आवृत्तिदर्शी
आवृत्तिदर्शी एक यंत्र हैं जिससे चलते हुए किसी पिंड को स्थिर रूप में देखा जा सकता है। इसकी क्रिया दृष्टिस्थापकत्व (परसिस्टैंस ऑव विज्हन) पर निर्भर है। हमारी आंख के कृष्णपटल (रेटिना) पर किसी वस्तु का प्रतिबिंब वस्तु को हटा लेने के लगभग 1।16 सेकेंड से लेकर 1।10 सेकेंड बाद तक बना रहता है। साधारण आवृत्तिदर्शी में एक वृत्ताकार पत्र या चक्र (डिस्क) होता है, जिसकी बारी के समीप बराबर दूरियों पर एक अथवा दो तीन वृत्ताकार पंक्तियों में छिद्र बन रहते हैं। वृत्ताकार पत्र को एक चाल से घुमाया जाता है और छिद्रों के समीप आंख वृत्ताकार पत्र को एक चाल से घुमाया जाता है और छिद्रों के समीप आंख लगाकर गतिमान वस्तु का निरीक्षण किया जाता है। जब छिद्र वस्तु के सामने आता है तभी वस्तु दिखाई पड़ती है। यदि किसी आवृत्तिदर्शी को ऐसी गति से घुमाया जाए कि मशीन की प्रत्येक आवृत्ति में मशीन का वही भाग घूमते पत्र के एक छिद्र के सामने बराबर आता रहे तो दृष्टिस्थापकत्व के कारण चलती हुई मशीन हमें स्थिर, किंतु सामान्य प्रकाश में धुंधली, दिखाई पड़ेगी। स्पष्ट निरीक्षण के लिए मशीन को अत्यंत तीव्र प्रकाश में रहना चाहिए। यदि एकसमान तीव्र प्रकाश के बदले मशीन को प्रकाश में रहना चाहिए। यदि एकसमान तीव्र प्रकाश के बदले मशीन को प्रकाश की तीव्र दमकों (फ्लैशेज़) द्वारा प्रकाशित किया जाए और यदि दमकों की आवृत्तिसंख्या इतनी हो कि एक दमक मशीन पर इसके ठीक एक परिभ्रमण पर पड़े तो मशीन स्थिर दिखाई पड़ेगी। इस आयोजन से मशीन के किसी भाग के किसी भाग को फोटो लिया जा सकता है, उसका निरीक्षण किया जा सकता है और मशीन का कोणीय वेग ज्ञात किया जा सकता है। किसी दोलतीय वस्तु, जैसे कंपित स्वरित्र (टयूनिंग फ़ार्क) की भी आवृत्तिसंख्या निकाली जा सकती है।
आवृत्तिदर्शी द्वारा टयूनिंग फॉर्क की आवृत्तिसंख्या निकालना-आवृत्तिदर्शी आ (द्र. चित्र 1) को विद्युत मोटर मो द्वारा घुमाया जाता है। मोटर की गति इच्छानुसार घटा बढ़ाकर आवृत्तिदर्शी की परिभ्रणसंख्या ठीक की जा सकती है और परिभ्रमणसंख्या का मान मोटर की धुरी पर लगे हुए गणक से ज्ञात किया जा सकता है। दूरदर्शी दू आवृत्तिदर्शी के छिद्र पर सधा रहता है। इस दूरदर्शी और आवृत्तिदर्शी के बीच विद्युतस्वरित्र स्व क्षैतिज स्थिति में रखा जाता है जिसमें स्वरित्र की दोनाें भुजाओं में ऐल्यूमीनयिम की एक एक पत्ती लगा दी जाती है। इनमें से एक पत्ती में एक छिद्र बना रहता है कि वह दूसरी भुजा की पत्ती द्वारा स्वरित्र की स्थिरावस्था में पूरा ढका रहे और दोलन करते समय जब भुजाएँ फैल जाएँ तो छिद्र खुल जाए। इस भांति पत्तियों के बीच का छिद्र एक सेंकड में उतनी बार खुलता और बंद होता है जितनी स्वरित्र आवृत्तिसंख्या होती है। इसके बाद आवृत्तिदर्शी को चलाकर स्वरित्र को विद्युत् द्वारा दोलित करते हैं। विद्युत् के प्रभाव से स्वरित्र का दोलन स्थायी बना रहता है। दूरदर्शी में आवृत्तिदर्शी के छिद्र पहले धुंधले, फिर मोटर की गति बढ़ने के साथ फैलकर पूर्ण वृत्ताकार हो जाते हैं। गति अधिक बढ़ने पर छिद्र अलग स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। यह तभी संभव होता है जब स्वरित्र के दोलनकाल में आवृत्तिदर्शी का एक छिद्र निकटवर्ती दूसरे छिद्र के स्थान पर घूमकर आ जाता है। यदि चक्र की गति तनिक कम कर दी जाती है तो छिद्र पीछे की ओर धीरे धीरे घूमते हुए जान पड़ते हैं और यदि गति तनिक बढ़ाई जाती है तो छिद्र आगे की धीरे धीरे बढ़ते प्रतीत होते हैं। जब छिद्र स्पष्ट स्थिर दिखाई पड़ते हैं तो आवृत्तिदर्शी की भ्रमणसंख्या देखकर स्वरित्र की आवृत्तिसंख्या ज्ञात की जा सकती है। यदि चक्र के वृत्त पर स छिद्र हैं और चक्र एक सेकंड में म परिभ्रमण करता है तो स्वरित्र की आवृत्तिसंख्या स´म होती है। आवृत्तिदर्शी की गति इसकी ठीक दुनी अथवा तिगुनी, चौगुनी इत्यादि होने पर भी छिद्र इसी प्रकार स्थिर दिखाई पड़ते हैं। इस कारण प्रयोग में आवृत्तिदर्शी की गति प्रारंभ में कम रखकर धीरे धीरे बढ़ाई जाती है।
आवृत्तिदर्शी का प्रभाव-आजकल घरों में और सड़कों पर रोशनी ट्यूबलाइट द्वारा की जाती है। इनमें प्रकाश उच्च आवृत्तिसंख्या के प्रत्यावर्ती विद्युद्विसर्जन से उत्पन्न होता है। ऐसे प्रकाश में यदि मेज का पंखा चलाया जाता है अथवा बिजली काटकर जब उसे बंद किया जाता है, तो बढ़ती अथवा घटती चाल में पंखे के ब्लेड कभी रुकते हुए, कभी उलटी दिशा में चलते, फिर रुकते और सीधा चलते दिखाई पड़ते हैं। अर्थात् ब्लेड उलटा सीधा चलते और बीच बीच में रुकते जान पड़ते हैं। यह आवृत्तिदर्शी प्रभाव ट्यूबलाइट के प्रकाशविसर्जन की आवृत्तिसंख्या पर निर्भर रहता है। यदि पंखे पर एकदिश धारा के बल्ब का प्रकाश पड़ता हो तो हमें ऐसा अनुभव नहीं होता। इसी भांति चलचित्र (सिनेमा) में चलता हुआ गाड़ी का डिब्बा जब रुकता हुआ दिखाया जाता है तो तीलीदार पहिया पहले कभी रुककर उलटी दिशा में घूमता और फिर रुककर सीधा घूमता जान पड़ता है। यह दृश्य भी चलचित्र के पर्दे पर खंडित प्रकाश से उत्पन्न होता है। आवृृत्तिदर्शी प्रभाव का कारण निम्नलिखित प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है। बड़े श्वेत वृत्ताकार पत्र च पर (द्र.चित्र 2) काले वृत्त और बिंदु बनाए गए हैं। इसपर आर्क आ का प्रकाश ताल ता द्वारा पड़ता है। ताल और वृत्ताकार पत्र के बीच एक दूसरा वृत्ताकार पत्र क है, जिसमें एक लंबा छेद बना हुआ है। वृत्ताकार पत्र भिन्न भिन्न गतियों से अलग अलग घुमाए जाते हैं मान लीजिए, वृत्ताकार पत्र क एक सेकंड में 13 चक्कर लगाता है, तो इसके छिद्र से पत्र च का कोई भाग एक सेकंड में 13 बार प्रकाशित होता है। यदि च एक सेकंड में केवल एक ही चक्कर उसी दिशा में लगाए और चित्र के अनुसार यदि पहली दमक वृत्त 1 पर पड़े तो इस वृत्त के दोनों बिंदु एक दूसरे के ठीक ऊपर नीचे दिखाई पड़ेंगे। दूसरी दमक के पहुँचते ही वृत्त 1 के स्थान पर वृत्त 2 आ जाएगा और बिंदु दक्षिणावर्त दिशा में मुड़े जान पड़ेंगे। तीसरे स्फुरण के आते ही वृत्त 3 आकर वृत्त 1 के स्थान पर पड़ेगा ओर बिंदु अधिक मुड़े दिखाई पड़ेंगे। वृत्त सब एक समान हैं और सब बारी से स्थान 1 पर आते हैं, जहां प्रकाश की दमकें पड़ती हैं। अत: वृत्त स्थिर और उनके भीतर के बिंदु दक्षिणावर्त घूमते दिखाई पड़ेंगे। पत्र च के केंद्र के समीप तीन खानेदार वृत्त बनाए गए हैं, जिनमें एकांतर क्रम से सफेद काले खाने बने हुए हैं। मध्यवर्ती वृत्त में 13 सफेद और 13 काले खाने हैं। भीतरी वृत्त में 12 सफेद और 12 काले खाने हैं और बाहरी वृत्त में प्रत्येक प्रकार के 14 ऐसे खाने हैं। च और क इन दोनों पत्रों की आपेक्षिक गातियों के ऐसे संतुलन पर कि परिधि के वृत्त स्थिर जान पड़ें, इन तीनों केंद्रीय खानेदार वृत्तों में बीचवाला वृत्त स्थिर, बाहरी दक्षिणावर्त और भीतरी वामावर्त घूमता दिखाई पड़ेगा।
एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखनी चाहिए। यदि प्रकाश की दमक एक सेकंड में 13 से कम कर दी जाय, तो प्रकाशित चकती च की सतह पर झिलमिलाहट या कंपकंपी (फ्लिकरिंग) दिखाई पड़ती है। यदि प्रकाश की दमकों की प्रति सेकंड संख्या चक्र च के वेग को बढ़ाकर पर्याप्त अधिक कर दी जाए तो कंपकंपी दूर हो जाती है और सतह की दीप्ति स्थायी जान पड़ती है। ऐसा दीप्तिश्रभास हमारी आंखों की दृष्टिविलम्बना के कारण होता हैं, जैसा सिनेमा के पर्दे पर चित्रों को प्रति सेकंड 13 से अधिक बार डालकर पात्रों के नाच, दौड़ आदि, सभी गतिविधियों को स्वाभाविक रीति में देख पाते हैं। यदि चलचित्रों की संख्या प्रति सेकंड 13 से कम हो तो पर्दे पर कंपकंपी आने लगती है। आजकल बोलते चित्रों में 24 चित्र प्रति सेकंड पर्दे पर डाले जाते हैं, जिससे कंपकंपी बिलकुल नहीं आती । कंपकंपी पूर्णतया निर्मूल करने के लिए प्रति चित्र के मध्य में प्रकाश एक बार काट दिया जाता है, अर्थात् प्रति सेकंड 24 चित्र चलाते समय 48 दमकें बराबर समयांतरों पर पड़ती हैं।
आजकल आवर्तदर्शी के साथ कार्य करनेवाले इतने अद्भुत फोटोग्राफी के कैमरे बनाए गए हैं कि उड़ती चिड़िया, तीव्रगामी हवाई जहाज तथा जेट प्लेनआदि के किसी भाग का फोटो उतारा जा सकता है। छोटे बड़े बमों के फटने के तुरंत बाद, अर्थात 1/10 लाख सेकंड में तथा तदनंतर विस्फोटनक्रिया का फोटो लेकर अध्ययन किया जा सकता है। ऐसे आवृत्तिदर्शी में तापायन कपाट (थर्मआयोनिक वाल्व) के द्वारा दमक की आवृत्तिसंख्या एक लाख से भी अधिक प्रति सेकंड होती है और दमक की ज्योति सूर्य के प्रकाश से भी प्रबल होती है। इसका श्रेय प्रोफेसर एगर्टन को है। मैसाचुसेट्स इंस्टिटयूट ऑव टेकनॉलाजी (अमरीका) में अपने साथियों के साथ प्रो. एगर्टन लगभग 30 वर्षो तक इस अनुसंधान में संलग्न रहे। इस आवृत्तियों की क्रिया पूर्वोक्त आवृत्तियों के समान ही होती है, किंतु प्रकाश की तीव्रता बढ़ाने के लिए प्रबल इलेक्ट्रॉनिक परिपथ (सर्किट) की व्यवस्था रहती है और उसके खोलने और बंद करने के लिए गैस से भरी एक नलिका होती है, जो विद्युतपरिपथ में संघनक (कंडेंसर) का काम करती है। इसमें लगे वाल्व को ठीक साधने पर, विद्युत दमक एक सेकंड के दस लाखवें भाग के समयांतर पर हो सकती है। दमक की दीप्ति इतनी प्रबल होती हैं कि पाँच सात मील गहरे समुद्र की पेंदी का भी चित्र खींचा जा सकता हैं। ऐसे आवृत्तिदर्शी द्वारा ऐसी सूक्ष्म वस्तुओं तक का निरीक्षण संभव हो सका है जो हमें दिखाई भी नहीं पड़ती।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 456-57 |