आख्यान
आख्यान उसको कहते हैं जिसे वर्णन करने वाले ने निज नेत्रों से देखा हो। आख्यान शब्द आरंभ से ही सामान्यत: कथा अथवा कहानी के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। तारानाथ कृत 'वाचस्पत्यम्' नामक कोश के प्रथम भाग में, इसकी व्युत्पत्ति 'आख्यायते अनेनेतिआख्यानम्' दी है। साहित्यदर्पण में आख्यान को 'पुरावृत कथन' (आख्यानं पूर्ववृतोक्ति) कहा गया है। डॉ.एस.के.दे के मतानुसार ऋग्वेद के कथात्मक सूक्त वस्तुत: पौराणिक और निजंधरी आख्यान ही है।[1] यास्क ने निरुक्त (11।15) में सरमा पणीस की कथा को आख्यान कहा है।
'आख्यान' और संस्कृत 'आख्यायिका' दोनों के वर्णविन्यासों में सादृश्य होने के कारण ही संभवत: हिंदी के कुछ विद्वान् 'आख्यायिका' के शास्त्रीय लक्षणों को 'आख्यान' के ऊपर लागू करके उसके स्वरूपसंपादन का प्रयास करते रहे हैं। किंतु संस्कृत के लक्षणशास्त्रों में परस्पर कुछ ऐसे मौलिक विरोध वर्तमान हैं कि उन्हें एक दूसरे का समानार्थक नहीं माना जा सकता। संस्कृत में आख्यायिका की श्रेणी की एक गद्यबद्ध रचना और भी होती थी, जिसे कथा कहते थे। भामह ने काव्यालंकार[2] में सुंदर गद्य में रचित सरस कहानी को 'आख्यायिका' कहा है। यह उच्छ्वासों में बँटी होती थी ओर इसमें नायक अपने वृत्त तथा चेष्टा का वर्णन स्वयं करता था। बीच-बीच में वक्त्र और अपवक्त्र छंद आ जाते थे, जबकि कथा में वक्त्र और अपवक्त्र छंद नहीं होते थे, न ही इसका विभाजन उच्छ्वासों में होता था।
श्री परशुराम चतुर्वेदी ने लिखा है कि 'आख्यायिका' की विशेषता इस बात में पाई जाती है कि वह स्वयं किसी अपने पात्र द्वारा ही कही गई होती है जिस कारण उसकी बहुत सी बातें आत्मोद्गारपरक बन जाती हैं। प्रेमाख्यानवाले 'आख्यान' शब्द का मूल अर्थ भी किसी ऐसी विशेषता की ही ओर संकेत करता जाना पड़ता है। 'महाभारत' एवं 'रामायण' के 'आख्यान' कहे जाने की सार्थकता भी कदाचित् इसी बात में निहित होगी कि उनके रचयिता क्रमश: व्यास एवं वाल्मीकि ने अपनी देखी सुनी बातें हीं लिखी थीं, उनमें कल्पना का वैसा अंश नहीं रहता, जो कथा के संबंध में प्राय: आवश्यक माना जाएा करता है। आख्यान शब्द को इसी कारण अपेक्षाकृत अधिक 'वृत्तांतपरक' और तदनुसार विशुद्ध भी कह सकते हैं। अतएव प्रेमकहानी के भी मूल रूप में वस्तुत: 'आपबीती' जैसी ही होने से 'प्रेम' शब्द के साथ किए गए इसके प्रयोग को सर्वथा उपयुक्त समझना चाहिए (भारतीय प्रेमाख्यान की परंपरा, तृतीय अनुच्छेद)।
उपर्युक्त पंक्तियों में चतुर्वेदी जी ने सीधे न कहकर कथनलाघव के माध्यम से आख्यान को आख्यायिका का सदृशार्थक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। एक अन्य स्थल (हिंदी साहित्य, द्वितीय खंड, सं. धीरेंद्र वर्मा तथा ब्रजेश्वर वर्मा, पृ. 245) पर भी, किंतु जरा अधिक स्पष्ट ढंग से, वह यही बात दुहराते हैं, प्रेमाख्यान' का 'आख्यान' शब्द मूलत: आख्यायिका का ही एक रूपांतर सा प्रतीत होता है।
किसी कथाकृति को आख्यान संज्ञा देने के लिए यदि यह नितांत आवश्यक हो कि उसके रचयिता ने कथा को स्वयं 'देखा सुना' हो तो रामायण एवं महाभारत के संदर्भ में अभी तक ऐसे प्रमाण अथवा साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं कि उनके आधार पर निश्चिंत होकर यह कह दिया जए कि उनके रचयिताओं ने वही सब कुछ लिखा जो स्वयं उन्होंने 'देखा सुना' था। साथ ही 'देखा सुना' पद क्या अपने में अस्पष्ट एवं अनिश्चित अर्थ का द्योतक नहीं है? अस्तु, रामायण एवं महाभारत को 'आख्यान' नाम देने का अवश्य ही कोई दूसरा कारण रहा होगा। वैदिक साहित्य से लेकर हिंदी साहित्य तक जितने भी आख्यान ग्रंथ मिलते हैं या जिन्हें आख्यानक ग्रंथ माना जाता है, उनमें से कोई एकाध 'अपेक्षाकृत अधिक वृत्तांतपरक और तदनुसार विशुद्ध' हो तो हो, शेष कल्पनाप्रधान ही है। कथा और आख्यानक ग्रंथों की तो बात ही क्या, चरितग्रंथों और चरितकाव्यों तक में कल्पना ने इतिहास को बुरी तरह आक्रांत कर रखा है।
डॉ. शंभुनाथ सिंह (हिंदी महाकाव्य का स्वरूपविकास, पृ. 6) ने आदिकालीन आख्यानक नृत्यगीतों से नृत्य, संगीत और आख्यान तीनों का विकास माना है। आगे चलकर (पृ. 10) उन्होंने यह भी कहा है कि इन आख्यानों का वस्तुतत्व पौराणिक, निजंधरी, समसामयिक तथा कल्पित; इन चार प्रकार के पात्रों, घटनाओं और परिस्थितियों को लेकर गठित हुआ है। पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी (हिंदी साहित्य की भूमिका, पृ. 48) ने भी आख्यान को आख्यायिका से पृथक् एक लोकविधा माना है, यथा परंतु जनसाधारण का एक और विभाग, जिसमें धर्म का स्थान नहीं था, जो अपभ्रंश साहित्य के पश्चिमी आकर से सीधे चला आ रहा था, जो गाँवों की बैठकों में कथानक रूप से और गान रूप से चल रहा था, उपेक्षित होने लगा था। इन सूफी साधकों ने पौराणिक आख्यानों के बदले हुए लोकप्रचलित कथानकों का आश्रय लेकर ही अपनी बात जनता तक पहुँचाई। वस्तुत: आख्यान को आख्यायिका सिद्ध करने के कारण ही चतुर्वेदी जी को उक्त सब कुछ कहना करना पड़ा। इतना ही नहीं, भामहकालीन 'आख्यायिका' के इस लक्षण-उसमें नायक अपने वृत्त तथा चेष्टा का वर्णन स्वयं करता था-को आख्यान पर घटाने के लिए उन्हें 'प्रेम कहानी के मूल रूप में आपबीती जैसी' भावना की क्लिष्ट कल्पना तक करनी पड़ी।
साहित्य निरंतर गतिशील है। अत: वह युगानुरूप अपनी विधाओं में परिवर्तन, परिवर्धन, संशोधन तथा परिष्कार करता चलता है और लक्षण साहित्यिक विधाओं को लेकर ही निश्चित किए जाते हैं, उनपर जबरदस्ती घटाए नहीं जा सकते। इसीलिए भामह के बाद दंडी ने काव्यादर्श (1।23-28) में कथा और आख्यायिका को एक ही श्रेणी की रचनाएँ मानते हुए कहा है कि कहानी नायक कहे या कोई और कहे, अध्याय का विभाजन हो या न हो, अध्यायों का नाम उच्छ्वास रखा जाए या लंब, बीच में वक्त्र, अपवक्त्र छंद आएँ अथवा न आएँ, कहानी में कोई अंतर नहीं पड़ता। अत: इन ऊपरी भेदों के कारण 'कथा' और 'आख्यायिका' में अंतर करना चाहिए। नवीं शती (लगभग) में आचार्य रुद्रट ने तो तत्कालीन प्रचलित साहित्य के आधार पर यहाँ तक कह दिया था कि केवल संस्कृत में निबद्ध कथाओं के लिए गद्य में लिखने का बंधन है; परंतु अन्य भाषाओं में लिखी जानेवाली रचनाएँ पद्य में भी लिखी जा सकती हैं। यहाँ 'अन्य भाषाओं' से प्राकृत और अपभ्रंश की ओर इशारा किया गया है। अत: सिद्ध है कि युगानुरूप साहित्यिक विधाओं के मानदंड बदलते रहते हैं।
दंडी ने भी कथा और आख्यायिका के अंतर्गत समस्त आख्यान जाति (खंडकथा, परिकथा आदि) को अंतर्भुक्त माना है, यथा-
तत् कथाख्यायिकेत्येका जाति: संज्ञा द्वयांकिता।
अत्रैवांतर्भविश्यंति शेषाश्चाख्यान जातय: ।।
-काव्यादर्श (1।28)
अत: स्पष्ट है कि दंडी के समय में भी आख्यान जातिवाचक शब्द था। महाभारत में अनेक आख्यानों एवं उपाख्यानों का संकलन है, इसलिए इसे आख्यानकाव्य कहा गया होगा। रामायण को भी आख्यान संज्ञा देने का कारण संभवत: यही रहा होगा।
हिंदी में 'आख्यान' शब्द प्राय: साधारण कथा या वृत्तांत के रूप में ही प्रयुक्त होता है। इसीलिए प्रेमाख्यानक काव्यों के अंतर्गत कथा (सत्यवती कथा), चरित (छिताई चरित), वार्ता (मधुमालती वार्ता), दूहा (ढोला मारूरा दूहा), चौपाई या चौपई (माधवानल कामकंदला चउपई), रास (बीसलदेव रास) आदि सभी काव्यविधाएँ प्राप्य हैं।[3]
आख्यानों की सत्ता का प्रमाण ऋग्वेद की संहिता में ही हमें उपलब्ध होता है। अथर्ववेद में[4] इतिहास तथा पुराण का उल्लेख मौखिक साहित्य के रूप में न होकर लिखित ग्रंथ के रूप में किया गया मिलता है। वेदों की व्याख्यानप्रणाली के विभिन्न संप्रदायों में यास्क ने ऐतिहासिकों के संप्रदाय का अनेक बार उल्लेख किया है जिनके अनुसार 'वृत्र' त्वाष्ट्र असुर की संज्ञा है और देवों के अधिपति इंद्र के साथ उसके घोर संघर्ष और तुमुल संग्राम का वर्णन ऋग्वेद के मंत्रों में किया गया है। इस संप्रदाय के व्याख्याकारों की सम्मति में वेदों में महत्वपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। ऋग्वेद में आख्यानों की संख्या कम नहीं है। इनमें से कुछ आख्यान तो वैयक्तिक देवता के विषय में हैं और कुछ किसी सामूहिक घटना को लक्ष्य कर प्रवृत्त होते हैं। ऋग्वेद में इंद्र तथा अश्विन के विषय में भी अनेक आख्यान मिलते हैं जिनमें इन देवों की वीरता, पराक्रम तथा उपकार की भावना स्पष्ट अंकित की गई है। ऋग्वेद के भीतर 30 आख्यानों का स्पष्ट निर्देश किया गया है जिनमें से कतिपय प्रख्यात आख्यान ये हैं-शुन:शेप (1।24), अगस्त्य और लोपामुद्रा,[5] गृत्समद (2।12), वसिष्ठ और विश्वामित्र (3।53, 7।33 आदि), सोम का अवतरण (3।43), त््रयरूण और वृशजान (5।2), अग्नि का जन्म (5।11), श्यावाश्व (5।32), बृहस्पति का जन्म (6।71), राजा सुदास (7।18), नहुष (7।95), अपाला (8।91), नाभानेदिष्ठ (10।61।62), वृषाकपि (10।86), उर्वशी और पुरूरवा (10।95), सरमा और पणि (10।108), देवापि और शंतनु (10।98), नचिकेता (10।135),। इनके अतिरिक्त दानस्तुतियों में अनेक राजाओं के नाम उपलब्ध हैं जिनसे दान पाकर अनेक ऋषियों को उनकी स्तुति में मंत्र लिखने की प्रेरणा मिली। इन स्तुतियों में भी कतिपय आख्यानों की ओर स्पष्ट संकेत विद्यमान हैं।
ऋग्वेद से भिन्न वैदिक ग्रंथों में भी आख्यानों का विवरण दिया गया है। इनमें से कतिपय आख्यान तो एकदम नवीन हैं, परंतु कुछ ऋग्वेद में संकेतित आख्यानों के ही परिबृंहित रूप हैं। ऋग्वेद से संबद्ध 'अनुक्रमणी साहित्य' में, विशेषत: बृहद्देवता और सर्वानुक्रमणी में, निरुक्त, नीतिमंजरी और सायण भाष्य में इन आख्यानों को विस्तृत घटनाओं का भी वर्णन हुआ है। पुराणों में भी ये आख्यान वर्णित हैं, परंतु इनकी घटनाओं में कहीं ह्रास और कहीं परिबृंहण दृष्टिगोचर होता है। ब्राह्मण तथ श्रौतसूत्र भी इनके विकास के अध्ययन के लिए आवश्यक सामग्री प्रस्तुत करते हैं। उदाहरणार्थ सोभरि काण्व का आख्यान, जो ऋग्वेद के अनेक सूक्तों[6] में संकेतित है, भागवत में विस्तार से वर्णित है (भागवत, स्कंध 9, अ. 6।38--55)। श्यावाश्व आत्रेय का आख्यान ऋग्वेद में (5।61) उल्लिखित होने के अतिरिक्त सांख्यायन श्रोतसूत्र[7] में भी निर्दिष्ट है। च्यवान (पुराणों में 'च्यवन') भार्गव तथा सुकन्या मानवी का आख्यान ऋग्वेद के अनेक सूक्तो[8] में संकेतित होकर तांड्य ब्राह्मण,[9] निरुक्त (4।19), शतपथ ब्राह्मण (कांड 4) तथा श्रीमद्भागवत पुराण (9।3) में विस्तार के साथ वर्णित है। इस प्रकार वैदिक आख्यानों के विकास की विपुल सामग्री रामायण, महाभारत और पुराणों के भीतर रोचक विस्तार के साथ उपलब्ध होती है।
आख्यानों का तात्पर्य क्या है, इस प्रश्न के उत्तर के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। अमरीकी विद्वान् डॉ. ब्लूमफील्ड ने उन विद्वानों के मत का खंडन किया है जिन्होंने इन आख्यानों की रहस्यवादी व्याख्या प्रस्तुत की है। उदाहरणार्थ ये रहस्यवादी विद्वान् पुरूरवा के आख्यान के भीतर एक गंभीर रहस्य का दर्शन करते हैं। उनकी दृष्टि में पुरूरवा सूर्य और उर्वशी उषा है। उषा और सूर्य का परस्पर संयोग क्षणिक ही होता है। उनके वियोग का काल बड़ा ही दीर्घ होता है। वियोगी होने पर सूर्य उषा की खोज में दिन भर घूमा करता है, तब कहीं जाकर फिर दूसरे दिन प्रात:काल दोनों का समागम होता है। प्राचीन भारत के वैदिकों (कुमारिल भट्ट, सायण आदि) की व्याख्या का यही रूप था। परंतु आख्यानों को उनके मानवीय मूल्य से वंचित रखना न्याय्य और उपयुक्त नहीं प्रतीत होता।
इन आख्यानों के अनुशीलन के विषय में दो तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक है: (क) ऋग्वेदीय आख्यान ऐसे विचारों को अग्रसर करते हैं और ऐसे व्यापारों का वर्णन करते हैं जो मानव समाज के कल्याणसाधन के नितांत समीप हैं। इनका अध्ययन मानव मूल्य के दृष्टिकोण से ही करना चाहिए। ऋग्वेदीय ऋषि मानव की कल्याणसिद्धि के लिए उपादेय तत्वों का समावेश इन आख्यानों के भीतर करते हैं। (ख) उसी युग के वातारण को ध्यान में रखकर इनका मूल्य और तात्पर्य निर्धारित करना चाहिए जिस युग में इन आख्यानों का आविर्भाव हुआ था। अर्वाचीन तथा नवीन दृष्टिकोण से इनका मूल्यनिर्धारण करना इतिहास के प्रति अन्याय होगा। इन तथ्यों की आधारशिला पर आख्यानों की व्याख्या समुचित और वैज्ञानिक होगी।
आख्यानों की शिक्षा मानव समाज के सामूहिक कल्याण तथा विश्वमंगल की अभिवृद्धि के निमित्त है। भारतीय संस्कृति के अनुसार मानव और देव दोनों परस्पर संबद्ध हैं। मनुष्य यज्ञों में देवों के लिए आहुति देता है, जो प्रसन्न होकर उसकी अभिलाषा पूर्ण करते हैं और अपने प्रसादों की वृष्टि उनके ऊपर निरंतर करते रहते हैं। इंद्र तथा अश्विन विषयक आख्यान इसके विशद दृष्टांत हैं। यजमान के द्वारा दिए गए सोमरस का पान कर इंद्र नितांत प्रसन्न होते हैं और उसकी कामना को सफल बनाते हैं। अवर्षण के दैत्य (वृत्र) को अपने वज्र से छिन्न-भिन्न कर वे सब नदियों को प्रवाहित करते हैं। वृष्टि से मानव आप्यायित होते हैं। संसार में शांति विराजने लगती है। कालिदास ने इस वैदिक तथ्य को बड़ी सुंदरता से अभिव्यक्त किया है (रघुवंश, चतुर्थ सर्ग)।
प्रत्येक आख्यान के अंतस्तल में मानवों के शिक्षणार्थ तथ्य अंतर्निहित हैं। अपाला आत्रेयी[10] का आख्यान नारीचरित्र की उदात्तता तथा तेजस्विता का विशद प्रतिपादक है। राजा त््रयरुण त्रैवृष्ण और वृशजान का आख्यान;[11] ऋग्विधान 12।52; बृहद्देवता 5।14।23 वैदिक कालीन पुरोहित की महत्ता और गरिमा का स्पष्ट संकेत करता है। सोभरि काण्व का आख्यान[12] संगति के महत्व का प्रतिपादन करता है। उषस्ति चाक्रायण[13] का आख्यान अन्न के सामूहिक प्रभाव तथा गौरव की कमनीय कथा है। श्यावाश्व आत्रेय की कथा (ऋ. 5।61) ऋषि के गौरव को, प्रेम की महिमा को तथा कवि की साधना को बड़ी सुंदर रीति से अभिव्यक्त करती है। ऋग्वेदीय युग की यह प्रख्यात प्रणयकहानी है, जिसमें प्रेम की सिद्धि के लिए श्यावाश्व तपस्या के बल पर मंत्रद्रष्टा ऋषि बन जाते हैं। दध्यंग आथर्वण का आख्यान[14] राष्ट्र के मंगल के लिए अपने जीवनदान की शिक्षा देकर हमें क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठने का और राष्ट्र का कल्याण करने का गौरवमय उपदेश देता है। पुराण में इन्हीं का नाम ऋषि दधीचि है, जिन्होंने वृत्र को मारने के लिए इंद्र को अपनी हड्डियाँ वज्र बनाने के लिए देकर आर्य सभ्यता की रक्षा की थी। अनधिकारी को रहस्यविद्या के उपदेश का विषम परिणाम इस वैदिक आख्यान में दिखलाया गया है। इन सब आख्यानों के पीछे उपदेश है-ईश्वर में अटूट श्रद्धा तथा मानव से घनिष्ठ प्रेम।
कतिपय ऋषियों की चारित्रिक त्रुटियों तथा अनैतिक आचरणों का भी वर्णन वैदिक तथा उनका अनुसरण करनेवाले महाभारत और पुराणों में पाए जानेवाले आख्यानों में उपलब्ध होता है। ए कथानक अनैतिकता के गर्त में गिरने से बचाने के लिए ही निर्दिष्ट हैं।
पुराणों में भी ये ही आख्यान बहुश: वर्णित हैं, परंतु इनके रूप में वैषम्य है। तुलनात्मक अध्ययन से प्रतीत होता है कि अनेक आख्यान कालांतर में परिवर्तित मनोवृत्ति अथवा विभिन्न सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति के कारण अपने विशुद्ध वैदिक रूप से नितांत विकृत रूप धारण कर लेते हैं। विकास की प्रक्रिया में अनेक अवांतर घटनाएँ भी उस आख्यान के साथ संश्लिष्ट होकर उसे एक नया रूप प्रदान करती हैं, जो कभी-कभी मूल आख्यान के नितांत विरुद्ध सिद्ध होता है। शुन:शेप तथा वसिष्ठ विश्वामित्र के कथानकों का अनुशीलन इस सिद्धांत के प्रदर्शन में दृष्टांत प्रस्तुत करता है। ऋग्वेद में निर्दिष्ट शुन:शेप का यह आख्यान ऐतरेय ब्राह्मण में नए रूप में, नवीन घटनाओं से संवलित होकर उपलब्ध होता है। अब यहाँ यह आख्यान आरंभ में राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व के साथ तथा कथांत में ऋषि विश्वामित्र के साथ संबद्ध होकर एक नवीन रूप धारण कर लेता है। उसके अन्य दो भाइयों की सत्ता, उसके पिता का दारिद्रय, उसके विक्रय आदि की समस्त घटनाएँ कथानक में रोचकता लाने के पीछे से गढ़ी गई प्रतीत होती हैं। 'शुन:शेप' का अर्थ भी कुत्ते से कोई संबंध नहीं रखता। 'शुन' का अर्थ है सुख, कल्याण तथा 'शेप' का अर्थ है स्तंभ या खंभा। अत: 'शुन:शेप' का अर्थ ही है 'सौख्य का स्तंभ'। इस प्रकार यह कथानक वरुण के पाश से मुक्ति का संदेश देता हुआ कल्याण के मार्ग को प्रशस्त बनाता है।
वसिष्ठ विश्वामित्र का आख्यान ऋग्वेद में स्वत: संकेतित है। ए दोनों ऋषि संभवत: भिन्न-भिन्न समय में राजा सुदास के पुरोहित थे। ये उस युग के ऋषि हैं जो चातुर्वर्ण्य के क्षेत्र से बाहर माना जा सकता है। दोनों में परम सौहार्द्र तथा मैत्री की भावना का साम्राज्य विराजता है। दोनों तपस्या से पूत, तेज के पुंज तथा अलौकिक शक्तिशाली महापुरुष हैं। परंतु अवांतर ग्रंथों-रामायण, पुराण, बृहद्देवता आदि-में दोनों के बीच एक महान् संघर्ष, वैमनस्य तथा विरोध दिखलाया गया है। विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बनने के लिए लालयित और वसिष्ठ के द्वारा अंगीकृत न होने पर उनके पुत्रों के विनाशक के रूप में चित्रित किए गए हैं।[15]
प्रख्यात आख्यान शुन:शेप का आख्यान ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में][16] बहुश: संकेतित होने से सत्य घटना के ऊपर आश्रित प्रतीत होता है। ऐतरेय ब्रह्मण (7।3) में यह आख्यान बहुत विस्तार के साथ वर्णित है, जिसके आदि में राजा हरिश्चंद्र का और अंत में विश्वामित्र का संबंध जोड़कर इसे परिवर्धित किया गया है। वरुण की कृपा ऐक्ष्वाकु नरेश हरिश्चंद्र को पुत्र उत्पन्न होना, समर्पण के समय उसका जंगल में भाग जाना, हरिश्चंद्र को उदररोग की प्राप्ति, रास्ते में अजीगर्त के मध्यम पुत्र शुन:शेप का क्रय करना, देवताओं की कृपा से उसका वध्यपशु होने से बच जाना, विश्वामित्र के द्वारा उसका कृतकपुत्र बनाया जाना, आदि घटनाएँ प्रख्यात हैं।
उर्वशी और पुरूरवा का आख्यान वैदिक युग की एक रोमांचक प्रणयगाथा है। देवी होने पर भी उर्वशी का राजा पुरूरवा के प्रणयपाश में बद्ध होना, पृथ्वीतल पर महारानी के रूप में निवास तथा अंत में राजा को अपने विरह से संतप्त कर अंतर्धान होना आदि घटनाएँ नितांत प्रख्यात हैं। ऋग्वेद के प्रख्यात सूक्त[17] में पुरूरवा और उर्वशी का कथनोपकथन मात्र है; परंतु शतपथ ब्राह्मण[18] में यह कथानक रोचक विस्तार के साथ निबद्ध किया गया है तथा इस प्रणयकथा के अंकन में साहित्यिक सौंदर्य का भी परिचय मिलता है। विष्णुपुराण (4।6), मत्स्यपुराण (अध्याय 24) तथा भागवत (9।14) में इसी कथा का रोचक विवरण हम पाते हैं। कालिदास ने 'विक्रमोर्वशीय' त्रोटक में इस कथानक को नितांत मंजुल नाटकीय रूप प्रदान किया है। इस आख्यान के विकास में एक विशेष तथ्य की सत्ता मिलती है। पुराणों ने मत्स्यपुराण का आधार लेकर इसे प्रणयगाथा के रूप में ही अंकित किया है। परंतु वैदिक आख्यान में पुरूरवा पागल प्रेमी न होकर यज्ञ का प्रचारक नरपति है। वह पहला व्यक्ति है जिसने श्रौत अग्नि (आहवनयी, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि नामक मेधा अग्नि) की स्थापना का रहस्य जानकर यज्ञ संस्था का प्रथम विस्तार किया। पुरूरवा के इस परोपकारी रूप की अभिव्यक्ति वैदिक आख्यान का वैशिष्ट्य है।
च्यवन भार्गव तथा सुकन्या मानवी का आख्यान भारतीय नारीचरित्र का एक नितांत उज्ज्वल दृष्टांत उपस्थित करता है। यह कथा ऋग्वेद के अश्विन से संबद्ध अनेक सूक्तों में संकेतित है[19] में शतपथ (कांड 4) में तथा भागवत[20] में भी विस्तार से दी गई है। च्यवन का वैदिक नाम 'च्यवान' है। सुकन्या की वैदिक कहानी उसकी पौराणिक कहानी की अपेक्षा कहीं अधिक उदात्त और आदर्शमयी है। पुराण में सुकन्या ऋषि की चमकती हुई आँखों को छेदकर स्वयं अपराध करती है और इसके लिए उसे दंड मिलना स्वाभाविक है। परंतु वेद में उसका त्याग उच्च कोटि का है। सैनिक बालकों द्वारा किए गए अपराध के निवारण के लिए सुकन्या वृद्ध च्यवन ऋषि को आत्मसमर्पण करती है। उसके दिव्य प्रेम से प्रभावित होकर अश्विनों ने च्यवन को वार्धक्य से मुक्त कर दिया और उन्हें नूतन यौवन प्रदान किया।[21]
इन्हें भी देखें: उपाख्यान, गाथा एवं कल्पसिद्धि
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ए हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर, एस.एन. दासगुप्त ऐंड एस.के. दे, पृ. 43
- ↑ 1।25, 28
- ↑ कैलाशचंद्र शर्मा
- ↑ 10।7।26
- ↑ 1।179
- ↑ 9।19, 20, 21, 22
- ↑ 16।11।9
- ↑ 1।116, 117, 118,; 10।39
- ↑ 14।6।11
- ↑ ऋग्वेद 8।91
- ↑ ऋ. 5।2; तांड्य ब्राह्मण 13।3।12
- ↑ ऋ. 8।19, 8।81; निरुक्त 4।15; भागवत 9।6
- ↑ छांदोग्य, प्रथम प्रपाठक, खंड 10-11
- ↑ ऋ. 1।116।123; शतपथ 14।4।5।13; बृहदारण्यक 2।5; भागवत पुराण 6।10
- ↑ सं.ग्र.-हरियप्पा: ऋग्वेदिक लीजेंड्स थ्राू दि एजेज़, पूना, 1953; बलदेव उपाध्याय: वैदिक साहित्य और संस्कृति, काशी, 1958; मैक्डोनल्ड: दि वैदिक माइथोलाजी, स्ट्रासबर्ग, 19181
- ↑ 1।24, 25
- ↑ 10।95
- ↑ 1।1।5।1
- ↑ 1।116 तथा 1।117
- ↑ स्कंध 9, अध्याय 3
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 348-50 |