। वह बालक सब प्रकार की शोभाओं से सम्पन् उस घर के भीतर प्रविष्ठ हुआ। उसने देखा कि एसकी माता एक मनोहर पलंग पर सो रही हैं। उसके अंगों में बहुमूल्य रत्नों के अलंकार शोभा पा रहे हैं। आश्चर्य और प्रेम में विहृल उस बालक ने अपनी माता को बड़े जोर से उठाया। उसकी माता भी भगवान शिव की कृपा प्राप्त कर चुकी थी। जब उस ग्वालिन ने उठकर द्रखा, तो उसे सब कुछ अपूर्व ‘विलक्षण) सा देखने को मिला। आनन्द का ठिकाना न रहा। उसने भावविभोर होकर अपने पुत्र को ठाती से लगा लिया। अपने बेटे के भूतेश शिव के कृपाप्रसाद का सम्पूर्ण व्रणन सुनकर उस ग्वालिन ने राजा चन्द्रसेन को सूचित किया। निरन्तर भगवान् शिव के भजन-पूजन में लगे रहने वाले राजा चन्द्रसेन अपना नित्य-नियम पूरा कर रात्रि के समय पहुँचे। उन्होंने भगवान् शंकर को सन्तुष्ट करने वाले ग्वालिन के पुत्र का वह प्रभाव देखा। उज्जयिनि को चारों ओर से घेर कर युद्ध के लिए खड़े उन राजाओं ने भी गुप्तचरो के मुख से प्रात:काल उस अद्भुत वृत्तान्त को सुना। इस विलक्षण घटना को सुनकर सभी नरेश आशचर्यचकित हो उठे। उन राजाओं ने आपस में मिलकर पुन: विचार-विमर्श किया। परस्पर बातचीत में उन्होने कहा कि राजा चन्द्रसेन महान् शिवभक्त है, इसलिए इनपर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। ये सभी प्रकार से निर्भय होकर महाकाल की नगरी उज्जयिनि का पालन-पोषण करते हैं। जब इस नगरी का एक छोटा बालक भी ऐसा शिवभक्त है, तो राजा चन्द्रसेन का महान् शिवभक्त होना स्वाभाविक ही है। ऐसे राजा के साथ विरोध करने पर निशचय ही भगवान् शिव क्रोधित हो जाएँगे। शिव के क्रोध करने पर तो हम सभी नष्ट ही हो जाएँगे। इसलिए हमें इस रनेशा से दुशमनी न करके मेल-मिलाप ही कर लेना चाहिए, जिससे भगवान् महेशवर की कृपा हमें भी प्राप्त होगी-
+
__INDEX__
ईदृशाशिशशवो यस्य पुयर्या सन्ति शिवव्रता:।
 
स राजा चन्द्रसेनस्तु महाशंकरसेवक:।।
 
नूनमस्य विरोधेन शिव: क्रोधं करिष्यति।
 
तत्क्रोधाद्धि वयं सर्वे भविष्यामो विनष्टका:।।
 
तस्मादनेन राज्ञा वै मिलाय: कार्य एव हि।
 
एवं सति महेशान: करिष्यति कृपा पराम्।।
 
युद्ध के लिए उतज्जयिनि को घेरे उन राजाओं का मन भगवान् शिव के प्रभाव से निर्मल हो गया और शुद्ध हृदय से सभी ने हथियार डाल दिये। उनके मन से राजा चन्दसेन के प्रति वैरभाव निकल गया और महाकालेशवर पूजन किया। उसी समय परम तेजस्वी श्री हनुमान् वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने गोप-बालक को अपने हृदय से लगाया और राजाओं की ओर देखते हुए कहा- ‘राजाओं! तुम सब लोग तथा अन्य देहधारीगण भी ध्यानपूर्वक हमारी बातें सुनें। मैं। जो बात कहूँगा उससे तुम सब लोगों का कल्याण होगा। उन्होंने बताया कि ‘शरीरधारियों के लिए भगवान् शिव से बढ़कर अन्य कोई गति नहीं है अर्थात महेशवर की कृपा-प्राप्ति ही मोक्ष का सबसे उत्तम साधन है। यह परम सौभाग्य का विषय है कि इस गोपकुमार ने शिवलिंग का दर्शन किया और उससे प्रेरणा लेकर स्वयम् शिव की पूजा में प्रवृत्त हुआ। यह बालक किसी भी प्रकार का लौकिक अथवा वैदकि मन्त्र नही जानता है, किन्तु इसने बिना मन्त्र का प्रयोग किये ही अपनी भक्ति निष्टा के द्वारा भगवान् शिव की आराधना की और उन्हें प्राप्त कर लिया। यह बालक अब गोपवंश की किति को बढ़ाने वाला तथा उत्तम शिवभक्त हो गया है। भगवान् शिव की कृपा से यह इस लोक के सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करेगा और अन्त में मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। इसी बालक के कुल में इससे आठवीं पीढ़ी में महायशस्वी नन्द उत्पन्न होंगे और उनके यहाँ ही साक्षात् नारायण का प्रादुर्भाव होगा। वे भगवान् नारायण ही नन्द के पुत्र के रूप में प्रकट होकर श्रीकृष्णा के नाम से जगत् में विख्यात होंगे। यह गोप बालक भी जिस पर कि भगवान् शिव की कृपा हुई है, ‘श्रीकर’ गोप के नाम से विशेष प्रसिद्धि प्राप्त करेगा।
 
  शिव के ही प्रतिनिधि वानरराज हनुमान् जी ने समस्त राजाओं सहित राजा चन्द्रसेन को अपनी कृपदृष्टि से देखा। उसके बाद अतीव प्रसन्नता के साथ उन्होंने गोपबालक श्रीकर को शिवजी की उपासना के सम्बन्ध में बताया।
 
  पूजा-अर्चना की जो विधि और आचार-व्यवहार भगवान् शंकर को विशेष प्रिय है, उसे भी श्री हनुमान् जी ने विस्तार से बताया। अपना कार्य पूरा करने के बाद वे समस्त भूपालों तथा राजा चन्द्रसेन से और गोपबालक श्रीकर से विदा लेकर वहीं पर तत्काल अर्न्तधान हो गये। राजा चन्द्रसेन की आज्ञा प्राप्त कर सभी नरेश भी अपनी राजधानियों को वापस हो गये।
 
  इस प्रकार ‘महाकाल’ नामक यह शिवलिंग शिवभक्तो का परम आश्रय है, जिसकी पूजा से भक्तवत्सल महेश्वर शीघ्र प्रसन्न होते हैं। ये भगवान् शिव दुष्टों के संहारक हैं, इसलिए इनका नाम ‘महाकाल’ है। ये काल अर्थात मृत्यु को भी जीतने वाले हैं, इसलिए इन्हे ‘महाकालेश्वर’ कहा जाता हैं। भगवान् शिव भयंकर ‘हुँकार’ के साथ प्रकट हुए थे, इसलिए भी इनका नाम ‘महाकल’ से प्रसिद्ध हुआ हैं।
 
  उज्जैन में स्थित महाकाल ज्योतिर्लिंग का भव्य मन्दिर पाँच मंजिल वाला है तथा क्षिप्रा नदी से कुछ दूर पर अवस्थित है। मन्दिर के ऊपरी भाग में श्री ओंकारेश्वर विद्यमान हैं। यातायात-व्यवस्था और सुरक्षा-सुविधा की दृष्टि से तीर्थयात्री द्रर्शनार्थियों को पंक्ति में होकर सरोवर के किनारे किनारे से ऊपर की मंजिल में जाना पड़ता है। वहाँ से संकरी गली की सीढ़ियाँ उतर कर मन्दिर के निचले सतह पर आना पड़ता है जहाँ भूतल पर महाकालेशवर का ज्योतिर्लिंग स्थापित है। यह शिवलिंग समतल भूमि से भी कुछ नीचे में है। यहाँ के रामघाट और कोटितीर्थ नामक कुण्डों में भी स्नान किया जाता है तथा पितरों का श्राद्ध भी विहित है अर्थात् यहाँ वितृश्राद्ध करने का भी विधान है। इन कुण्डों के पास ही अगस्त्येश्वर, कोढ़ीश्वर, केदारेश्वर तथा हरसिद्धिदेवी आदि के दर्शन करते हुए महाकालेश्वर के दर्शन हेतु जाया जाता हैं।
 
  महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रात:कालकि पूजा में अनिवार्यरूप से सवा मन चिता की भस्म सम्मिलित की जाती है। चिता की भस्म से विभूषित महाकालेश्वर का दर्शन अत्यन्त् पुण्यदायी होता है।
 
  यहाँ यध्यरेलवे की भोपाल-उज्जैन और आगरा-उज्जैन रेलवे लाइनें हैं तथा पशचिमी रेलवे की नागदा-उजैन तथा फतेहाबाद-उजैन रेलमार्ग की व्यवस्था हैं।
 

11:45, 20 अप्रैल 2010 का अवतरण

श्री महाकालेश्वर / Shri Mahakaleshwar

श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के उज्जैन जनपद में अवस्थित है। उज्जैन का पुराणों और प्राचीन अन्य ग्रन्थों में 'उज्जयिनी' तथा 'अवन्तिकापुरी' के नाम से उल्लेख किया गया है। यह स्थान मालवा क्षेत्र में स्थित क्षिप्रा नदी के किनारे विद्यमान है। अवन्तीपुरी की गणना सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है-

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

महाराजा विक्रमादित्य द्वारा निर्माण

इसी महाकालेश्वर की नगरी में महाराजा विक्रमादित्य ने चौबीस खम्बों का दरबार-मण्डप बनवाया था। मंगल ग्रह का जन्मस्थान मंगलश्वेर भी यहीं स्थित है। इतिहास प्रसिद्ध भर्तृहरि की गुफा तथा महर्षि सान्दीपनि का आश्रम यहीं विराजमान है। श्री कृष्णचन्द्र और बलराम जी ने इसी सान्दीपनि आश्रम में विद्या का अध्ययन किया था। इसी उज्जयिनी नगरी में परम प्रतापी महाराज वीर विक्रमादित्य की राजधानी थी। जब सिंह राशि पर बृहस्पति ग्रह का आगमन होता है, तो यहाँ प्रत्येक बारह वर्ष पर महाकुम्भ का स्नान और मेला लगता है।

शिव महापुराण]] में वर्णित कथा

समस्त देहधारियों की मोक्ष प्रदान करने वाली एक प्रसिद्ध और अत्यन्त अवन्ति नाम की नगरी है। लोक पावनी परम पुण्यदायिनी और कल्याण-कारिणी वह नगरी भगवान शिव जी को अत्यन्त प्रिय है। उसी पवित्र पुरी में शुभ कर्मपरायण तथा सदा वेदों के स्वाध्याय में लगे रहने वाले एक उत्तम ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। भगवान शंकर के भक्त वे ब्राह्मण शिव जी की अर्चना-वन्दना में तत्पर रहा करते थे। वे प्रातिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे। हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण देवता का नाम ‘वेदप्रिय’ था। वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके शिव पूजा-परायण ही चार पुत्र हुए। वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गगुणों के अनुरूप थे। उन चारों पुत्रों के देवप्रिय, प्रियमेधा, संस्कृत और सुवृत थे।

उन दोनों रत्नमाल पर्वत पर ‘दूषण’ नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर ने वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण कर दिया। उस असुर को ब्रह्माजी से अजेयता का वर मिला थां। सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के उन पवित्र और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी। उस असुर की आज्ञा से चार भयानक दैत्य चारों दिशाओं में प्रलयकाल की आग के समान प्रकट हो गये। उनके भंयकर उपद्रव से भी शिव जी मंद विश्वास करने वाले वे ब्राह्मणबन्धु भयभीत नहीं हुए। अवन्ति नगर के निवासी सभी ब्राह्मण जब उस संकट में घबराने लगे, तब उन चारों शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘आप लोग भक्तों के हितकारी भगवान शिव पर भरोसा रखें।’ उसके बाद वे चारों ब्राह्मण-बन्धु शिव जी का पूजन कर उनके ही ध्यान में तल्लीन हो गये।

सेना सहित दूषण ध्यान मग्न उन ब्राह्मणो के पास पहूँच गया। उन ब्राह्मणों को देखते ही ललकारते हुए बोल उठा कि इन्हें बाँधकर मार डालो। वेदप्रिय के उन ब्राह्मण पुत्रों ने उस दैत्य के द्वारा कही गई बातों पर कान नहीं दिया और भगवान शिव के ध्यान में मग्न रहे। जब उस दुष्ट दैत्य ने यह समझ लिया कि हमारे डाँट-डपट से कुछ भी परिणाम निकलने वाला नहीं है, तब उसने ब्राह्मणों को मार डालने का निश्चय किया।

उसने ज्योंहि उन शिव भक्तों के प्राण लेने हेतु शस्त्र उठाया, त्योंहि उनके द्वारा पूजित उस पार्थिव लिंग की जगह गम्भीर आवाल के साथ एक गडढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। दुष्टों का विनाश करने वाले तथा सज्जन पुरूषों के कल्याणकर्त्ता वे भगवान शिव ही महाकाल के रूप में इस [[पृथ्वी] पर विख्यात हुए। उन्होंने दैत्यों से कहा- ‘अरे दुष्टों! तुझ जैसे हत्यारों के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूँ। जल्दी इन ब्राह्मणों के समीप से दूर भाग जाओं’

इस प्रकार धमकाते हुए महाकाल भगवान शिव ने अपने हुँकार मात्र से ही उन दैत्यों को भस्म कर डाला। दूषण की कुछ सेना को भी उन्होंने मार गिराया और कुछ स्वयं ही भाग खड़ी हुई। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। जिस प्रकार सूर्य क निकलते ही अन्धकार छँट जाता है, उसी प्रकार भगवान् आशुतोष शिव को देखते ही सभी दैत्य सैनिक पलायन कर गये। देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी दन्दुभियाँ बजायीं और आकाश से फूलों की वर्षा की। उन शिवभक्त ब्राह्मणो पर अति प्रसन्न् भगवान् शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘मै महाकाल महेश्वर तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ, तुम लोग वर मांगो।’

महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहा- 'दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल! शम्भो! आप हम सबको इस संसार-सागर से मुक्त कर दें। हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए विराजिए। प्रभो! आप अपने दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।’

भगवान शंकर ने उन ब्राह्माणों को सद्गगति प्रदान की और अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में स्थित हो गये। उस गड्ढे के चारों ओर की लगभग तीन-तीन किलोमीटर भूमि लिंग रूपी भगवान शिव की स्थली बन गई। ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से स्वप्न में भी किसी प्रकार का दुःख अथवा संकट नहीं आता है। जो कोई भी मनुष्य सच्चे मन से महाकालेश्वर लिंग की उपसना करता है, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह परलोक में मोक्षपद को प्राप्त करता है-

महाकालेश्वरो नाम शिवः ख्यातश्च भूतले।
तं दुष्ट्वा न भवेत् स्वप्ने किंचिददुःखमपि द्विजाः।।
यं यं काममपेदयैव तल्लिगं भजते तु यः ।
तं तं काममवाप्नेति लभेन्मोक्षं परत्र च<balloon title="शिवमहापुराण कोटिरूद्रसहिंता 16/50-51" style=color:blue>*</balloon>।।