"नागरीदास" के अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) |
गोविन्द राम (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | '''नागरीदास''' नाम से कई भक्त कवि [[ब्रज]] में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध 'कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह' जी हैं जिनका जन्म [[पौष]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] 12 [[संवत्]] 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 [[वर्ष]] की अवस्था में इन्होंने '[[बूँदी राजस्थान|बूँदी]]' के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये [[दिल्ली]] के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता 'महाराज राजसिंह' का देहांत हुआ। [[अहमदशाह अब्दाली|बादशाह अहमदशाह]] ने इन्हें [[दिल्ली]] में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो [[जोधपुर]] की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और [[मराठा|मरहठों]] से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर [[वृंदावन]] चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है - | + | {{सूचना बक्सा साहित्यकार |
+ | |चित्र=Nagaridas.jpg | ||
+ | |चित्र का नाम=नागरीदास | ||
+ | |पूरा नाम=महाराज सावंतसिंह | ||
+ | |अन्य नाम=नागरीदास | ||
+ | |जन्म=[[पौष]] [[कृष्ण पक्ष]] 12, [[संवत्]] 1756 | ||
+ | |जन्म भूमि= | ||
+ | |मृत्यु= | ||
+ | |मृत्यु स्थान= | ||
+ | |अविभावक=महाराज राजसिंह | ||
+ | |पालक माता-पिता= | ||
+ | |पति/पत्नी= | ||
+ | |संतान=सरदारसिंह | ||
+ | |कर्म भूमि= | ||
+ | |कर्म-क्षेत्र= | ||
+ | |मुख्य रचनाएँ=सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजसार, बिहारचंद्रिका, जुगलरस माधुरी, पदमुक्तावली आदि | ||
+ | |विषय= | ||
+ | |भाषा=[[ब्रजभाषा]] | ||
+ | |विद्यालय= | ||
+ | |शिक्षा= | ||
+ | |पुरस्कार-उपाधि= | ||
+ | |प्रसिद्धि=भक्ति कवि | ||
+ | |विशेष योगदान= | ||
+ | |नागरिकता=भारतीय | ||
+ | |संबंधित लेख= | ||
+ | |शीर्षक 1=कविताकाल | ||
+ | |पाठ 1=संवत् 1780 से 1819 तक | ||
+ | |शीर्षक 2= | ||
+ | |पाठ 2= | ||
+ | |अन्य जानकारी= | ||
+ | |बाहरी कड़ियाँ= | ||
+ | |अद्यतन= | ||
+ | }} | ||
+ | '''नागरीदास''' नाम से कई भक्त [[कवि]] [[ब्रज]] में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध 'कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह' जी हैं जिनका जन्म [[पौष]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] 12 [[संवत्]] 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 [[वर्ष]] की अवस्था में इन्होंने '[[बूँदी राजस्थान|बूँदी]]' के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये [[दिल्ली]] के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता 'महाराज राजसिंह' का देहांत हुआ। [[अहमदशाह अब्दाली|बादशाह अहमदशाह]] ने इन्हें [[दिल्ली]] में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो [[जोधपुर]] की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और [[मराठा|मरहठों]] से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर [[वृंदावन]] चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। | ||
+ | अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है - | ||
<poem>जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल। | <poem>जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल। | ||
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल | सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल | ||
पंक्ति 5: | पंक्ति 39: | ||
लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार | लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार | ||
मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय। | मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय। | ||
− | वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय | + | वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय</poem> |
− | + | ==कार्यक्षेत्र== | |
+ | [[वृंदावन]] पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो 'कृष्णगढ़ के राजा' यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने मेरे 'नागरीदास' <ref>नागरी शब्द [[राधा|श्रीराधा]] के लिए आता है</ref> नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया। | ||
+ | <poem> | ||
सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास | सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास | ||
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास। | दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास। | ||
इक मिलत भुजन भरि दौर दौर | इक मिलत भुजन भरि दौर दौर | ||
− | इक टेरि बुलावत और ठौर। | + | इक टेरि बुलावत और ठौर।</poem> |
*वृंदावन में उक्त समय [[बल्लभाचार्य|बल्लभाचार्य जी]] की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब [[यमुना]] के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये [[यमुना नदी|यमुना]] में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है - | *वृंदावन में उक्त समय [[बल्लभाचार्य|बल्लभाचार्य जी]] की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब [[यमुना]] के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये [[यमुना नदी|यमुना]] में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है - | ||
+ | <poem> | ||
देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार। | देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार। | ||
नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव। | नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव। | ||
रहे बार लगन की लगै लाज। | रहे बार लगन की लगै लाज। | ||
यह चित्त माहिं करिकै विचार।</poem> | यह चित्त माहिं करिकै विचार।</poem> | ||
− | + | वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो [[कविता]] भी करती थीं। ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला [[ग्रंथ]] 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में [[आश्विन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे। | |
− | वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो [[कविता]] भी करती थीं। | ||
− | ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला [[ग्रंथ]] 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में [[आश्विन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे। | ||
==रचनाएँ== | ==रचनाएँ== | ||
− | कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं | + | कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं- |
{| class="bharattable-pink" | {| class="bharattable-pink" | ||
|-valign="top" | |-valign="top" | ||
पंक्ति 100: | पंक्ति 135: | ||
|} | |} | ||
इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए। | इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए। | ||
− | + | ==भाषा शैली== | |
− | कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। [[भक्तिकाल]] के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि | + | कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। [[भक्तिकाल]] के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखने वाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिकांश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में बहुत कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और [[सूफ़ी मत|सूफियाना]] रंग ढंग भी कहीं कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के [[पद|पदों]] के अतिरिक्त कवित्त, [[सवैया]], अरिल्ल, रोला आदि कई [[छंद|छंदों]] का व्यवहार किया है। [[भाषा]] भी सरस और चलती है विशेषत: पदों की। कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने नीचे देखिए। |
− | |||
<poem>काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के, | <poem>काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के, | ||
तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की। | तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की। | ||
पंक्ति 111: | पंक्ति 145: | ||
जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे, | जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे, | ||
वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की <ref>वैराग्यसागर से</ref> | वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की <ref>वैराग्यसागर से</ref> | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
जौ मेरे तन होते दोय। | जौ मेरे तन होते दोय। | ||
पंक्ति 125: | पंक्ति 154: | ||
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै। | द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै। | ||
नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै<ref> पद</ref> | नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै<ref> पद</ref> | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
सब मज़हब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद। | सब मज़हब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद। |
08:26, 19 मार्च 2013 का अवतरण
नागरीदास
| |
पूरा नाम | महाराज सावंतसिंह |
अन्य नाम | नागरीदास |
जन्म | पौष कृष्ण पक्ष 12, संवत् 1756 |
संतान | सरदारसिंह |
मुख्य रचनाएँ | सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजसार, बिहारचंद्रिका, जुगलरस माधुरी, पदमुक्तावली आदि |
भाषा | ब्रजभाषा |
प्रसिद्धि | भक्ति कवि |
नागरिकता | भारतीय |
कविताकाल | संवत् 1780 से 1819 तक |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
नागरीदास नाम से कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध 'कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह' जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण 12 संवत् 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 वर्ष की अवस्था में इन्होंने 'बूँदी' के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये दिल्ली के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता 'महाराज राजसिंह' का देहांत हुआ। बादशाह अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो जोधपुर की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और मरहठों से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -
जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल
कहा भयो नृप हू भए, ढोवत जग बेगार।
लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार
मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय
कार्यक्षेत्र
वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो 'कृष्णगढ़ के राजा' यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने मेरे 'नागरीदास' [1] नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया।
सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास।
इक मिलत भुजन भरि दौर दौर
इक टेरि बुलावत और ठौर।
- वृंदावन में उक्त समय बल्लभाचार्य जी की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब यमुना के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये यमुना में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -
देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार।
नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव।
रहे बार लगन की लगै लाज।
यह चित्त माहिं करिकै विचार।
वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं। ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में आश्विन शुक्ल 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे।
रचनाएँ
कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं-
|
|
|
|
इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए।
भाषा शैली
कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखने वाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिकांश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में बहुत कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफियाना रंग ढंग भी कहीं कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदों का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है विशेषत: पदों की। कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने नीचे देखिए।
काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के,
तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की।
वेद के विवादनि को पावैगो न पार कहूँ,
छाँड़ि देहु आस सब दान न्हान गंग की
और सिद्धि सोधो अब, नागर, न सिद्ध कछू,
मानि लेहु मेरी कही वात्तराा सुढंग की।
जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे,
वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की [2]
जौ मेरे तन होते दोय।
मैं काहू तें कछु नहिं कहतो, मोतें कछु कहतो नहिं कोय
एक जो तन हरिविमुखन के सँग रहतो देस विदेस।
विविधा भाँति के जग दुख सुख जहँ, नहीं भक्ति लवलेस
एक जौ तन सतसंग रंग रँगि रहतो अति सुखपूर।
जनम सफल करि लेतो ब्रज बसि जहँ ब्रज जीवन मूर
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै।
नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै[3]
सब मज़हब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।
अरे इश्क के असर बिनु ये सबही बरबाद
आया इश्क लपेट में, लागी चश्म चपेट।
सोई आया खलक में, और भरैं सब पेट [4]
भादों की कारी अंधयारी निसा झुकि बादर मंद फुही बरसावै।
स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै छकी रसरीति मलारहि गावै
ता समै मोहन के दृग दूरि तें आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारै, दया करि दामिनि दीप दिखावै [5]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 239-42।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख