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यद्यपि नागरीदास नाम से कई भक्त कवि [[ब्रज]] में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध 'कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह' जी हैं जिनका जन्म [[पौष]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] 12 [संवत्]] 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 वर्ष की अवस्था में इन्होंने 'बूँदी' के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये [[दिल्ली]] के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता 'महाराज राजसिंह' का देहांत हुआ। बादशाह अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो [[जोधपुर]] की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और [[मराठा|मरहठों]] से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर [[वृंदावन]] चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -  
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'''नागरीदास''' नाम से कई भक्त [[कवि]] [[ब्रज]] में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध 'कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह' जी हैं जिनका जन्म [[पौष]] [[कृष्ण पक्ष|कृष्ण]] 12 [[संवत्]] 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 [[वर्ष]] की अवस्था में इन्होंने '[[बूँदी राजस्थान|बूँदी]]' के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये [[दिल्ली]] के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता 'महाराज राजसिंह' का देहांत हुआ। [[अहमदशाह अब्दाली|बादशाह अहमदशाह]] ने इन्हें [[दिल्ली]] में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो [[जोधपुर]] की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और [[मराठा|मरहठों]] से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर [[वृंदावन]] चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे।  
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अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -  
 
<poem>जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
 
<poem>जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
 
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल
 
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल
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लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार
 
लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार
 
मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय।
 
मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय
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वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय</poem>
*वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो 'कृष्णगढ़ के राजा' यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने मेरे 'नागरीदास' <ref>नागरी शब्द [[राधा|श्रीराधा]] के लिए आता है</ref> नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया ,
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==कार्यक्षेत्र==
सुनि व्यवहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास।
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[[वृंदावन]] पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो 'कृष्णगढ़ के राजा' यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने मेरे 'नागरीदास' <ref>नागरी शब्द [[राधा|श्रीराधा]] के लिए आता है</ref> नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया।
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास
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<poem>
इक मिलत भुजन भरि दौर दौर।
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सुनि व्यावहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास
इक टेरि बुलावत और ठौर
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दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास।
*वृंदावन में उक्त समय [[बल्लभाचार्य|बल्लभाचार्य जी]] की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब [[यमुना]] के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये यमुना में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -  
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इक मिलत भुजन भरि दौर दौर
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इक टेरि बुलावत और ठौर।</poem>
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*वृंदावन में उक्त समय [[बल्लभाचार्य|बल्लभाचार्य जी]] की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब [[यमुना]] के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये [[यमुना नदी|यमुना]] में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -  
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देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार।
 
देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार।
 
नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव।
 
नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव।
 
रहे बार लगन की लगै लाज।
 
रहे बार लगन की लगै लाज।
 
यह चित्त माहिं करिकै विचार।</poem>
 
यह चित्त माहिं करिकै विचार।</poem>
;समय
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वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो [[कविता]] भी करती थीं। ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला [[ग्रंथ]] 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में [[आश्विन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे।  
वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं।
+
==रचनाएँ==
ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत्1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में आश्विन शुक्ल 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे।  
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कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं-
;रचनाएँ
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{| class="bharattable-pink"
कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं ,
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|-valign="top"
सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश (संवत् 1800), पदप्रसंगमाला, ब्रजबैकुंठ तुला, ब्रजसार (संवत् 1799), भोरलीला, प्रातरसमंजरी, बिहारचंद्रिका, (संवत् 1788), भोजनानंदाष्टक, जुगलरस माधुरी, फूलविलास, गोधान-आगमन दोहन, आनंदलग्नाष्टक, फागविलास, ग्रीष्मबिहार, पावसपचीसी, गोपीबैनविलास, रासरसलता, नैनरूपरस, शीतसागर, इश्कचमन, मजलिस मंडन, अरिल्लाष्टक, सदा की माँझ, वर्षा ऋतु की माँझ, होरी की माँझ, कृष्णजन्मोत्सव कवित्त, प्रियाजन्मोत्सव कवित्त, साँझी के कवित्त, रास के कवित्त, चाँदनी के कवित्त, दिवारी के कवित्त, गोवर्ध्दनधारन के कवित्त, होरी के कवित्त, फागगोकुलाष्टक, हिंडोरा के कवित्त, वर्षा के कवित्त, भक्तिमगदीपिका (1802), तीर्थानंद (1810), फागबिहार (1808), बालविनोद, वनविनोद (1809), सुजानानंद (1810), भक्तिसार (1799), देहदशा, वैराग्यवल्ली, रसिकरत्नावली (1782), कलिवैराग्यवल्लरी (1795), अरिल्लपचीसी, छूटक विधि, पारायण विधि प्रकाश (1799), शिखनख, नखशिख छूटक कवित्त, चचरियाँ, रेखता, मनोरथमंजरी (1780), रामचरित्रमाला, पदप्रबोधमाला, जुगल भक्तिविनोद (1808) रसानुक्रम के दोहे, शरद की माँझ, साँझी फूल बीनन संवाद, वसंतवर्णन, रसानुक्रम के कवित्त, फाग खेलन समेतानुक्रम के कवित्त, निकुंजविलास (1794), गोविंद परिचयी, वनजन प्रशंसा, छूटक दोहा, उत्सवमाला, पदमुक्तावली।
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* सिंगारसार
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* गोपीप्रेमप्रकाश (संवत् 1800)
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* पदप्रसंगमाला
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* ब्रजबैकुंठ तुला
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* ब्रजसार (संवत् 1799)
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* भोरलीला
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* प्रातरसमंजरी
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* बिहारचंद्रिका (संवत् 1788)
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* भोजनानंदाष्टक
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* जुगलरस माधुरी
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* ग्रीष्मबिहार
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* रासरसलता
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* छूटक विधि
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* शिखनख
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* नखशिख छूटक कवित्त
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* चचरियाँ
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* रेखता
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* जुगल भक्तिविनोद (1808)  
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* रसानुक्रम के दोहे
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* शरद की माँझ
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* साँझी फूल बीनन संवाद
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* वसंतवर्णन
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* फाग खेलन समेतानुक्रम के कवित्त
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* निकुंजविलास (1794)
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* छूटक दोहा
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* उत्सवमाला
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इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए।  
 
इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए।  
;भाषा शैली
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==भाषा शैली==
कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखनेवाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिकांश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में बहुत कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफियाना रंग ढंग भी कहीं कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदों का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है विशेषत: पदों की। कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने नीचे देखिए ,
+
कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। [[भक्तिकाल]] के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखने वाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिकांश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में बहुत कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और [[सूफ़ी मत|सूफ़ियाना]] रंग ढंग भी कहीं कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के [[पद|पदों]] के अतिरिक्त [[कवित्त]], [[सवैया]], अरिल्ल, [[रोला]] आदि कई [[छंद|छंदों]] का व्यवहार किया है। [[भाषा]] भी सरस और चलती है विशेषत: पदों की। कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने नीचे देखिए।
 
 
 
<poem>काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के,  
 
<poem>काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के,  
 
तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की।
 
तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की।
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जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे,  
 
जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे,  
 
वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की <ref>वैराग्यसागर से</ref>
 
वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की <ref>वैराग्यसागर से</ref>
 
अंतर कुटिल कठोर भरे अभिमान सों,
 
तिनके गृह नहिं रहैं संत सनमान सों,
 
उनकी संगति भूलि न कबहूँ जाइए,
 
ब्रजनागर नँदलाल सु निसिदिन गाइए <ref>अरिल्ल</ref>
 
  
 
जौ मेरे तन होते दोय।  
 
जौ मेरे तन होते दोय।  
 
मैं काहू तें कछु नहिं कहतो, मोतें कछु कहतो नहिं कोय
 
मैं काहू तें कछु नहिं कहतो, मोतें कछु कहतो नहिं कोय
 
एक जो तन हरिविमुखन के सँग रहतो देस विदेस।
 
एक जो तन हरिविमुखन के सँग रहतो देस विदेस।
विविधा भाँति के जग दुख सुख जहँ, नहीं भक्ति लवलेस
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विविधा भाँति के जग दु:ख सुख जहँ, नहीं भक्ति लवलेस
 
एक जौ तन सतसंग रंग रँगि रहतो अति सुखपूर।
 
एक जौ तन सतसंग रंग रँगि रहतो अति सुखपूर।
 
जनम सफल करि लेतो ब्रज बसि जहँ ब्रज जीवन मूर
 
जनम सफल करि लेतो ब्रज बसि जहँ ब्रज जीवन मूर
 
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै।
 
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै।
 
नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै<ref> पद</ref>
 
नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै<ref> पद</ref>
 
चरन छिदत काँटेनि तें स्रवत रुधिर सुधि नाहिं।
 
पूछति हौं फिरि हौं भटू खग मृग तरु बन माहिं
 
कबै झुकत मो ओर को ऐहैं मदगज चाल।
 
गरबाहीं दीने दोऊ प्रिया नवल नंदलाल <ref>मनोरथ मंजरी से</ref>
 
 
  
 
सब मज़हब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।
 
सब मज़हब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।
पंक्ति 66: पंक्ति 166:
  
  
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{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>

06:15, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

नागरीदास
नागरीदास
पूरा नाम महाराज सावंतसिंह
अन्य नाम नागरीदास
जन्म पौष कृष्ण पक्ष 12, संवत् 1756
अभिभावक महाराज राजसिंह
संतान सरदारसिंह
मुख्य रचनाएँ सिंगारसार, गोपीप्रेमप्रकाश, ब्रजसार, बिहारचंद्रिका, जुगलरस माधुरी, पदमुक्तावली आदि
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि भक्ति कवि
नागरिकता भारतीय
कविताकाल संवत् 1780 से 1819 तक
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

नागरीदास नाम से कई भक्त कवि ब्रज में हो गए, पर उनमें सबसे प्रसिद्ध 'कृष्णगढ़ नरेश महाराज सावंतसिंह' जी हैं जिनका जन्म पौष कृष्ण 12 संवत् 1756 में हुआ था। ये बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवीर थे। 13 वर्ष की अवस्था में इन्होंने 'बूँदी' के हाड़ा जैत सिंह को मारा था। संवत् 1804 में ये दिल्ली के शाही दरबार में थे। इसी बीच में इनके पिता 'महाराज राजसिंह' का देहांत हुआ। बादशाह अहमदशाह ने इन्हें दिल्ली में ही कृष्णागढ़ राज्य का उत्तराधिकार दिया, पर जब ये कृष्णगढ़ पहुँचे तब राज्य पर अपने भाई बहादुरसिंह का अधिकार पाया जो जोधपुर की सहायता से सिंहासन पर अधिकार कर बैठे थे। ये ब्रज की ओर लौट आए और मरहठों से सहायता लेकर इन्होंने अपने राज्य पर अधिकार किया। इस पर गृहकलह से इन्हें कुछ ऐसी विरक्ति हो गई कि ये सब छोड़ छाड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे। अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -

जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल
कहा भयो नृप हू भए, ढोवत जग बेगार।
लेत न सुख हरि भक्ति को, सकल सुखन को सार
मैं अपने मन मूढ़ तें, डरत रहत हौं हाय।
वृंदावन की ओर तें, मति कबहूँ फिर जाय

कार्यक्षेत्र

वृंदावन पहुँचने पर वहाँ के भक्तों ने इनका बड़ा आदर किया। ये लिखते हैं कि पहले तो 'कृष्णगढ़ के राजा' यह व्यावहारिक नाम सुनकर वे कुछ उदासीन से रहे पर जब उन्होंने मेरे 'नागरीदास' [1] नाम को सुना तब तो उन्होंने उठकर दोनों भुजाओं से मेरा आलिंगन किया।

सुनि व्यावहारिक नाम को ठाढ़े दूरि उदास
दौरि मिले भरि नैन सुनि नाम नागरीदास।
इक मिलत भुजन भरि दौर दौर
इक टेरि बुलावत और ठौर।

  • वृंदावन में उक्त समय बल्लभाचार्य जी की गद्दी की पाँचवीं पीढ़ी थी। वृंदावन से इन्हें इतना प्रेम था कि एक बार ये वृंदावन के उस पार जा पहुँचे। रात को जब यमुना के किनारे लौटकर आए तब वहाँ कोई नाव बेड़ा न था। वृंदावन का वियोग इन्हें इतना असह्य हो गया कि ये यमुना में कूद पड़े और तैरकर वृंदावन आए। इस घटना का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -

देख्यो श्रीवृंदा बिपिन पार।
नहिं नाव, नाहिं कछु और दाव।
रहे बार लगन की लगै लाज।
यह चित्त माहिं करिकै विचार।

वृंदावन में इनके साथ इनकी उपपत्नी 'बणीठणीजी' भी रहती थीं, जो कविता भी करती थीं। ये भक्त कवियों में बहुत ही प्रचुर कृति छोड़ गए हैं। इनका कविताकाल संवत् 1780 से 1819 तक माना जा सकता है। इनका पहला ग्रंथ 'मनोरथमंजरी' संवत् 1780 में पूरा हुआ। इन्होंने संवत् 1814 में आश्विन शुक्ल 10 को राज्य पर अपने पुत्र सरदारसिंह जी को प्रतिष्ठित करके घरबार छोड़ा। इससे स्पष्ट है कि विरक्त होने के बहुत पहले ही ये कृष्णभक्ति और ब्रजलीला संबंधिनी बहुत सी पुस्तकें लिख चुके थे।

रचनाएँ

कृष्णगढ़ में इनकी लिखी छोटी बड़ी सब मिलाकर 73 पुस्तकें संग्रहीत हैं जिनके नाम ये हैं-

  • सिंगारसार
  • गोपीप्रेमप्रकाश (संवत् 1800)
  • पदप्रसंगमाला
  • ब्रजबैकुंठ तुला
  • ब्रजसार (संवत् 1799)
  • भोरलीला
  • प्रातरसमंजरी
  • बिहारचंद्रिका (संवत् 1788)
  • भोजनानंदाष्टक
  • जुगलरस माधुरी
  • फूलविलास
  • गोधान-आगमन दोहन
  • आनंदलग्नाष्टक
  • फागविलास
  • ग्रीष्मबिहार
  • पावसपचीसी
  • गोपीबैनविलास
  • पदमुक्तावली
  • शीतसागर
  • इश्कचमन
  • रासरसलता
  • नैनरूपरस
  • मजलिस मंडन
  • अरिल्लाष्टक
  • सदा की माँझ
  • वर्षा ऋतु की माँझ
  • होरी की माँझ
  • कृष्णजन्मोत्सव कवित्त
  • प्रियाजन्मोत्सव कवित्त
  • साँझी के कवित्त
  • रास के कवित्त
  • चाँदनी के कवित्त
  • दिवारी के कवित्त
  • गोवर्धनधारन के कवित्त
  • होरी के कवित्त
  • फागगोकुलाष्टक
  • हिंडोरा के कवित्त
  • वर्षा के कवित्त
  • भक्तिमगदीपिका (1802)
  • फागबिहार (1808)
  • तीर्थानंद (1810)
  • बालविनोद
  • वनविनोद (1809)
  • सुजानानंद (1810)
  • भक्तिसार (1799)
  • देहदशा
  • वैराग्यवल्ली
  • रसिकरत्नावली (1782)
  • कलिवैराग्यवल्लरी (1795)
  • अरिल्लपचीसी
  • छूटक विधि
  • पारायण विधि प्रकाश (1799)
  • शिखनख
  • नखशिख छूटक कवित्त
  • चचरियाँ
  • रेखता
  • मनोरथमंजरी (1780)
  • रामचरित्रमाला
  • पदप्रबोधमाला
  • जुगल भक्तिविनोद (1808)
  • रसानुक्रम के दोहे
  • शरद की माँझ
  • साँझी फूल बीनन संवाद
  • वसंतवर्णन
  • रसानुक्रम के कवित्त
  • फाग खेलन समेतानुक्रम के कवित्त
  • निकुंजविलास (1794)
  • गोविंद परिचयी
  • वनजन प्रशंसा
  • छूटक दोहा
  • उत्सवमाला

इनके अतिरिक्त 'वैनविलास' और 'गुप्तरसप्रकाश' नाम की दो अप्राप्य पुस्तकें भी हैं। इस लंबी सूची को देखकर आश्चर्य करने के पहले पाठक को यह जान लेना चाहिए कि ये नाम भिन्न भिन्न प्रसंगों वा विषयों के कुछ पद्यों में वर्णनमात्र हैं, जिन्हें यदि एकत्र करें तो 5 या 7 अच्छे आकार की पुस्तकों में आ जाएँगे। अत: ऊपर लिखे नामों को पुस्तकों के नाम न समझकर वर्णन के शीर्षक मात्र समझना चाहिए। इनमें से बहुतों को पाँच पाँच, दस दस, पचीस पचीस, पद्य मात्र समझिए।

भाषा शैली

कृष्णभक्त कवियों की अधिकांश रचनाएँ इसी ढंग की हैं। भक्तिकाल के इतने अधिक कवियों की कृष्णलीला संबंधिनी फुटकल उक्तियों से ऊबे हुए और केवल साहित्यिक दृष्टि रखने वाले पाठकों को नागरीदासजी की ये रचनाएँ अधिकांश में पिष्टपेषण सी प्रतीत होंगी। पर ये भक्त थे और साहित्य रचना की नवीनता आदि से कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। फिर भी इनकी शैली और भावों में बहुत कुछ नवीनता और विशिष्टता है। कहीं कहीं बड़े सुंदर भावों की व्यंजना इन्होंने की है। कालगति के अनुसार फारसी काव्य का आशिकी और सूफ़ियाना रंग ढंग भी कहीं कहीं इन्होंने दिखाया है। इन्होंने गाने के पदों के अतिरिक्त कवित्त, सवैया, अरिल्ल, रोला आदि कई छंदों का व्यवहार किया है। भाषा भी सरस और चलती है विशेषत: पदों की। कवित्तों की भाषा में वह चलतापन नहीं है। कविता के नमूने नीचे देखिए।

काहे को रे नाना मत सुनै तू पुरातन के,
तै ही कहा? तेरी मूढ़ गूढ़ मति पंग की।
वेद के विवादनि को पावैगो न पार कहूँ,
छाँड़ि देहु आस सब दान न्हान गंग की
और सिद्धि सोधो अब, नागर, न सिद्ध कछू,
मानि लेहु मेरी कही वात्तराा सुढंग की।
जाइ ब्रज भोरे! कोरे मन को रँगाइ ले रे,
वृंदावन रेनु रची गौर स्याम रंग की [2]

जौ मेरे तन होते दोय।
मैं काहू तें कछु नहिं कहतो, मोतें कछु कहतो नहिं कोय
एक जो तन हरिविमुखन के सँग रहतो देस विदेस।
विविधा भाँति के जग दु:ख सुख जहँ, नहीं भक्ति लवलेस
एक जौ तन सतसंग रंग रँगि रहतो अति सुखपूर।
जनम सफल करि लेतो ब्रज बसि जहँ ब्रज जीवन मूर
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्वै हैं, आयु तौ छिन छिन छीजै।
नागरिदास एक तन तें अब कहौ काह करि लीजै[3]

सब मज़हब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।
अरे इश्क के असर बिनु ये सबही बरबाद
आया इश्क लपेट में, लागी चश्म चपेट।
सोई आया खलक में, और भरैं सब पेट [4]

भादों की कारी अंधयारी निसा झुकि बादर मंद फुही बरसावै।
स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै छकी रसरीति मलारहि गावै
ता समै मोहन के दृग दूरि तें आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारै, दया करि दामिनि दीप दिखावै [5]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नागरी शब्द श्रीराधा के लिए आता है
  2. वैराग्यसागर से
  3. पद
  4. इश्क चमन से
  5. वर्षा के कवित्त से

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 239-42।

बाहरी कड़ियाँ

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