"छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8 खण्ड-7 से 15" के अवतरणों में अंतर

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*[[छान्दोग्य उपनिषद]] के [[छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8|अध्याय आठवाँ]] का यह प्रथम से छठवें खण्ड तक है।
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*[[छान्दोग्य उपनिषद]] के [[छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-8|अध्याय आठवाँ]] का यह सातवें से पंद्रहवें खण्ड तक है।
 
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*शरीर में 'आत्मा' की स्थिति
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*'आत्मा' का यथार्थ रूप
इन छह प्रारम्भिक खण्डों में शरीर के भौतिक स्वरूप में '[[आत्मा]]' की स्थिति का वर्णन किया गया है और हृदय तथा आकाश की तुलना की गयी है। यहाँ आत्मा के इस प्रसंग को गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। गुरु अपने शिष्यों से कहता है कि मानव-हृदय में अत्यन्त सूक्ष्म रूप से 'ब्रह्म' विद्यमान रहता है। <br />
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इन खण्डों में इन्द्र और विरोचन को उपदेश देते हुए प्रजापति ब्रह्मा 'आत्मा' के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं। <br />
'स वा एष आत्मा हृदि तस्यैतदेव निरूक्त्ँ हृद्ययमिति तस्माद्धदथमहरहर्वा एवंवित्स्वर्ग लोकमेति॥3/3॥' अर्थात वह आत्मा हृदय में ही स्थित है। 'हृदय' का अर्थ है 'हृदि अयम्'- वह हृदय में है। यही आत्मा की व्युत्पत्ति है। इस प्रकार जो व्यक्ति आत्मतत्त्व को हृदय में जानता है, वह प्रतिदिन स्वर्गलोक में ही गमन करता है।<br />  
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एक बार देवराज [[इन्द्र]] और असुरराज विरोजन प्रजापति [[ब्रह्मा]] के पास 'आत्मा' व 'ब्रह्मज्ञान' के यथार्थ सत्य को जानने की जिज्ञासा से पहुंचते हैं और उनके पास रहकर बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; क्योंकि ब्रह्मचर्य के बिना 'ब्रह्म' की प्राप्त नहीं की जा सकती। <br />
वास्तव में जितना बड़ा यह आकाश है, उतना ही बड़ा और विस्तृत यह चिदाकाश हृदय भी है। इस हृदय में अत्यन्त सूक्ष्म रूप में 'आत्मा' निवास करता है। यह शरीर समय के साथ-साथ जर्जर होता चला है और एक दिन वृद्ध होकर मृत्यु का ग्रास बन जाता है। इसीलिए शरीर को नश्वर कहा गया है, परन्तु इस शरीर में जो 'आत्मा' विद्यमान है, वह कभी नहीं मरता। वह न तो जर्जर होता है, न वृद्ध होता है और न मरता है।<br />
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बत्तीस वर्ष पूर्ण होने पर प्रजापति ब्रह्मा ने उनके आने का कारण पूछा। इस पर उन्होंने 'ब्रह्मरूप और 'आत्मा' के स्वरूप को जानने के लिए अपनी जिज्ञासा प्रकट की। इस पर ब्रह्मा ने कहा कि हम जो कुछ भी आंखों से देखते हैं, वह 'आत्मा' का ही रूप है। यह सुनकर दोनों ने दर्पण मं अपने स्वरूप को देखकर अपने प्रतिबिम्ब को ही 'आत्मा' मान लिया तथा दोनों अपने-अपने लोकों को लौट गये।<br />  
मनुष्य अज्ञानतावश हृदय में रहने वाले इस 'ब्रह्मरूपी आत्मा' को नहीं जान पाता। इसलिए वह मोह-माया के सांसारिक बन्धनों में बंधा रहता है, परन्तु ज्ञानी व्यक्ति 'आत्मा' को ही 'ब्रह्म' का रूप जानकर ओंकार (प्रणव) तक पहुंच जाता है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति 'ब्रह्मज्ञानी' कहलाता है। जो साधक ब्रह्मचर्य का कठोरता से पालन करते हुए हृदयलोक में स्थित 'ब्रह्म' के सूक्ष्म रूप 'आत्मा' को जान लेते हैं, उन्हें ही [[ब्रह्मलोक]] की प्राप्ति होती है। सम्पूर्ण लोकों में वे अपनी इच्छाशक्ति से कहीं भी जा सकते हैं।<br />
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विरोचन ने असुरों के पास जाकर कहा कि यह अलंकृत शरीर ही 'आत्मा' है। इसे ही 'ब्रह्म' का स्वरूप समझो और इसी की उपासना करो।<br />
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उधर इन्द्र ने देवलोक पहुंचने से पहले सोचा कि यह नश्वर शरीर नष्ट हो जायेगा, तो क्या 'आत्मा' अथवा 'ब्रह्म' भी नष्ट हो जायेगा। उसे सन्तुष्टि नहीं हुई, तो वह पुन: ब्रह्मा के पास लौटकर आया और अपनी शंका प्रकट की। ब्रह्मा ने उसे पुन: बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए कहा। बत्तीस वर्ष बाद ब्रह्मा ने इन्द्र से कहा कि पुरुष के जिस रूप का मनुष्य स्वप्न में दर्शन करता है, वही 'आत्मा' है। इन्द्र ऐसा सुनकर चला गया, किन्तु मार्ग में उसे फिर शंका ने आ घेरा कि स्वप्न में देखे गये पुरुष की आकृति जागने पर नष्ट हो जाती है, यह 'ब्रह्म' नहीं हो सकता। वह पुन: ब्रह्मा के पास लौट आया और अपनी शंका प्रकट की। तब ब्रह्मा ने उसे पुन: बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए कहा। इन्द्र ने ऐसा ही किया और पुन: ब्रह्मा के पास जा पहंचा।<br />  
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तब ब्रह्मा ने कहा कि जो प्रसुप्त अवस्था में सम्पूर्ण रूप से आनन्दित और शान्त रहता है और स्वप्न का अनुभव भी नहीं करता, वही 'आत्मा' है। वही अनश्वर, अभय और 'ब्रह्म' है।  
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इन्द्र सन्तुष्ट होकर चल दिया। उसने सोचा कि उस समय जीव को यह कैसे ज्ञान होगा कि वह कौन है और कहां से आया है? अत: यथार्थ ज्ञान शरीर से सम्बन्धित हुए बिना कैसे प्राप्त हो सकता है? शंका उत्पन्न होते ही वह पुन: ब्रह्मा के पास जा पहुंचा और अपने मन की शंका प्रकट की। इस पर ब्रह्मा ने उसे पांच वर्ष तक पुन: ब्रह्मचर्य धारण करने के लिए कहा। इस प्रकार इन्द्र ने कुल एक सौ एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। <br />
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तब ब्रह्मा ने उससे कहा-'हे इन्द्र! यह शरीर मरणधर्मी है एवं सदैव मृत्यु से आच्छादित है। अविनाशी तथा अशरीरी 'आत्मा' इस शरीर में निवास करता है। जब तक यह शरीर में रहता है, तब तक प्रिय-अप्रिय से घिरा रहता है। शरीर से युक्त होने के कारण वह उनसे मुक्त नहीं हो पाता, किन्तु जब यह शरीर छोड़कर अशरीरी हो जाता है, तब प्रिय-अप्रिय कोई भी इसे स्पर्श नहीं कर पाता। तब वह 'आत्मा' आकाश में वायु की भांति ऊपर उठकर इस शरीर को छोड़ते हुए परमज्योति में केन्द्रित हो जाता है। इस प्रकार जो यथार्थ 'आत्मा' है, वह सूर्य की ज्योति से प्रकट होकर शरीर में प्रवेश करता है, किन्तु मृत्यु के समय शरीर के सभी सुख-दु:ख से मुक्त होकर यह पुन: उसी 'आदित्य' में समा जाता है। यही 'ब्रह्म है।' इन्द्र इस बार पूर्ण रूप से सन्तुष्ट होकर इन्द्रलोक को चला गया।
  
  

14:50, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण

  • 'आत्मा' का यथार्थ रूप

इन खण्डों में इन्द्र और विरोचन को उपदेश देते हुए प्रजापति ब्रह्मा 'आत्मा' के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हैं।
एक बार देवराज इन्द्र और असुरराज विरोजन प्रजापति ब्रह्मा के पास 'आत्मा' व 'ब्रह्मज्ञान' के यथार्थ सत्य को जानने की जिज्ञासा से पहुंचते हैं और उनके पास रहकर बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; क्योंकि ब्रह्मचर्य के बिना 'ब्रह्म' की प्राप्त नहीं की जा सकती।
बत्तीस वर्ष पूर्ण होने पर प्रजापति ब्रह्मा ने उनके आने का कारण पूछा। इस पर उन्होंने 'ब्रह्मरूप और 'आत्मा' के स्वरूप को जानने के लिए अपनी जिज्ञासा प्रकट की। इस पर ब्रह्मा ने कहा कि हम जो कुछ भी आंखों से देखते हैं, वह 'आत्मा' का ही रूप है। यह सुनकर दोनों ने दर्पण मं अपने स्वरूप को देखकर अपने प्रतिबिम्ब को ही 'आत्मा' मान लिया तथा दोनों अपने-अपने लोकों को लौट गये।
विरोचन ने असुरों के पास जाकर कहा कि यह अलंकृत शरीर ही 'आत्मा' है। इसे ही 'ब्रह्म' का स्वरूप समझो और इसी की उपासना करो।
उधर इन्द्र ने देवलोक पहुंचने से पहले सोचा कि यह नश्वर शरीर नष्ट हो जायेगा, तो क्या 'आत्मा' अथवा 'ब्रह्म' भी नष्ट हो जायेगा। उसे सन्तुष्टि नहीं हुई, तो वह पुन: ब्रह्मा के पास लौटकर आया और अपनी शंका प्रकट की। ब्रह्मा ने उसे पुन: बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए कहा। बत्तीस वर्ष बाद ब्रह्मा ने इन्द्र से कहा कि पुरुष के जिस रूप का मनुष्य स्वप्न में दर्शन करता है, वही 'आत्मा' है। इन्द्र ऐसा सुनकर चला गया, किन्तु मार्ग में उसे फिर शंका ने आ घेरा कि स्वप्न में देखे गये पुरुष की आकृति जागने पर नष्ट हो जाती है, यह 'ब्रह्म' नहीं हो सकता। वह पुन: ब्रह्मा के पास लौट आया और अपनी शंका प्रकट की। तब ब्रह्मा ने उसे पुन: बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए कहा। इन्द्र ने ऐसा ही किया और पुन: ब्रह्मा के पास जा पहंचा।
तब ब्रह्मा ने कहा कि जो प्रसुप्त अवस्था में सम्पूर्ण रूप से आनन्दित और शान्त रहता है और स्वप्न का अनुभव भी नहीं करता, वही 'आत्मा' है। वही अनश्वर, अभय और 'ब्रह्म' है। इन्द्र सन्तुष्ट होकर चल दिया। उसने सोचा कि उस समय जीव को यह कैसे ज्ञान होगा कि वह कौन है और कहां से आया है? अत: यथार्थ ज्ञान शरीर से सम्बन्धित हुए बिना कैसे प्राप्त हो सकता है? शंका उत्पन्न होते ही वह पुन: ब्रह्मा के पास जा पहुंचा और अपने मन की शंका प्रकट की। इस पर ब्रह्मा ने उसे पांच वर्ष तक पुन: ब्रह्मचर्य धारण करने के लिए कहा। इस प्रकार इन्द्र ने कुल एक सौ एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन किया।
तब ब्रह्मा ने उससे कहा-'हे इन्द्र! यह शरीर मरणधर्मी है एवं सदैव मृत्यु से आच्छादित है। अविनाशी तथा अशरीरी 'आत्मा' इस शरीर में निवास करता है। जब तक यह शरीर में रहता है, तब तक प्रिय-अप्रिय से घिरा रहता है। शरीर से युक्त होने के कारण वह उनसे मुक्त नहीं हो पाता, किन्तु जब यह शरीर छोड़कर अशरीरी हो जाता है, तब प्रिय-अप्रिय कोई भी इसे स्पर्श नहीं कर पाता। तब वह 'आत्मा' आकाश में वायु की भांति ऊपर उठकर इस शरीर को छोड़ते हुए परमज्योति में केन्द्रित हो जाता है। इस प्रकार जो यथार्थ 'आत्मा' है, वह सूर्य की ज्योति से प्रकट होकर शरीर में प्रवेश करता है, किन्तु मृत्यु के समय शरीर के सभी सुख-दु:ख से मुक्त होकर यह पुन: उसी 'आदित्य' में समा जाता है। यही 'ब्रह्म है।' इन्द्र इस बार पूर्ण रूप से सन्तुष्ट होकर इन्द्रलोक को चला गया।


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