अति

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अति (अव्य.) [अत्+इन्]

1. विशेषण और क्रिया-विशेषणों से पूर्व प्रयुक्त होने वाला उपसर्ग-बहुत, अधिक, अतिशय, अत्यधिक उत्कर्ष को भी यह शब्द प्रकट करता है, नातिदूरे अत्यधिक दूर नहीं; क्रिया और कृदन्त रूपों से पूर्व भी प्रयुक्त होता है-स्वभावो ह्यतिरिच्यते आदि।

2. (क्रियाओं के साथ) ऊपर, परे; अति+इ-परे जाना, इसी प्रकार °क्रम, °चर, और °वह आदि, ऐसे अवसरों पर 'अति' उपसर्ग समझा जाता है।

3.

(क) (संज्ञा व सर्वनामों के साथ) परे, पार करते हुए, श्रेष्ठतर, प्रमुख, पूज्य, उच्चतर, ऊपर, के रूप में द्वितीया विभक्ति के साथ; या ब्रहुब्रीहि के प्रथम पद के रूप में अथवा तत्पुरुष समास में सामान्यतः उच्चता और प्रमुखता के अर्थ को प्रकट करता है; अतिगो, °गार्ग्यः =प्रशस्ता गौः, शोभनो गार्ग्यः, °राजन् = बढ़िया राजा; अथवा द्वितीय पद के साथ लग कर इसका अर्थ- 'अतिक्रांत' होता है, परन्तु इस अवस्था में द्वितीय पद में दूसरी विभक्ति होती है, अतिमर्त्यः=मर्त्यमतिक्रान्तः, °मालः=अतिक्रान्तो मालाम्, इसी प्रकार अतिकाय, दे. °केशर अति देवान् कृष्णः- सिद्धा.
(ख) (कृदन्त शब्दों से पूर्व) अतिरंजित, अत्यधिक, अंतिमात्र, उदा. °आदरः=अत्यधिक आदर, °आशा=अतिरंजित आशा, इसी प्रकार °भयम्, °तृष्णा, °आनन्दः इत्यादि।
(ग) अयोग्य, अनुचित, असप्रति (अयुक्तता) तथा क्षेप (निन्दा) के अर्थ में, यथा-अतिनिद्रम्= निद्रा संप्रति न युज्यते-सिद्धा.।[1]


इन्हें भी देखें: संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेताक्षर सूची), संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेत सूची) एवं संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 19-20 |

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