अखण्डित पंजाब
अखण्डित पंजाब अर्थात् भारत के विभाजन से पूर्व का पंजाब। विभाजन से पूर्व 'पश्चिमी पंजाब', 'उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत', 'सिंध', 'बलूचिस्तान' और 'पूर्वी बंगाल' भी भारत का ही हिस्सा थे। सन 1849 में पंजाब पूरी तरह से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों में आ चुका था और ब्रिटिश शासन के अंतर्गत एक प्रांत बन गया था। वर्ष 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। इसके बाद कुछ समय से ब्रिटिश सरकार हिन्दू-मुस्लिमों को लड़ाए रखने की नीति बरत रही थी। सन 1947 में भारत के स्वतंत्र होने पर पंजाब का ब्रिटिश प्रांत, भारत तथा पाकिस्तान के नए संप्रभुता संपन्न देशों के बीच बाँट दिया गया और छोटा पूर्वी हिस्सा भारत का अंग बना।
इतिहास
वर्तमान पंजाब की आधारशिला बंदा बहादुर सिंह ने रखी थी, जो साधु थे और बाद में योद्धा बन गए थे। उन्होंने सिक्खों के लड़ाकू जत्थे के साथ प्रांत के पूर्वी हिस्से को 1709-1710 में कुछ समय के लिए मुग़ल शासन से आज़ाद करा लिया था। 1716 ई. में बंदा सिंह की हार और उन्हें फाँसी दिये जाने के बाद एक तरफ़ सिक्खों और दूसरी ओर मुग़लों व अफ़ग़ानों के बीच लम्बे संघर्षों की शुरुआत हुई। 1764-1765 में इस क्षेत्र में सिक्खों ने अपना आधिपत्य कायम कर लिया था। महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839 ई.) ने पंजाब को एक शक्तिशाली राज्य बनाया और इसमें मुल्तान, कश्मीर व पेशावर के पड़ोसी प्रांतों को शामिल कर लिया।
अंग्रेज़ों का अधिकार
रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब, ब्रिटिश सत्ता के लिए बहुत बड़े सिरदर्द का कारण बन गया। अंग्रेज़ों की कूटनीति ने सिक्खों को लड़ाई के लिए मजबूर कर दिया और अंतत: पंजाब राज्य का भी पतन हो गया। 1849 में पंजाब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथों में पड़ गया और ब्रिटिश शासन के अंतर्गत एक प्रांत बन गया। 50,000 वर्ग मील उपजाऊ जमीन और 40 लाख तगड़े किसान ब्रिटिश शासन के अधीन हो गए। पराजय के साथ-साथ सिक्खों को अपमान भी सहना पड़ा। राज्यच्युत राजकुमार दलीप सिंह ईसाई बना कर इंग्लैंड भेज दिए गए। लाहौर दरबार की सम्पत्तियाँ नीलामी पर चढ़ा दी गईं। कोहिनूर हीरा ब्रिटिश ताज की शोभा बढ़ाने के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया। लॉर्ड डलहौज़ी अमृतसर के दरबार साहब में गया और उस पवित्र अहाते के अन्दर जूते पहनकर चलता रहा।[1]
जलियाँवाला बाग़ नरसंहार
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक राज्य में 'भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन' की जड़ें मज़बूत हो चुकी थीं। इस आंदोलन में एक प्रमुख घटना घटी, जिसमें ब्रिटिश जनरल रेनाल्ड ई.एच. डायर के आदेश पर 1919 ई. में अमृतसर में 'जलियाँवाला बाग़' के नरसंहार को अंजाम दिया।
वह रविवार का दिन था और आस-पास के गांवों के अनेक किसान हिन्दुओं तथा सिक्खों का उत्सव बैसाखी बनाने अमृतसर आए थे। यह बाग़ चारों ओर से घिरा हुआ था। अंदर जाने का केवल एक ही रास्ता था। जनरल डायर ने अपने सिपाहियों को बाग़ के एकमात्र तंग प्रवेश मार्ग पर तैनात किया था। बाग़ साथ-साथ सटी ईंटों की इमारतों के पिछवाड़े की दीवारों से तीन तरफ़ से घिरा हुआ था। डायर ने बिना किसी चेतावनी के 50 सैनिकों को गोलियाँ चलाने का आदेश दिया और चीख़ते, आतंकित भागते निहत्थे बच्चों, महिलाओं, बूढ़ों की भीड़ पर 10-15 मिनट में 1650 गोलियाँ दाग़ दी गईं, जिनमें से कुछ लोग अपनी जान बचाने की कोशिश करने में लगे लोगों की भगदड़ में कुचल कर मर गए। इस हत्याकांड में हंसराज नाम के एक व्यक्ति ने डायर को सहयोग दिया था। इस हत्याकाण्ड में लगभग 400 लोगों की मौत हुई और 1200 लोग घायल हुए, जिन्हें कोई चिकित्सा सुविधा नहीं दी गई।
इन्हें भी देखें: जलियाँवाला बाग़
विभाजन
सन 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। कुछ समय से ब्रिटिश सरकार हिन्दू-मुस्लिमों को लड़ाए रखने की नीति बरत रही थी। उसी का नतीजा 'मुस्लिम लीग' थी, जिसने मुस्लिमों को अधिकारों के लिए अलग से लड़ाना शुरू किया। बाद में उनके नेता मुहम्मद अली जिन्ना हुए, जिन्होंने हिन्दुस्तान के बँटवारे के लिए आंदोलन शुरू किया। पंजाब, बंगाल और सिंध में मुस्लिम अधिक थे। उन्होंने इन हिस्सों को मिलाकर पाकिस्तान नाम से मुस्लिमों का अलग राज माँगा। हिन्दू और मुस्लिमों में अनबन हुईं, झगड़े हुए और दोनों ओर के कुछ अराजक तत्वों ने लोगों के साथ मारपीट की। बम्बई, बंगाल, बिहार की धरती हिन्दू-मुस्लिमों के लहू से रंग गई। ब्रिटिश सरकार को तो यह मंजूर था ही। कांग्रेस ने भी गाँधीजी के विरोध के बावजूद बँटवारा मंजूर कर लिया। हिन्दुस्तान दो हिस्सों में बँट गया। लॉर्ड माउंटबेटन उस समय वायसराय थे। उन्हीं के इंतजाम से 15 अगस्त, 1947 को 'पश्चिमी पंजाब', 'उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत', सिंध, बलूचिस्तान और पूर्वी बंगाल को मिलाकर पाकिस्तान बना। शेष देश हिन्दुस्तान या भारत रहा।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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