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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
 
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
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स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
  
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं सच् है , विपत्ति जब आती है ,
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सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है ,
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कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते ,
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क्षण एक नहीं धीरज खोते ,
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विघ्नों को गले लगाते हैं ,
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कांटों में राह बनाते हैं ।
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मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं ,
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संकट का चरण न गहते हैं ,
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जो आ पड़ता सब सहते हैं ,
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बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं ।
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है कौन विघ्न ऐसा जग में ,
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टिक सके आदमी के मग में ?
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ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
 
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाव उखड़ ,
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मानव जब जोर लगाता है ,
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गुन बड़े एक से एक प्रखर ,
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हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसी लाली हो ,
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मेंहदी में जैसी लाली हो,
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बत्ती जो नहीं जलाता है ,
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रोशनी नहीं वह पाता है ।
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==

14:46, 27 मई 2012 के समय का अवतरण

वीर -रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर
कवि रामधारी सिंह दिनकर
जन्म 23 सितंबर, सन् 1908
जन्म स्थान सिमरिया, ज़िला मुंगेर (बिहार)
मृत्यु 24 अप्रैल, सन् 1974
मृत्यु स्थान चेन्नई, तमिलनाडु
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं

सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं।

मुहँ से न कभी उफ़ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग - निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूळ नसाते हैं,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके आदमी के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब ज़ोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।

गुन बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसी लाली हो,
वर्तिका - बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वह पाता है।







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