आचारशास्त्र का इतिहास

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आचारशास्त्र का इतिहास यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से, और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन्‌ सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी।

नैतिक मतवादों का विकास दो विभिन्न दिशाओं में हुआ है। एक ओर तो आचारशात्रज्ञों ने 'नैतिक निर्णय' का विश्लेषण करते हुए उचित अनुचित संबंधी मानवीय विचारों के मूलभूत आधार का प्रश्न उठाया है। दूसरी ओर उन्होंने नैतिक आदर्शों तथा उन आदर्शों की सिद्धि के लिए अपनाए गए मार्गों का विवेचन किया है। आचारशास्त्र का पहला पक्ष चिंतनशील है, दूसरा निर्देशनशील। इन दोनों को हमें एक साथ देखना होगा, क्योंकि प्रत्यक्षरूप में दोनों संलग्न और अविभाज्य हैं।

पश्चिमी जगत्‌ में आचारशात्र के सिद्धांत जिस तरह कालक्रमानुसार, एक के बाद एक, सामने आए उस तरह का क्रमबद्ध विकास पौर्वात्य दर्शन के इतिहास में नहीं मिलता। पूर्व में विभिन्न नैतिक दृष्टिकोण और कभी-कभी तो परस्पर विरोधी दृष्टिकोण भी, साथ-साथ विकसित होते रहे। अत: पूर्व और पश्चिम में आचारशास्त्र के इतिहास का अलग-अलग अध्ययन करना सुविधाजनक होगा।

भारत-भारतीय दर्शनप्रणालियों में आचरण संबंधी प्रश्नों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक दर्शन ने मुक्ति या मोक्ष को सामने रखा है और मुक्तिलाभ के लिए सदाचार के नियमों की समीक्षा आवश्यक हो जाती है। इस बात पर वैदिक और अवैदिक परंपराओं में किसी हद तक सामंजस्य है। आचरण संबंधी शास्त्र (स्मृतियाँ और धर्मशास्त्र) आचरण को भारत में दिशा देते हैं।

जैन दर्शन में जीवात्मा को उसकी मौलिक विशुद्धवस्था प्राप्त कराना ही जीवन का लक्ष्य बताया गया है। इस मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट यह है कि कर्मों ने जीवात्मा को जड़ तत्व से कलुषित कर दिया है। जिस तरह बादलों में सूर्यकिरणों का प्रकाश मंद हो जाता है, वैसे ही 'पुद्गल' या जड़ तत्व के परमाणु जीव के चैतन्य को अपवित्र कर देते हैं। इस परिस्थिति से छुटकारा पाने के लिए कर्म के 'आस्रव' को रोकना आवश्यक है। यह तभी संभव है, जब सम्यक्‌ ज्ञान, सम्यक्‌ दर्शन और सम्यक्‌ चरित्र तीनों की उपलब्धि हो। जैन धर्म में आचरण के उन नियमों की विस्तृत चर्चा है जिनके द्वारा ए 'त्रिरत्न' प्राप्त किए जा सकते हैं। इनमें अहिंसा मुख्य है।

चार्वाक दर्शन का दृष्टिकोण पूर्णतया भौतिकवादी है। मनुष्य की सत्ता उसका शरीर है। चैतन्य शरीर का एक विशिष्ट गुण मात्र है। जीवन का लक्ष्य सुखसंपादन है। मृत्यु के बाद व्यक्तित्व का कोई भी पक्ष शेष नहीं रहता, इसलिए परलोक की चिंता व्यर्थ है। सुख के साथ दु:ख मिश्रित है, लेकिन केवल इसलिए सुखों का त्याग करना मूर्खता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही सुख की साधना करनी चाहिए , न कि दूसरों के।

बौद्ध दर्शन के विभिन्न संप्रदायों में ज्ञानमीमांसा तथा आदितत्व के स्वरूप के विषय में तीव्र मतभेद है। वैभाषिक और सौत्रांतिक दर्शन वास्तववादी हैं, योगाचार विज्ञानवादी और माध्यमिक शून्यवादी। लेकिन आचरण के प्रश्न पर सभी बौद्ध विचारकों ने गौतम बुद्ध के आदि उपदेशों को स्वीकार किया है। 'चार आर्य सत्यों' में चौथा, अर्थात्‌ 'दु:ख-निरोध-मार्ग' आचारशास्त्र का आधार है। इसका व्यावहारिक रूप 'मध्यम प्रतिपदा' अथवा मध्यम मार्ग है। एक ओर व्यर्थ आत्मोत्पीड़न, दूसरी ओर क्षणिक सुखों की अराधना, इन दोनों 'अतियों' का परिहार ही सदाचरण है। मध्यम मार्ग का अवलंबन करके कार्य-कारण-श्रृंखला (प्रतीत्य समुत्पाद) का अंत किया जा सकता है। जन्म मूत्यु के अनवरत चक्र से छुटकारा निर्वाण है।

महायान संप्रदाय ने निर्वाण की अधिक सकारात्मक व्याख्या की। व्यक्ति को अपने निर्वाण से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए। बोधिसत्व का आदर्श यह है कि स्वयं संबोधि प्राप्त करने के बाद दूसरों के कल्याण के लिए लगातार यत्न किया जाए। प्रेम, सहानुभूति, अनुकंपा और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री की भावना, इन सद्गुणों पर बौद्ध आचरणशास्त्र में विशेष जोर दिया गया है।

हिंदू दर्शन के सभी संप्रदायों ने, जहाँ तक आचरणशास्त्र का संबंध है, उपनिषदों और भगवद्गीता के मुख्य सिंद्धांतों को स्वीकार किया है। उपनिषदों ने जहाँ एक ओर परम तत्व के गहन प्रश्न को उठाया है और ब्रह्मज्ञान को ही दर्शन का यर्थार्थ लक्ष्य माना है, वहाँ दूसरी ओर आत्मसाधना और 'शील' के व्यावहारिक पक्ष पर भी ध्यान दिया है। भगवद्गीता तत्वज्ञान की अपेक्षा आचारशास्त्र की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र का समन्वय कराने के उद्देश्य से निष्काम कर्म का आदर्श गीता में प्रतिपादित किया गया है। अकर्मण्यता न तो स्वतंत्रता का लक्ष्य है, न आध्यात्मिक ज्ञान का। कर्मसंन्यास से श्रेयस्कर है फलासक्ति त्यागकर कर्तव्य करते रहना। सदाचार के लिए धैर्य, मानसिक संतुलन और आत्मबुद्धि अनिवार्य है। ईश्वरभक्ति और ज्ञान से भी मनुष्य का जीवन परिष्कृत होकर कर्मयोग में सहायता मिलती है।

शंकराचार्य के अनुसार गीता का मूल दर्शन अद्वैतवादी है। मुक्ति का एकमेव साधन ज्ञान है। ज्ञान और कर्म में विरोध है और दोनों का समन्वय असंभव है। फिर भी शंकराचार्य ने यह स्वीकार किया कि आत्मशुद्धि की प्रारंभिक मंजिलों में कर्मों का भी मूल्य है।

रामानुज ने भक्तिमार्ग की महत्ता को ही उपनिषदों और गीता का मुख्य संदेश माना। मध्ययुग के भारतीय आचारशास्त्र पर, अद्वैत वेदांत की तुलना में, भक्तिमार्ग से प्रेरणा लेनेवाली वैष्णव परंपरा का ही अधिक प्रभाव पड़ा। इस्लाम के सूफी मत से इस प्रवृत्ति को बल मिला। व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि मध्ययुगीन आचारशास्त्र, जिसका प्रतिबिंब दार्शनिक ग्रंथों की अपेक्षा संतकाव्य में अधिक स्पष्ट रूप से मिलता है, मानवतावाद है।

आधुनिक काल में गांधीवाद में भारतीय आचारशास्त्र की सभी स्वस्थ परंपराओं का समन्वय मिलता है। उपनिषदों की आत्मसाधना, जैनो की 'अहिंसा', बुद्ध की अनुकंपा और प्रेम, गीता का कर्मयोग, इस्लाम का विश्वबंधुत्व, इन सभी के लिए गांधीवाद में स्थान है। और चूंकि इन आदर्शों को राष्ट्रीय महात्मा गांधी का आचारशास्त्र, देशकालातीत समस्याओं को उठाते हुए भी, भारतीय संस्कृति मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है।

चीन-आचारशास्त्र को दर्शन और धर्मशास्त्र से पृथक्‌ सभी प्राचीन सभ्यताओं के अध्ययन में कठिन है, लेकिन पश्चिमी जगत्‌ की अपेक्षा पूर्वी जगत्‌ के सांस्कृतिक इतिहास में यह कठिनाई और भी तीव्रता से सामने आती है।

चीन के दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक मूल्यों के दो आदि स्रोत हैं : 'ताओवाद और कल्फूचीवाद'। इनमें आपसी विरोध होते हुए भी इन दोनों का समन्वय ही, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, चीनी विचारकों का लक्ष्य रहा है। आगे चलकर एक तीसरी विचारधारा ने चीन में पदार्पण किया, जिसे व्यापक रूप से बौद्ध विचारधारा कहा जा सकता है।

लाओत्से (ल. 570 ई.पू.) - ताओ के अनुसार प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करना ही 'शुभ' है। इसके लिए आवश्यक सद्गुण है सरलता, मृदुलता, सौंदर्यप्रेम और शांतिप्रियता। मानव को अपना जीवन स्वाभाविक और ऋजु बनाना चाहिए। इस ताओमार्ग का प्रवर्तक लाओ-त्सू था।

कल्फूशस (551 से 479 ई.पू.) - कन्फूशस का दृष्टिकोण इससे मूलतया भिन्न है। इसके अनुसार जीवन की पूर्णतम साधना ही मनुष्य का कर्तव्य है। यह कर्तव्य उसे समाज के सदस्य की हैसियत से ही निभाना है। कार्यसिद्धि और पुरुषार्थ ही वास्तविक 'शुभ' है। सदाचार का आधार है संतुलित जीवन और संतुलित जीवन के दो सिद्धांत हैं : 'चुंग' का सिद्धांत अर्थात्‌ अपने व्यक्तित्व की उच्चतम मांगों को संतुष्ट करते रहो और 'शू' का सिद्धांत, अर्थात्‌ विश्व से समस्वरता निर्माण करते हुए जीवन व्यतीत करो। अरस्तु के 'सुनहरे मध्यम मार्ग' की तरह कन्फूशस का अचारशास्त्र भी अतिरेकविरोधी है।

मेंशिसय (371 से 198 ई.पू.) - मेंशियस का आचारशास्त्र कन्फूशस के सिद्धांत पर ही आधारित है, परंतु उसमें समाजकल्याण की अपेक्षा मानववाद पर अधिक जोर दिया गया है।

अनेक चीनी दार्शनिक 'ताओ' के रहस्यवाद और अतिव्यक्तिवाद से भी असंतुष्ट थे और कन्फूशस के परंपराप्रधान, औपचारिक उपदेशों से भी। इसलिए बहुत से ऐसे पंथों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने या तो समझौते का मार्ग अपनाया या जीवन के किसी विशिष्ट पक्ष को लेकर एक नए आचारदर्शन की सृष्टि की। उदाहरणस्वरूप 'मोत्सू' का पंथ उपयोगितावादी था। सदाचरण का मापदंड 'अधिकतम उपयोग' है, परंतु इसका साधन है प्रेम या मैत्री। संघर्ष इसलिए अनैतिक है कि वह अनुपयागी और 'अपव्ययशील' बन जाता है। 'फाशिया' पंथ ने आचारशास्त्र को राजनीति के समीप पहुँचा दिया और कहा कि राजसत्ता तथा विधान से ही सदाचार की रक्षा की जा सकती है।

'ताओ' और कन्फूशसवाद का समन्वय कराने का उत्कट प्रयास 'यिन--याँग' सिंद्धांत में देखा जा सकता है। विश्व में दो शक्तियाँ लगातार काम करती रहती हैं-'याँग', जो क्रियाशील, सकारात्मक, 'पुरुषोचित' है, और 'यिन', जो निष्क्रिय, नकारात्मक, 'स्त्रियोचित' है। प्रत्येक वस्तु, संस्था और संबंध में ए दोनों ही प्रवृत्तियाँ प्रतिबिंबित हैं। इनका उचित मात्रा में वास्तव्य ही 'शुभ' परिस्थिति है। और ऐसी परिस्थिति के निर्माण में हाथ बटाना मानव का कर्तव्य है।

मध्ययुगीन चीनी आचारशास्त्र पर बौद्ध विचारों की स्पष्ट छाप है। थेरवाद की अपेक्षा महायान का, और विशेषत: माध्यमिक दर्शन का, चीन में अधिक तेज़ीसे विकास हुआ। परंतु नागार्जुन के 'शून्यवाद' को परंपरागत 'व्यावहारिकता' के सांचे में ढालकर चीनी विचारकों ने बौद्ध जीवनदर्शन को एक नई दिशा प्रदान की। इस नए दर्शन का नारा है : 'समग्र में एक और एक में समग्र'।

मिंग युग (15वीं से 16वीं सदी) 12वीं और 13वीं शताब्दी के आचारदर्शन में संदेहवाद और अतिभौतिकवाद के स्पष्ट चिन्ह हैं, लेकिन 'मिंग' युगीन सांस्कृतिक पुनरुत्थान के बाद चीनी विचारधारा फिर बुद्धिवाद की ओर झुकी। तब से आधुनिक युग तक चीन का आचारदर्शन मुख्य रूप से बुद्धिवादी ही रहा है।

ईरान ज़रथुस्त्रवाद में आचारसिद्धांतों को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। स्वयं ज़रथुस्त्र के विषय में निश्चित रूप से कुछ कम कहा जा सकता है। 'गाथाओं' में उसका व्यक्तित्व ऐतिहासिक लगता है, परंतु 'अवेस्ता' में वह काल्पनिक पौराणिक बन जाता है। ज़रथुस्त्रधर्म मुख्यत: द्वैतवादी है। 'अवेस्ता' में 'अहुर' को एकमेव परमसत्ता के रूप में स्वीकार किया गया है और कहा गया है कि 'अहुर' की अभिव्यक्ति दो दिशाओं में होती है। एक ओर आलाक है, दूसरी ओर अंधकार; एक ओर जड़ भौतिक वस्तु, दूसरी ओर अध्यात्म। लेकिन 'अहुर' का एकत्व केवल औपचारिक है।

मानी (जन्म 215 ई.पू.) - आगे चलकर मानी ने खुले आम जुरथुस्त्रवाद को पूर्णतया द्वैतवादी बना दिया। उसके अनुसार भौतिक वस्तु एक स्वतंत्र शक्ति है जिसका अध्यात्मशक्ति के साथ लगातार संघर्ष चलता रहता है। मानव व्यक्तित्व के दो विभाग हैं : एक आत्मा जो आलोकमय है और दूसरा जो अंधकारमय है। संकल्पशक्ति इन दोनों के बीच में है और किसी भी ओर झुक सकती है। प्रत्यक्ष आचरण में मानव स्वतंत्र है। यदि वह चाहे तो रचनात्मक आलोकशक्ति की ओर अपने आपको ले जा सकता है। पार्थिव सुखों को त्यागकर विनाशात्मक अंधकारशक्ति से मुक्तिलाभ संभव है। भविष्य में आलोक की संपूर्ण विजय निश्चित है। उस विजक्षण को समीप लाना अंशत: मानव आचरण पर निर्भर है।

यूनान - मानवीय आचरण का वैज्ञानिक ढंग से परीक्षण सबसे पहले सोफ़िस्त दार्शनिक ने किया। ई.पू. 7वीं शताब्दी से ही यूनान में दर्शन की स्वस्थ परंपराएँ बन चुकी थीं, परंतु प्रोतागोरस के पहले विचारकों ने मुख्यत: बाह्य जगत्‌ पर ही ध्यान दिया था। थेलीज़ से अनक्सागोरस तक सभी दार्शनिक विश्व के आदितत्व की खोज करते रहे। सोफ़िस्तपंथियों ने दर्शन के लक्ष्य का पुनर्मूलयाँकन किया तथा मानव जीवन की प्रत्यक्ष समस्याओं को दार्शनिक दृष्टि से आंकने का यत्न किया।

प्रोतागोरस (जन्म 480 ई.पू.)-'मनुष्य ही प्रत्येक वस्तु की कसौटी है'-प्रोतागोरस की इस उक्ति में सोफ़िस्त आचारशास्त्र के अच्छे और बुरे दोनों अंग प्रतिबिंबित हैं। जहाँ एक ओर इस कथन से आचारशास्त्र ठोस समस्याओं की ओर झुकता है वहाँ दूसरी ओर वह व्यक्तिगत और सापेक्ष भी बन जाता है।

गोर्जियस (जन्म 483 ई.पू.)-गोर्जियस के संपर्क से प्रोतागोरस का मानववाद निरे संदेहवाद में परिणत हो गया और इस संदेहवाद से, दार्शनिक स्तर पर, अतिस्वार्थवाद और सुखवाद को बल मिला।

सुकरात (469 से 399 ई.पू.) - इन विकृतियों के विरुद्ध सुकरात ने सर्वप्रथम एक ऐसे आचारशास्त्र का निर्माण किया जो आदर्शवादी होते हुए भी यथार्थ परिस्थितियों पर आधारित था। सुकरात का दृष्टिकोण बुद्धिवादी है। 'ज्ञान ही सदाचार है'। जिसे उचित कर्मों का वास्तविक ज्ञान है, उसका आचरण ठीक होना ही पड़ेगा; और अज्ञान की परिणति दुराचार में होना भी उतना ही अनिवार्य है। सोफ़िस्तपंथी 'न्याय', 'नियम', 'संयम' आदि शब्दों का प्रयोग अवश्य करते थे, पर इनकी सूक्ष्म व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की। सुकरात ने इस बात पर जोर दिया दिया कि व्यक्तिनिरपेक्ष नैतिक आदर्शों का आधार ज्ञानमीमांसा ही है। जो अंतर 'ज्ञान' और 'जानकारी' में है, वही नियमबद्ध आचारशास्त्र और प्रथाजन्य नैतिक धारणाओं में है। सभी का लक्ष्य समान है---'भलाई'। परंतु ज्ञान द्वारा ही 'भलाई' और परमशुभ में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। और इस सामंजस्य का सामाजिक रूप केवल ऐसे राज्य में मिल सकता है जहाँ शासकगण अच्छे जीवन की एक कला समझकर उसे आत्मसात्‌ करने का यत्न करते रहे।

अफ़लातून (427 से 347 ई.पू.) - सुकरात के उदात्त आदर्शवाद के प्रति सच्ची निष्ठा बरतते हुए अफ़लातून प्लेटो ने उनके उपदेशों को परिष्कृत रूप में रखा और उन्हें दार्शनिक मतवाद का सहारा दिया। अफ़लातून के आचारशास्त्र का एक पहलू विशुद्ध तात्विक है। भौतिक जगत्‌ की वस्तुओं की तथाकथित 'सत्ता' छाया मात्र है। वास्तविक सत्ता केवल भावों या प्रयत्नों की है, क्योंकि प्रत्यय ही नित्य और स्वसंपूर्ण हैं। इनमें सबसे शुद्ध और उच्च श्रेणी का प्रयत्न है 'शुभ'। इस तरह सदाचार का आधार आदिसत्ता का शुभत्व है।

लेकिन अफ़लातून के आचारदर्शन का एक दूसरा, यथार्थवादी पक्ष भी है। इसमें मानव स्वभाव का सूक्ष्म विश्लेषण मिलता है। मानव स्वभाव के-अफ़लातून के शब्दों में मानव 'आत्मा' के-तीन विभाग हैं। इन्हें इच्छा, संवेग और बुद्धि से संचालन मिलता है। पहले दो विभागों पर तीसरे का प्रभुत्व ही सदाचार का आधार है। व्यक्ति में न केवल मानवीय प्रवृत्ति, अर्थात्‌ विवेकशीलता है, वरन उस में 'पशवीय' और 'वनस्पतीय' प्रवृत्तियाँ भी हैं जो उसे जैविक और दैहिक स्तर से ऊपर उठने से रोकती है। बुद्धि का उद्देश्य इन प्रवृत्तियों का विनाश नहीं, उनका शासन और नियंत्रण है।

इस उद्देश्य की सही व्याख्या केवल सामाजिक स्तर पर ही हो सकती है, न कि व्यक्तिगत स्तर पर। समाज में मानव स्वभाव के तीन अंगों के अनुरूप तीन वर्ग हैं-श्रमिक, योद्धा और शासक। यह वर्गविभाजन प्राकृतिक है और वर्गहीन समाज की कल्पना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि न्याय का आधार अंतत: प्राकृतिक नियम ही है। आदर्श व्यवस्था वह है जिसमें प्रत्येक वर्ग के लोग अपने-अपने सद्गुणों की साधना करते रहें। शासक विवेकशील हों, योद्धा वीर और श्रमिक मेहनती तथा विनम्र। ए सद्गुण परस्पर पूरक हैं और इनका उचित मात्रा में प्रयोग ही 'नैतिक परिस्थिति' है। ऐसी परिस्थिति अंततोगत्वा तीसरे वर्ग के लोगों पर ही निर्भर है, क्योंकि ऐच्छिक और संवेगात्मक प्रवृत्तियों को बुद्धि ही काबू में रख सकती है। शासक वर्ग का दृष्टिकोण पूर्णतया दार्शनिक, बुद्धिवादी होना चाहिए और इसके लिए उचित शिक्षाप्रणाली नितांत आवश्यक है।

अरस्तू (384-322 ई.पू.) - सुकरातवादी परंपरा की परिणति अरस्तू के आचारशास्त्र में मिलती है। अरस्तू ने विश्लेषण और प्रयोग करते हुए आचरण के विभिन्न पहलुओं की वैज्ञानिक ढंग से समीक्षा की। आचारदर्शन का स्वतंत्र 'शास्त्र' के रूप में विकास अरस्तू के 'नाइकोमेकियाई एथिक्स' से ही आरंभ होता है।

अरस्तू के अनुसार 'शुभ' की अभिव्यक्ति दो दिशाओं में होती है। पहली दिशा वह है, जिसमें अभ्यास और प्रयत्न द्वारा मानव अपनी निम्नतर प्रवृत्तियों को उच्चरित शक्ति के--अर्थात्‌ बुद्धि के-नियंत्रण में लाता है। इस प्रयास के फलस्वरूप जिन सद्गुणों की सृष्टि होती है वे हैं 'नैतिक सद्गुण'। लेकिन शुभत्व का एक दूसरा माध्यम भी है-अर्थात्‌ बुद्धि द्वारा विशुद्ध सत्ता या चरम सत्य की खोज। इस ज्ञान और मनन से 'बौद्धिक सद्गुणों' की सृष्टि होती है। आदर्श जीवन तो ऐसे ही मनन का जीवन है। ('थिओरिया')।

परंतु आचारशास्त्र का प्रत्यक्ष संबंध बौद्धिक सद्गुणों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों से अधिक घनिष्ठ है। नैतिक गुणों का आधार है मध्यम मार्ग का सिद्धांत। एक ओर अतिरेक और दूसरी ओर अभाव, इन दोनों त्रुटियों से बचकर ही सदाचार संभव है। उदाहरणस्वरूप, 'साहस' एक नैतिक सद्गुण है। इसका अतिरेक है 'असावधानी' और इसकी न्यूनता है 'कायरता'। इसी तरह प्रत्येक नैतिक सद्गुण की सीमाएँ स्थिर की जा सकती हैं।

एरिस्पितपस (जन्म 435 ई.पू.) - अरस्तू के बाद ग्रीक आचारशास्त्र की धारा दो विरोधी दिशाओं में विभक्त हो गई। एक ओर एपिक्यूरस ने सुखवाद को और दूसरी ओर जीनों ने संन्यासवाद को आदर्श के रूप में सामने रखा। वास्तव में इन दोनों के बीज सुकरात युग में ही पड़ चुके थे। एपिक्यूरस के सुखवाद का मूल स्रोत है 'साइरेनेइक' आचारदर्शन और ज़ीनो का 'स्तोइक' प्रणाली का आधार है 'सिनिक' पंथ का सुखवादविरोधी दर्शन। साइरेनेइक्‌ पंथ का प्रवर्तक एरिस्तिपस था और सिनिक पंथ की स्थापना सुकरात के शिष्य अंतिस्थिनीज़ (426 ई.पू.) ने की थी।

एपिक्यूरस (341 से 270 ई.पू.) - एपिक्यूरीय आचारशास्त्र ज्ञान और विवेक को साधन मात्र समझकर संतोष या समाधान को जीवन का लक्ष्य मानता है। सुख के प्रति खिंचाव और दु:ख का इवर्जन स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। 'साइरेनेइक्‌' दृष्टिकोण मूलत: उचित था, परंतु उसमें सुख की व्याख्या संकीर्ण है। केवल क्षणिक सुख को सर्वस्व समझना मूर्खता है। हमारा ध्एय जीवन को समग्र रूप से सुखमय बनाना है। इस क्रिया में विशिष्ट सुखों को कभी-कभी त्यागना पड़ता है। सुखों की तीव्रता केवल एक पक्ष है, उनके स्थायित्व पर भी ध्यान देना है। मानसिक शांति शरीरिक इच्छापूर्ति से अधिक सुखमय है, क्योंकि वह हमें अधिक समय तक संतुष्ट रख सकती है। सर्वोच्च सद्गुण 'सावधानी' है, क्योंकि वह एक सीमा तक हमें दु:ख दर्द से बचाता है।

ज़ीनो (340 से 265 ई.पू.) - स्तोइकवाद का सिंद्धांत इसके बिलकुल विपरीत है। ज़ीनो के अनुसार विवेक ही सर्वस्व है। सुखप्राप्ति का अपनी जगह पर कोई महत्व नहीं है, यद्यपि विवेकशील जीवनक्रम में यदि सुख भी मिले तो उसे जबर्दस्ती ठुकराना जरूरी नहीं है, जैसा कि'सिनिकपंथी' करते थे। संवेदजन्य सुखों को गौण और तुच्छ समझना काफी है। 'प्रकृति के अनुसार जीवन' का मतलब है विवेकशील जीवन, क्योंकि मानव के लिए चेतन, क्रियाशील विवेकशक्ति ही 'प्राकृतिक' है। सदाचार का आधार है आत्मनियंत्रण, कर्तव्यपरायणता और स्वार्थत्याग। नैतिक विकास के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है असंयम। 'स्ताइक' विचारधारा में संन्यासवृत्ति काफी प्रबल होते हुए भी ज़ीनो और उसके अनुयायियों ने 'सिनिक' पंथ के विकृत व्यक्तिवाद से बचने का भी यथेष्ट प्रयत्न किया। मध्ययुगीन जीवनमूल्यों पर स्तोइक आचारदर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा। सेनेका और सम्राट् मार्क्स ओरिलियस (120 से 180 ई.) ने इस दर्शन का समर्थन किया।

प्लोतिनस (205 से 270 ई.) - मध्ययुगीन आचारशास्त्र मुख्यत: धार्मिक या अध्यात्मवादी है। रोमन साम्राज्य के पतन से पहले ही ईसाई धर्मतत्व के संदर्भ में ग्रीक दर्शन का पुनर्मूल्याँकन किया जाने लगा था। इस तरह का पहला महत्वपूर्ण प्रयास नवअफ़लातूनवाद में देखा जा सकता है। सुकरात--अफ़लातून--अरस्तू की विचारपरंपरा में जो रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ निहित थीं उन्हें प्लोतिनस के दर्शन में उभारा गया है। मानव जीवन का सर्वोंच्च उद्देश्य है 'एक' अथवा 'परमसत्‌' का अपरोक्ष ज्ञान। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें अपने आपको 'योग्य' बनाना है और इसके लिए सदाचार आवश्यक है। इस तरह प्लोतिनस के लिए आचारदर्शन का महत्व सीमित और सोपक्ष है। नवअफ़लातूनवाद के अन्य प्रमुख प्रतिनिधि हैं फाइलो और पोरफिरी।

आगास्तिन (354 से 430 ई.) - संत आगस्तिन का 'पैत्रिस्तिक' दर्शन भी ईश्वरानुभूति को चरम लक्ष्य मानता है। ईश्वरप्रेम ही वास्तविक नैतिकता का आधार हो सकता है। आगस्तिन ने यह कहकर कि ईश्वरकेंद्रित जीवन में ही 'अधिकतम इच्छापूर्ति' संभव है, अप्रत्यक्ष रूप से सुखवाद के सिद्धांत को एक सीमा तक स्वीकार किया।

थोमस एक्वाइनस (1225 से 1274) - मध्ययुगीन आचारदर्शन का सबसे विकसित रूप संत थोमस एक्वाइनस की दर्शनप्रणाली में है। एक्वाइनस ने ईसाई धर्मतत्व को अफ़लातूनवाद से अरस्तूवाद की ओर ले जाने का यत्न किया। सत्य और शुभ का अनुसंधान दो भागों से सभव है-विश्वास और विवेक। ये दोनों स्वतंत्र हैं, परंतु इनमें कोई मूलभूत विरोध नहीं है। विवेशक्ति की उच्चतम सफलता है अरस्तूदर्शन। 'विश्वास' की सबसे उदात्त सिद्धि है ईसामसीह का 'यथार्थसंगत अध्यात्मवाद'। लेकिन इनसे निम्नतर स्तर पर जो 'विवेक' और 'विश्वास' की सफलताएँ हैं उनसे भी नैतिक जीवन में प्रेरणा मिल सकती है। ईश्वरज्ञान ही परम शुभ है।

एक्वाइनस के बाद 'स्कोलैस्टिक' विचारधारा धीरे-धीरे गतिहीन और संकीर्ण बन गई। आचारशास्त्र का स्वतंत्र अस्तित्व करीब-करीब समाप्त हो गया और नैतिक प्रश्नों का विवेचन ईसाई धर्मशास्त्र की कुछ वादग्रस्त समस्याओं में शाब्दिक ऊहापोह तक ही सीमित रह गया।

आधुनिक युग-आचारशास्त्र का आधुनिक युग 15वीं 16वीं शताब्दियों के धर्मनिरपेक्ष दर्शन से आरंभ होता है। इस दर्शन का एक पक्ष वैज्ञानिक और प्रकृतिवादी है जिसका स्वस्थ रूप बेकन और विकृत रूप हाब्ज़ में झलकता है। आचारशास्त्र की दृष्टि से हाब्ज़ बेकन से अधिक महत्वपूर्ण है।

हाब्ज़ (1588 से 1679) - हाब्ज़ का दृष्टिकोण भौतिकवादी है। वस्तुओं और गति का ही अस्तित्व वह मानता है और मानव आचरण को 'वस्तु' और 'गति' के ही दायरे में देखता है। चूंकि वस्तुजगत्‌ से मानव का संबंध संवेदन द्वारा ही संभव है, इसलिए संवेदन ही मानव जीवन का 'मुख्य संचालक' है। सुख की इच्छा और दु:ख के प्रति विमुखता ही मानवीय व्यवहार का आधार है। व्यक्ति का कर्तव्य केवल एक है-अपने लिए सुख अर्जन करना। स्वार्थपरता स्वाभाविक है, स्वार्थत्याग कृत्रिम। सामाजिक संगठन का आधार 'प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक अन्य व्यक्ति से भय' है। सुखों को वर्तमान की तरह भविष्य में भी प्राप्त करने के लिए 'अधिकार' और 'शक्ति' आवश्यक हैं। इसलिए अधिकारप्रेम भी प्राकृतिक है और आचरण का निर्देशन करता है। व्यवहार का आंतरिक मानदंड स्वार्थ है, बाह्य मानदंड राजकीय अथवा सामाजिक अधिकार है।

क्लार्क (1675 से 1729) - हाब्ज़ के स्वार्थपरक सुखवाद के विरुद्ध तीब्र प्रतिक्रिया होनी अनिवार्य थी। यह प्रतिक्रिया 'सहजज्ञानवादी आचरणशास्त्र' में व्यक्त हुई।

कडवर्थ (1617 से 1688) - इस प्रवृत्ति के प्रमुख प्रतिनिधि हैं क्लार्क, कडवर्थ, शैफ़्ट्सबरी, हचीसन और बटलर। इनमें आपसी मतभेद होते हुए भी व्यापक रूप से इस बात पर सहमति है कि नैतिक नियम 'स्वत:सिद्ध सत्य' है।

शैफ़्ट्सबरी (1671 से 1713) - शैफ़्ट्सबरी ने आचारशास्त्र में पहली बार 'नैतिक विवेकशक्ति' (मारल सेंस) का सिद्धांत सामने रखा। बटलर का कहना है कि नैतिक नियमों का सहज ज्ञान इसलिए संभव है कि प्रकृति ने-या 'ईश्वर' ने-इस प्रकार के ज्ञान के लिए हमें एक विशेष साधन प्रदान किया है।

बटलर (1692 से 1752) - इस साधन को बटलर 'सदसद्विवेकक्षमता' (कांशेंस) कहता है। यह क्षमता ही मनुष्य की वास्तविक आत्मा है, उसके व्यक्तित्व का केंद्रबिंदु है।

ह्यूम (1711 से 1776) - ह्यूम का आचरणशास्त्र फिर एक बार संवेदनवाद की ओर झुकता है। ह्यूम का विश्वास है कि आचरण का यथार्थ विश्लेषण मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही संभव है। मनोविज्ञान का इस विषय में एक ही निष्कर्ष हो सकता है; वह यह कि सुख दु:ख ही आचरण के निर्णायक हैं। हमारे नैतिक निर्णय कुछ ऐसे प्राकृतिक सत्यों पर आधारित हैं जिनका, अपने मूल स्वरूप में, कोई नैतिक महत्व नहीं है।

कांट (1724 से 1804) - काँट का प्रसिद्ध ग्रंथ 'व्यावहारिक विवेक की आलोचना' आधुनिक विवेकवादी आचारशास्त्र के आधारस्तंभों में है। कांट ने पूर्ववर्ती विचारकों के एकांगी सिद्धांतों को संतुलित रूप देकर उन्हें एक समन्वयात्मक आचरणदर्शन में सूत्रबद्ध करने का प्रयत्न किया। 'कर्तव्य' और 'स्वार्थ' ए दोनों बिलकुल अलग-अलग प्रेरणाएँ हैं। इनमें से कर्तव्य को ही प्रधान मानकर जीवन संगठित किया जाए तो अधिकतम कल्याणसंपादन किया जा सकता है। कर्तव्य की व्याख्या 'शुभ संकल्प' द्वारा ही संभव है। शुभ संकल्प ही एकमात्र ऐसा शुभ है जिसका मूल्य निरपेक्ष है। अन्य सभी 'अच्छाइयाँ', जैसे सुख, योग्यता, सुविधा आदि सापेक्ष हैं। उनका महत्व यहीं तक सीमित है कि शुभ संकल्प को क्रियमाण बनाने में उनसे सहायता मिल सकती है।

काँट ने इस बात पर जोर दिया कि नैतिक नियम विश्वव्यापी और पूर्णतया अनिवार्य हैं। प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक व्यक्ति के प्रति वह लागू होता है। इस नियम का आदेश है कि हम मानवता को अपने में और अन्य लोगों में सर्वदा साध्य के रूप में स्वीकार करें, न कि साधन के रूप में। नैतिक कर्तव्य को किसी भी बाह्य दबाव की उत्पत्ति समझना गलत है, चाहे वह बाह्य शक्ति 'ईश्वर' हो या 'सुखवर्धक' परिस्थिति। विवेशील व्यक्ति जिस नियम के अधीन है उसका निर्माण स्वयं विवेक ही करता है।

फ़िश्टे (1762 से 1814) - फ़िश्टे का आचरणशास्त्र अतिबुद्धिवादी है। वह व्यक्ति को स्वतंत्र मानता है, पर उसके अनुसार आचरण की स्वाधीनता ज्ञान पर निर्भर है। कांट की भूल यह थी कि उसने विवेक के सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंगों के बीच विरोध खड़ा किया।

हीगेल (1770 से 1831) - शेलिंग के दर्शन में आचारशास्त्र विशुद्ध तत्वज्ञान का अंग बन जाता है। हीगेल दर्शन की भित्ति भी 'परमसत्‌' (ऐब्सोल्यूट) की कल्पना है, लेकिन हीगेल के 'परमवाद' का उसकी 'द्वंद्वात्मक पद्धति' (डाइलेक्टिक्स) से अविश्लेष्य संबंध है। भावजगत्‌ में विरोधी शक्तियों के संघर्ष से, और उच्चतर स्तर पर उनके समन्वय से, विकास होता है। नैतिक धारणाओं के प्रति भी यही नियम लागू होता है। आचारशास्त्र का लक्ष्य उन मंजिलों का अध्ययन है जिनके बीच, संघर्ष और समन्वय से गुजरते हुए, नैतिक मूल्यों का विकास हुआ है।

डार्विन (1801-1882) - विकासवादी दृष्टिकोण के वैज्ञानिक पक्ष का डार्विनवाद के माध्यम से आचारशास्त्र पर गहरा प्रभाव पड़ा।

स्पेंसर (1820-1903) - डार्विन के 'प्राकृतिक चुनाव के नियम' से प्रेरणा लेकर हर्बर्ट स्पेंसर एक नया विकासात्मक सुखवाद प्रस्तुत किया। जीवन का आधार है व्यक्ति का परिवेश से सफल अनुकलन (औप्टेशन)। यह नियम मानव के लिए उतना ही वास्तविक है जितना अन्य प्राणियों के लिए, यद्यपि मानव जीवन में सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं का निर्माण हुआ है। 'सफल अनुकलन' का लक्षण है एक ऐसे प्रगतिशील समाज का संगठन जिसमें व्यक्तिगत सुखों का लाभ समग्र जाति के कल्याणसंपादन से संलग्न हो।

बेंथम (1778-1842), मिल (1806-1873)-स्पेंसर के सुखवाद पर बेंथम और मिल ने 'उपयोगितावाद' का स्पष्ट प्रभाव है। मिल का दर्शन उस सशक्त 'अनुभववादी' परंपरा पर आधारित है जिसकी बुनियाद बेकन--हाब्ज़--ह्यूम ने रखी थी। बेंथम का प्रसिद्ध सूत्र (फारमूला 'अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक सुख)' मिल के संपर्क से उच्चतर उपयोगितावाद का एक साधन बन गया। मिल ने इस बात पर जोर दिया था कि जीवन के सांस्कृतिक और बौद्धिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए ही 'सुख' की व्याख्या करनी चाहिए।

'उपयोगिता' को प्राधान्य देनेवाली अन्य विचारधाराओं में कांत का मानववाद और लिलियम जेम्स का प्रत्यक्ष परिणामवाद आचारशास्त्र के इतिहास की दृष्टि महत्वपूर्ण हैं।

कांत (1798-1857) - कांत ने मानव इतिहास को तीन युगों में विभाजित किया-धार्मिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक। इनमें से अंतिम, अर्थात्‌ वैज्ञानिक युग ही वास्तव में 'सकारात्मक' है। इसी युग में मानव केंद्रित आचरणशास्त्र का निर्माण हो सकता है। भविष्य का धर्म 'मानवता धर्म' होगा जिसमें नैतिक, धार्मिक और अन्य पक्षों का निर्देशन समाजविज्ञान-द्वारा होगा। मानवता एकमात्र आराध्य वस्तु होगी और जातिकल्याण ही व्यवहार का मानदंड होगा। ऐसी परिस्थिति में आचारशास्त्र का समाजशास्त्र में विलीन होना अनिवार्य है।

जेम्स (1842-1910) - विलियम जेम्स ने यूरोप की भाववादी दार्शनिक परंपरा का विरोध किया। विशुद्ध तात्विक स्तर पर सत्य की खोज व्यर्थ है। सत्य 'बना बनाया' नहीं है, मानव के जीवन में, उसके आचरण और विभिन्न प्रयासों में, सत्य का निर्माण होता है। सत्य की कसौटी उसका प्रत्यक्ष परिणाम है।

ड्यूई (1859-1950) - इस दृष्टिकोण को, जो प्रैगमैटिज्म के नाम से प्रसिद्ध है, जान ड्यूई ने आगे बढ़ाया ड्यूई के अनुसार 'प्रत्यक्ष परिणाम' की व्याख्या राजनीतिक और सामाजिक प्रगति के संदर्भ में की जानी चाहिए। ड्यूई ने अपने आचारशास्त्र में प्रजातंत्रवाद, समानता और सामाजिक स्वास्थ्य के आदर्शों को महत्वपूर्ण माना है।

शोपेनहावर (1788-1860) - उधर जर्मनी में हीगेल के बाद शोपेनहावर, नीत्शे और मार्क्स ने तीन अलग-अलग मार्ग अपनाए। शोपेनहावर का दृष्टिकोण निराशावादी है। समस्त इतिहास को वह 'जीवनसंकल्प' की अभिव्यक्ति मानता है। यह अभिव्यक्ति जिस संघर्ष के बीच होती है वह दु:ख और क्लेश से परिपूर्ण है। प्राणियों के 'सुख काल्पनिक और क्षणिक हैं, उनसे लालायित होकर 'सकल्प' और भी तेज़ीजीवनधारा को आगे बढ़ाता है और इस तरह और अधिक क्लेश उत्पन्न होते हैं। वैसे तो जीव मात्र का अस्तित्व दु:खमय है, परंतु मानव जीवन में यह क्लेश चरम सीमा तक पहुँच जाता है। शारीरिक कष्ट के अलावा अब मानसिक वेदना का भी प्रादुर्भाव होता है। आचरणशास्त्र का कटुकर्तव्य है मनुष्य को यह समझाना कि जीवनसंकल्प के विनाश से ही उसके दु:ख का अंत हो सकता है। इसके लिए जीवन के सभी तथाकथित सुखमय अनुभवों को ठुकराना होगा, और सबसे पहले उस 'सुख' को जिसके कारण मानव जाति कायम है। मनुष्य का आदिपाप यह है कि वह जन्म ग्रहण करता है।

हार्टमान (1842-1906) - निकलोई हार्टमान का निराशावाद शोपेनहावर से भी एकदम आगे है। जहाँ शोपेनहावर व्यक्ति का यह कर्तव्य बताता है कि वह अपने जीवनसंकल्प का विनाश करे, वहाँ हार्टमान की यह माँग है कि संपूर्ण विश्व में जीवनी शक्ति को खत्म करने हमें योग देना चाहिए।

नीत्शे (1888-1900) - नीत्शे का आचारशास्त्र भी परंपरागत नैतिक मान्यताओं को ठुकराता है। नीत्शे का सिद्धांत है 'मूल्यों का निर्मूल्यीकरण'। उसकी शिकायत है कि ईसाई धर्म से प्रेरित होकर जो नैतिक सिद्धांत सामने आए हैं वे दुर्बलों के लिए हैं, बलवानों के लिए नहीं। ऐसा आचारशास्त्र 'करुणा का आचारशास्त्र' है। वास्तव में केवल एक मूल्य ऐसा है जिसपर मानव गर्व कर सकता है-शक्ति। जिससे भी शक्ति का प्रसार होता है वह उचित है और जिस कर्म से शक्ति की महत्ता घटती है वह त्याज्य है। श्रेष्ठ पुरुष की श्रेष्ठताभावना एकमेव अच्छाई है। अनुकलन (ऐप्टेशन) का आदर्श श्रेष्ठ मानव का आदर्श नहीं हो सकता, क्योंकि अनुकलन का अर्थ है परिवेश के सामने हथियार डाल देना। मानवता का लक्ष्य है अतिमानव का निर्माण-यह सत्य केवल कुछ इने गिने लोग ही समझ सकते हैं और उन्हीं के हाथ में मानव जाति का भविष्य है। अति मानव के लिए किसी नैतिक नियम की कल्पना नहीं की जा सकती। वह अच्छे बुरे के मतभेद से परे है।

मार्क्स (1818-1883) - मार्क्स ने हीगेल के द्वंद्ववाद को भौतिक रूप दिया और कहा कि मानव जीवन में आर्थिक और राजनीतिक शक्तियों के स्वगत विरोध से ही आचरण को दिशा मिलती है। उत्पादन के साधान जिस वर्ग के हाथ में होते हैं वही वर्ग राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त कर लेता है। यही नहीं, अनिवार्य रूप से धार्मिक संस्थाओं, शिक्षाप्रणाली और सांस्कृतिक साधनों पर भी शासक वर्ग क़ब्ज़ा कर लेता है। अपने हितों की रक्षा के लिए इस वर्ग के लोग कुछ नैतिक मान्यताओं की रचना करते हैं और उन्हें अटल, विश्वव्यापी तथा नित्य बताते हैं। वास्तव में मानव स्वभाव परिवर्तनशील है और नैतिक नियम भी अटल नहीं हो सकते। जो समान वर्गों में विभाजित है उसमें शासक वर्ग और शोषित वर्ग के 'कर्तव्य' समान नहीं हैं। प्रागैतिहासिक 'कबीले के समाज' के पतन से लेकर अब तक नैतिक मूल्यों में लगातार वर्गसंघर्ष प्रतिबिंबित हुआ है। जब दुनिया भर में साम्यवादी समाज की स्थापना होगी और वर्गविभाजन का अंत होगा तभी ऐसे आचारशास्त्र का निर्माण हो सकेगा जिसमें नैतिक सिद्धांत समस्त मानव जाति के वास्तविक कल्याण पर आधारित होंगे।[1]

20वीं शताब्दी में दर्शन के कुछ अन्य अंगों की तुलना में आचारशास्त्र की उपेक्षा हुई है। आचारशास्त्र की कोई नई प्रणाली इधर प्रस्तुत नहीं की गई। इसका मतलब यह नहीं कि नैतिक प्रश्नों प्रश्नों को दार्शनिकों ने गौण समझा है। क्रोचे, बेर्गसां, रसेल और अन्य आधुनिक दार्शनिकों ने नैतिक निर्णय के स्वरूप को अपने दृष्टिकोण से समझने का यत्न किया है। परंतु 'शुभाशुभविवेक' को एक स्वतंत्र विज्ञान का विषय माननेवाले विचारक आज अधिक नहीं हैं। इसका कारण यह है कि आचारशास्त्र पर विभिन्न दिशाओं से दबाव पड़ रहा है---समाजशास्त्र की ओर से और मनोविज्ञान की ओर से। एक ओर तो सामाजिक जीवन की बढ़ती हुई जटिलता हमें इस बात के लिए बाध्य करती है कि आचरण के नैतिक पक्ष को राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं के संदर्भ में ही देखें। दूसरी ओर फ्रायडवाद ने मानव मन की जिन अचेतर क्रियाओं की ओर ध्यान दिलाया है उनकी समीक्षा भी आवश्यक हो गई है। आचरण का 'विशुद्ध नैतिक मूल्याँकन' कठिन हो चला है, क्योंकि नैतिक धारणाओं के पीछे अब कुछ ऐसी अचेतन शक्तियों का आभास मिला है जिन्हें अभी समझना है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 356-60 |
  2. सं.ग्रं.-एच. सिज़विक : हिस्ट्री ऑव एथिक्स (1960); जे.ई. एर्डमान : हिस्ट्रीज़ ऑव फ़िलासफ़ी; जे.एस. मैकेंज़ी : मैनुएल (1924); जे.एच. म्योरहेड : एलिमेंट्स ऑव एथिक्स (1892); डब्ल्यू. बुन्ड्ट : एथिक्स (1897)।

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