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*कृपाराम की एकमात्र ज्ञात रचना 'हिततरंगिणी' है। इन्होंने [[संवत]] 1598 में 'रसरीति' पर 'हिततरंगिणी' [[दोहा|दोहों]] में रचा था। | *कृपाराम की एकमात्र ज्ञात रचना 'हिततरंगिणी' है। इन्होंने [[संवत]] 1598 में 'रसरीति' पर 'हिततरंगिणी' [[दोहा|दोहों]] में रचा था। | ||
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*'हिततरंगिणी' के कई दोहे [[बिहारीलाल|बिहारी]] के दोहों से मिलते जुलते हैं, पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह [[ग्रंथ]] बिहारी के बाद का है; क्योंकि ग्रंथ में निर्माण काल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है। | *'हिततरंगिणी' के कई दोहे [[बिहारीलाल|बिहारी]] के दोहों से मिलते जुलते हैं, पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह [[ग्रंथ]] बिहारी के बाद का है; क्योंकि ग्रंथ में निर्माण काल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है। | ||
<blockquote><poem>सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु। | <blockquote><poem>सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु। |
07:57, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
कृपाराम पंद्रहवीं शती के उत्तरार्ध के एक प्रख्यात गणितज्ञ थे। ये हिन्दी काव्यशास्त्र के प्रथम लेखक थे, जो सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुए थे। इन्होंने बीजगणित, मकरंद, यंत्रचिंतामणि, सर्वार्थ चिंतामणि, पंचपक्षी, मुहर्ततत्व नामक टीका ग्रंथ प्रस्तुत किए थे।
- वैसे कृपाराम के विषय में अधिक जानकारी का अभाव है। 'वास्तुचंद्रिका' नामक एक मौलिक ग्रंथ भी इन्हीं का लिखा हुआ कहा जाता है।
- कृपाराम की एकमात्र ज्ञात रचना 'हिततरंगिणी' है। इन्होंने संवत 1598 में 'रसरीति' पर 'हिततरंगिणी' दोहों में रचा था।
- 'हिततरंगिणी' रीति या लक्षण ग्रंथों में बहुत पुराना है। कवि ने कहा है कि और कवियों ने बड़े छंदों के विस्तार में श्रृंगार रस का वर्णन किया है, पर मैंने 'सुघरता' के विचार से दोहों में वर्णन किया है। इससे जान पड़ता है कि इनके पहले और लोगों ने भी रीति ग्रंथ लिखे थे, जो अब नहीं मिलते हैं।
- 'हिततरंगिणी' के कई दोहे बिहारी के दोहों से मिलते जुलते हैं, पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह ग्रंथ बिहारी के बाद का है; क्योंकि ग्रंथ में निर्माण काल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है।
सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु।
हिततरंगिनी हौं रची कवि हित परम प्रकासु
- या तो बिहारी ने उन दोहों को जान बूझकर लिया है अथवा वे दोहे बाद से मिल गए।
- 'हिततरंगिणी' के दोहे बहुत ही सरस, भावपूर्ण तथा परिमार्जित भाषा में हैं -
लोचन चपल कटाच्छ सर अनियारे विष पूरि।
मन मृग बेधौं मुनिन के जगजन सहत बिसूरि
आजु सबारे हौं गई नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदुनी के भटू निरखे औरै हाल
पति आयो परदेस तें ऋतु बसंत को मानि।
झमकि झमकि निज महल में टहलैं करै सुरानि
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