अभाव
अभाव किसी वस्तु का न होना। कुमारिल के अनुसार अभावज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता क्योंकि वहाँ विषयेंद्रियसंबंध नहीं है। अभाव के साथ लिंग की व्याप्ति नहीं होती, अत: अनुमान भी नहीं हो सकता। अभाव ज्ञान के लिए मीमांसा में अनुपलब्धि नामक अलग प्रमाण माना गया है। अभावज्ञान के लिए इंद्रियसंबंध की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ वस्तु का अभाव होता है वहाँ वस्तु का अभाव उस स्थान का विशेषण बन जाता है। यह अभाव विशिष्ट आधार का ज्ञान प्रत्यक्ष जैसा हो, किंतु विशेष्य - विशेषण - भाव नामक एक अलग संनिकर्ष से होता है। अत: घर के अभाव का ज्ञान सर्वदा भूतलज्ञान के कारण होता है। बौद्ध दर्शन में अभाव के साथ कोई संबंध नहीं है। इसलिए अभावज्ञान संभव नहीं है। जहाँ अभावज्ञान होता है वहाँ किसी न किसी प्रकार का भावात्मक ज्ञान ही होता है।[1]
न्यायवैशेषिक दर्शन में भावात्मक और अभावात्मक दो प्रकार के पदार्थ मान गए हैं। अभाव उतना ही सत्य है जितना वस्तु का सद्भाव।
वैशेषिक दर्शन में चार प्रकार के अभावों का उल्लेख है-
- प्रागभाव - उत्पत्ति के पूर्व वस्तु का अभाव,
- प्रध्वंसाभाव - विनाश के बाद वस्तु का अभाव,
- अन्योन्याभाव - एक वस्तु का दूसरी वस्तु में अभाव, और
- अत्यंताभाव - वह अभाव जो सर्वदा वर्तमान हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 173 |