अर्ह्
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अर्ह (भ्वा. पर.) [अर्हति, अर्हितुम्, आनर्ह, अर्हित] (आर्ष प्रयोग-आ., रावणो नार्हते पूजाम्-रामा.)
- 1. अधिकारी होना, योग्य होना (कर्म. तथा तुमुन्नन्त के साथ)-किमिव नायुष्मानमरेश्व-रान्नार्हति-श. 7
- 2. अधिकार रखना, अधिकारी बनना-ननुगर्भः पित्र्यं रिक्थमर्हति-श. 6, न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति-मनुस्मृति 9/3
- 3. योग्य होना, पात्र बनना-अर्थना मयि भवद्भिः कर्तृमर्हति-नै. 5/113, दश. 137
- 4. समान होना, योग्य होना-न ते गात्राण्युपचारमर्हन्ति-श. 3/18, सर्वे ते जपयज्ञस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्-मनु. 2/86
- 5. योग्य होना, अनुवाद 'सकता'-न मे वचनमन्यथा भवितुमर्हति-श. 4
- 6. पूजा करना, सम्मान करना नीचे प्रेर.दे.
- 7. (मध्यम पुरुष के साथ- कभी-कभी अन्य पुरुष के साथ भी-तुमुन्नन्त का प्रयोग होता है), 'अहू' धातु मृदु आदेश, शिष्ट प्रार्थना तथा परामर्श के लिए प्रयुक्त होता है-इसका अनुवाद होता है:- कृपा करना, अनुग्रह करना, प्रसन्न होना-द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढुमर्हन्- रघु. 5/25, कृपया प्रतीक्षा कीजिए:-नार्हसि मे प्रणयं विहन्तुम्-2/58, [प्रेर. या चु.पर.] सम्मान करना, पूजा करना,-राजार्जिहत्तं मधुपर्कपाणिः-भट्टि. 1/17, मनुस्मृति 3/119[1]
इन्हें भी देखें: संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेताक्षर सूची), संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश (संकेत सूची) एवं संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश |लेखक: वामन शिवराम आप्टे |प्रकाशक: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 |पृष्ठ संख्या: 109 |
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