अथ
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अथ (अव्य.) [अर्थ+ड पृषो. रलोपः]
- 1. मंगलसूचक शब्द जो किसी रचना के आरंभ में प्रयुक्त होता है-और जिसका अनुवाद 'यहां' 'अब'=मंगल, आरंभ, अधिकार, किया जाता है। परन्तु यदि सही रूप से देखा जाए तो 'अथ' का अर्थ 'मंगल' नहीं है, तो भी इस शब्द का उच्चारण या श्रवणमात्र 'मंगल' का सूचक समझा जाता है, क्योंकि यह शब्द ब्रह्मा के कण्ठ से निकला हुआ माना जाता है और इसीलिए हम शांकरभाष्य में देखते हैं-अर्थान्तरप्रयुक्तः अथशब्दः श्रुत्या मंगलमारचयति, अथ निर्वचनम्, अथ योगानु- शासनम्
- 2. तब, उसके पश्चात्-अथ प्रजा-नामधिपः प्रभाते बनाय धेनुं मुमोच- रघुवंश 2/1
- 3. और, इसी से तो और भी, इसी भांति
- 4. प्रश्न आरंभ करते समय या पूछते समय, बहुधा प्रश्नवाचक शब्द के साथ
- 5. समष्टि, सम्पूर्णता
सम.-अपि (अव्य.) और भी, और फिर आदि, किम् (अव्य.) और क्या, हाँ, ठीक ऐसा ही, बिल्कुल ऐसा ही, अवश्य ही,-च (अव्य.) और भी, इसी प्रकार,-वा (अव्य.) 1. या; 2. अधिकतर, क्यों, कदाचित्, पिछली बात को संशुद्ध करते हुए।[1]
इन्हें भी देखें: संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेताक्षर सूची), संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेत सूची) एवं संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 26 |
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