अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ

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अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
पूरा नाम अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
जन्म 22 अक्टूबर, 1900 ई.
जन्म भूमि शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 19 दिसम्बर, 1927 ई.
मृत्यु स्थान फैजाबाद, उत्तर प्रदेश
अभिभावक पिता- मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ, माता- मजहूरुन्निशाँ बेगम
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
धर्म इस्लाम
विशेष योगदान अशफ़ाक़ उल्ला सदा यह प्रयत्न करते रहे कि उनकी भांति और भी मुस्लिम नवयुवक क्रान्तिकारी दल के सदस्य बनें और देश की आज़ादी में अपना योगदान करें।
संबंधित लेख काकोरी काण्ड, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, चंद्रशेखर आज़ाद
विशेष अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ भारत के ऐसे पहले मुस्लिम थे, जिन्हें किसी षड़यंत्र के तहत फ़ाँसी की सज़ा दी गई थी।
अन्य जानकारी महात्मा गांधी का प्रभाव अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ के जीवन पर प्रारम्भ से ही था, लेकिन जब 'चौरी चौरा घटना' के बाद गांधीजी ने 'असहयोग आंदोलन' वापस ले लिया, तब उनके मन को अत्यंत पीड़ा पहुँची थी।

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Ashfaq Ulla Khan; जन्म- 22 अक्टूबर, 1900 ई., शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 19 दिसम्बर, 1927 ई., फैजाबाद) को भारत के प्रसिद्ध अमर शहीद क्रांतिकारियों में गिना जाता है। देश की आज़ादी के लिए हंसते-हंसते प्राण न्यौछावर करने वाले अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे। 'काकोरी कांड' के सिलसिले में 19 दिसम्बर, 1927 ई. को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ऐसे पहले मुस्लिम थे, जिन्हें षड्यंत्र के मामले में फाँसी की सज़ा हुई थी। उनका हृदय बड़ा विशाल और विचार बड़े उदार थे। हिन्दू-मुस्लिम एकता से सम्बन्धित संकीर्णता भरे भाव उनके हृदय में कभी नहीं आ पाये। सब के साथ सम व्यवहार करना उनका सहज स्वभाव था। कठोर परिश्रम, लगन, दृढ़ता, प्रसन्नता, ये उनके स्वभाव के विशेष गुण थे।

जन्म तथा परिवार

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म 22 अक्टूबर, 1900 ई. को उत्तर प्रदेश में शाहजहाँपुर ज़िले के 'शहीदगढ़' नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम मोहम्मद शफ़ीक़ उल्ला ख़ाँ था, जो एक पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे तथा माता मजहूरुन्निशाँ बेगम थीं। इनकी माता बहुत सुन्दर थीं और ख़ूबसूरत स्त्रियों में गिनी जाती थीं। इनका परिवार काफ़ी समृद्ध था। परिवार के सभी लोग सरकारी नौकरी में थे। किंतु अशफ़ाक़ को विदेशी दासता विद्यार्थी जीवन से ही खलती थी। वे देश के लिए कुछ करने को बेताव थे। बंगाल के क्रांतिकारियों का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था।

बाल्यावस्था

अपनी बाल्यावस्था में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगता था। खनौत में तैरने, घोड़े की सवारी करने और भाई की बन्दूक लेकर शिकार करने में इन्हें बड़ा आनन्द आता था। ये बड़े सुडौल, सुन्दर और स्वस्थ जवान थे। चेहरा हमेशा खिला रहता था और दूसरों के साथ हमेशा प्रेम भरी बोली बोला करते थे। बचपन से ही उनमें देश के प्रति अपार अनुराग था। देश की भलाई के लिये किये जाने वाले आन्दोलनों की कथाएँ वे बड़ी रुचि से पड़ते थे।

कविता का शौक

अशफ़ाक़ कविता आदि भी किया करते थे। उन्हें इसका बहुत शौक़ था। उन्होंने बहुत अच्छी-अच्छी कवितायें लिखी थीं, जो स्वदेशानुराग से सराबोर थीं। कविता में वे अपना उपनाम हसरत लिखते थे। उन्होंने कभी भी अपनी कविताओं को प्रकाशित कराने की चेष्टा नहीं की। उनका कहना था कि "हमें नाम पैदा करना तो है नहीं। अगर नाम पैदा करना होता तो क्रान्तिकारी काम छोड़ लीडरी न करता?" उनकी लिखी हुई कविताएँ अदालत आते-जाते समय अक्सर 'काकोरी कांड' के क्रांतिकारी गाया करते थे।

  • अपनी भावनाओं का इजहार करते हुए अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने लिखा था कि- जमीं दुश्मन, जमां दुश्मन, जो अपने थे पराये हैं, सुनोगे दास्ताँ क्या तुम मेरे हाले परेशाँ की[1]

राम प्रसाद बिस्मिल से मित्रता

राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ के सम्मान में जारी डाक टिकट

देश में चल रहे आन्दोलनों और क्रांतिकारी गतिविधियों से अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ प्रभावित होने लगे थे। धीरे-धीरे उनमें क्रान्तिकारी भाव पैदा होने लगे। उनको बड़ी उत्सुकता हुई कि किसी ऐसे आदमी से भेंट हो जाये, जो क्रान्तिकारी दल का सदस्य हो। उस समय 'मैनपुरी षड़यन्त्र' का मामला चल रहा था। अशफ़ाक़ शाहजहाँपुर में ही स्कूल में शिक्षा पाते थे। 'मैनपुरी षड़यन्त्र' में शाहजहाँपुर के ही रहने वाले एक नवयुवक के नाम भी वारण्ट निकला था। वह नवयुवक और कोई नहीं, रामप्रसाद बिस्मिल थे। यह जानकर अशफ़ाक़ को बड़ी प्रसन्नता हुई कि उनके शहर में ही एक आदमी है, जैसा कि वे चाहते थे। किन्तु मामले से बचने के लिये रामप्रसाद बिस्मिल फ़रार थे। जब शाही ऐलान द्वारा सब राजनीतिक कैदी छोड़ दिये गये, तब रामप्रसाद बिस्मिल भी शाहजहाँपुर आ गये। जब अशफ़ाक़ को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने बिस्मिल से मिलने की कोशिश की। उनसे मिलकर षड्यंत्र के सम्बन्ध में बातचीत करनी चाही। पहले तो रामप्रसाद बिस्मिल ने टालमटूल कर दी। परन्तु फिर अशफ़ाक़ के व्यवहार और बर्ताव से वह इतने प्रसन्न हुए कि उनको अपना बहुत ही घनिष्ट मित्र बना लिया। इस प्रकार वे क्रान्तिकारी जीवन में आ गये। क्रान्तिकारी जीवन में पदार्पण करने के बाद से अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ सदा प्रयत्न करते रहे कि उनकी भांति और भी थे मुस्लिम नवयुवक क्रान्तिकारी दल के सदस्य बनें। हिन्दु-मुस्लिम एकता के वे बहुत बड़े समर्थक थे।

काकोरी काण्ड

महात्मा गांधी का प्रभाव अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ के जीवन पर प्रारम्भ से ही था, लेकिन जब 'चौरी चौरा घटना' के बाद गांधीजी ने 'असहयोग आंदोलन' वापस ले लिया तो उनके मन को अत्यंत पीड़ा पहुँची। रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में 8 अगस्त, 1925 को शाहजहाँपुर में क्रांतिकारियों की एक अहम बैठक हुई, जिसमें हथियारों के लिए ट्रेन में ले जाए जाने वाले सरकारी ख़ज़ाने को लूटने की योजना बनाई गई। क्रांतिकारी जिस धन को लूटना चाहते थे, दरअसल वह धन अंग्रेज़ों ने भारतीयों से ही हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ, रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र बख्शी, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुन्द लाल और मन्मथ लाल गुप्त ने अपनी योजना को अंजाम देते हुए लखनऊ के नजदीक 'काकोरी' में ट्रेन द्वारा ले जाए जा रहे सरकारी ख़ज़ाने को लूट लिया। 'भारतीय इतिहास' में यह घटना "काकोरी कांड" के नाम से जानी जाती है। इस घटना को आज़ादी के इन मतवालों ने अपने नाम बदलकर अंजाम दिया था। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना नाम 'कुमारजी' रखा। इस घटना के बाद ब्रिटिश हुकूमत पागल हो उठी और उसने बहुत से निर्दोषों को पकड़कर जेलों में ठूँस दिया। अपनों की दगाबाजी से इस घटना में शामिल एक-एक कर सभी क्रांतिकारी पकड़े गए, लेकिन चन्द्रशेखर आज़ाद और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ पुलिस के हाथ नहीं आए।[2]

गिरफ्तारी

इस घटना के बाद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ शाहजहाँपुर छोड़कर बनारस आ गए और वहाँ दस महीने तक एक इंजीनियरिंग कंपनी में काम किया। इसके बाद उन्होंने इंजीनियरिंग के लिए विदेश जाने की योजना बनाई ताकि वहाँ से कमाए गए पैसों से अपने क्रांतिकारी साथियों की मदद करते रहें। विदेश जाने के लिए वह दिल्ली में अपने एक पठान मित्र के संपर्क में आए, लेकिन उनका वह दोस्त विश्वासघाती निकला। उसने इनाम के लालच में अंग्रेज़ पुलिस को सूचना दे दी और इस तरह अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ पकड़ लिए गए।

सरकारी गवाह बनाने की कोशिश

जेल में अशफ़ाक़ को कई तरह की यातनाएँ दी गईं। जब उन पर इन यातनाओं का कोई असर नहीं हुआ तो अंग्रेज़ों ने तरह−तरह की चालें चलकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेज़ अपने इरादों में किसी भी तरह कामयाब नहीं हो पाए। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान आज़ाद हो भी गया तो भी उस पर मुस्लिमों का नहीं हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ नहीं मिलेगा। इसके जवाब में अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अंग्रेज़ अफ़सर से कहा कि- "फूट डालकर शासन करने की चाल का उन पर कोई असर नहीं होगा और हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा"। उन्होंने अंग्रेज़ अधिकारी से कहा- "तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब बिलकुल नहीं दबा सकते। अपने दोस्तों के ख़िलाफ़ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूँगा।"[3]

शहादत

19 दिसम्बर, 1927 को अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को फैजाबाद जेल में फाँसी दे दी गई। इस तरह भारत का यह महान् सपूत देश के लिए अपना बलिदान दे गया। उनकी इस शहादत ने देश की आज़ादी की लड़ाई में हिन्दू-मुस्लिम एकता को और भी अधिक मजबूत कर दिया। आज भी उनका दिया गया बलिदान देशवासियों को एकता के सूत्र में पिरोने का काम करता है।

प्रेरक प्रसंग

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ से जुड़े कई प्रसंग ऐसे हैं, जो उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का पक्षधर सिद्ध करते हैं-

  • अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ के लिए मंदिर और मसजिद एक समान थे। एक बार जब शाहजहाँपुर में हिन्दू और मुस्लिमों में झगड़ा हुआ और शहर में मारपीट शुरू हो गई, उस समय अशफ़ाक़ बिस्मिल जी के साथ आर्य समाज मन्दिर में बैठे हुए थे। कुछ मुस्लिम मन्दिर के पास आ गए और आक्रमण करने के लिए तैयार हो गए। अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने अपना पिस्तौल निकाल लिया और आर्य समाज मन्दिर से बाहर आकर मुस्लिमों से कहने लगे कि "मैं कटटर मुसलमान हूँ, परन्तु इस मन्दिर की एक-एक ईंट मुझे प्राणों से प्यारी है। मेरे नजदीक मन्दिर और मसजिद की प्रतिष्ठा बराबर है। अगर किसी ने इस मन्दिर की ओर निगाह उठाई तो गोली का निशाना बनेगा। अगर तुमको लड़ना है तो बाहर सड़क पर चले जाओ और खूब दिल खोल कर लड़ लो।" उनकी इस सिंह गर्जना को सुनकर सबके होश गुम हो गए और किसी का साहस नहीं हुआ, जो आर्य समाज मन्दिर पर आक्रमण करे। यह अशफ़ाक़ का सार्वजनिक प्रेम था। इस से भी अधिक उनको रामप्रसाद बिस्मिल जी से प्रेम था।[4]
  • एक बार अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ बहुत बीमार पड़ गये। उस समय वे 'राम-राम' कहकर पुकारने लगे। माता-पिता ने बहुत कहा कि तुम मुस्लिम हो, खुदा-खुदा कहो, परन्तु उस प्रेम के सच्चे पुजारी के कान में यह आवाज़ ही नहीं पहुँची और वह बराबर 'राम-राम' कहते रहे। माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों की समझ में यह बात नहीं आई। उसी समय एक अन्य व्यक्ति ने आकर उनके सम्बन्धियों से कहा कि यह रामप्रसाद बिस्मिल को याद कर रहे हैं। यह एक-दूसरे को राम और कृष्ण कहते हैं। अतः एक आदमी जाकर बिस्मिल जी को बुला लाया। उनको देख कर अशफ़ाक़ ने कहा "राम तुम आ गए"। उस समय उनके घर वालों को राम का पता चला। अशफ़ाक़ के इन आचरणों से उनके सम्बन्धी कहते थे कि वे काफ़िर हो गये हैं, किन्तु वे इन बातों की कभी परवाह नहीं करते थे और सदैव एकाग्र चित्त से अपने व्रत पर अटल रहे।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 फ़रवरी, 2013।
  2. एकता की डोर मजबूत की अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ ने (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 फ़रवरी, 2013।
  3. एकता के प्रतीक-अशफ़ाक उल्ला ख़ाँ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 फ़रवरी, 2013।
  4. 4.0 4.1 अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ-मैं मुसलमान तुम काफिर (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 22 फ़रवरी, 2013।

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