(अंग्रेज़ी:Distillation) द्रव को गर्म करके वाष्प बनाना और फिर उस वाष्प को ठंडा करके द्रव के रूप में लाने की विधि को आसवन कहा जाता है। आसवन विधि द्वारा मुख्यतः द्रवों के मिश्रण को पृथक् किया जाता है। रसायन विज्ञान में जब दो द्रवों के क्वथनांकों में अन्तर अधिक होता है, तो उसके मिश्रण को आसवन विधि से पृथक् करते हैं। आवसन विधि में द्रव को वाष्प में परिणत कर किसी दूसरे स्थान में भेजा जाता है, जहाँ उसे ठंडा कर पुनः द्रव अवस्था में परिवर्तित कर लिया जाता है। आसवन का प्रथम भाग वाष्पीकरण एवं दूसरा भाग संघनन कहलाता है।
प्रकार
आसवन विधि को तीन भागों में बांटा गया है-
- प्रभाजित आसवन
- निर्वात आसवन
- प्रभंजक आसवन
आसवन आजकल आसवन शब्द पुराने की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भभके में वाष्पवान् द्रव्य को उड़ाना और उड़ी हुई भाप को ठंडा करके फिर चुआ लेना, यह सबकी सब प्रक्रिया आसवन कहलाती है। आसवन का उद्देश्य किसी वाष्पवान् अंश को अन्य अवाष्पवान् अंशों से पृथक् किए जा सकते हैं। पुराने समय में आसवन की इस विधि का उपयोग केवल आसवों अर्थात् मदिरा के समान पेय तैयार करने में किया जाता था, पर आजकल आसवन द्वारा अनेक रासायनिक द्रव्यों का शोधन किया जाता है। आसवन की एक साधारण परिभाषा यह है कि विलयन में से विलायक को भाप बनाकर उड़ाना और फिर उसे संघनित कर लेना। इस परिभाषा के भीतर साधारण आसवन और प्रभाजित आसवन, दोनों सम्मिलित हैं। आसवन से मिलती जुलती एक विधि का नाम ऊर्ध्वपातन है। ऊर्ध्वपातन में वाष्पवान् ठोस पदार्थ भभके में गरम करके उड़ाया जाता है और फिर उस भाप को ठंडा करके ठोस शुद्ध पदार्थ प्राप्त कर लिया जाता है।
लोकसाहित्य में आसव शब्द सुरा या मदिरा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। द्राक्षासव, उशीरासव आदि आसव आयुर्वेद ग्रंथों में प्रसिद्ध हैं। सौत्रामणी के प्रकरण में आसुता सुरा का सबसे पुराना उल्लेख यजुर्वेद के १९वें अध्याय में मिलता है। सुराधनी कुंभी वह पात्र था जिसमें तैयार की हुई सुरा रखी जाती थी। अकुंर निकले हुए धान और जौ से सुरा बनाने में सोंठ, पुनर्नवा, पिप्पली आदि औषधियों का प्रायोग किया जाता था। लगभग तीन रात ये पदार्थ पानी में सड़ते रहते थे और फिर उबाल और छानकर सुरा तैयार की जाती थी।
प्रकृति में आसवन का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण समुद्र के खारे पानी में से पानी की भाप का उठना, फिर भाप का वायुमंडल के ठंडे भाग में पहुँचकर ठंडा होना और शुद्ध जल के रूप में बरसना है। वर्षा का जल एक प्रकार से शुद्ध आसुत जल है, परंतु बरसते समय यह साधारण वायुमंडल से अपद्रव्य का शोषण कर लेता है।
प्रयोगशालाओं और कारखानों में आसवन के निमित्त जिस उपकरण का प्रयोग किया जाता है उसके मुख्यतया तीन अंग होते हैं: (१) भभका, (२) संघनित्र और (३) ग्राही। भभके में वह मिश्रण रखा जाता है जिसमें से वाष्पवान् अंश पृथक् करना होता है। ये भभके उपयोगानुसार काच, तांबे, लोहे अथवा मिट्टी के बने होते हैं। शराब बनाने के कारखानों में बहुधा तांबे के बने भभकों का प्रयोग होता हैं। और प्रयोगशालाओं में कांच के भभकों का। भभके के नीचे भट्ठी या गरम करने के निमित्त किसी उपयोगी साधन का प्रयोग किया जाता है। भभके में से उड़ी हुई भाप संघनित्र में पहुँचती है। संघनित्र अनेक प्रकार के प्रचलित हैं। सभी संघनित्रों का उद्देश्य यह होता है कि भाप शीघ्र से शीघ्र और भली भांति ठंडी हो जाए। यह आवश्यक है कि संघनित्र में अधिक से अधिक पृष्ठ उस हवा या पानी के संपर्क में आए जिसके द्वारा भाप को ठंडा होना है। तांबा गरमी का अच्छा चालक है। इसकी नलिकाएं (पाइप) यथेष्ट पतली बन सकती है; अत: कारखानों में अधिकतर तांबे के ही संघनित्रों का व्यवहार किया जाता है। वस्तुत: संघनित्र वह उपकरण है जिसमें गरम भाप एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचते-पहुँचते ठंडी हो जाए। जिन द्रव्यों के क्वथनांक बहुत ऊँचे हैं, उनकी भाप हवा से ठंडी की जा सकती है। इसके लिए वायुसंघनित्र काम में लाए जाते हैं। ऐल्कोहल, बेंज़ीन, ईथर आदि द्रवों की भापों को ठंडा करने के लिए ऐसे संघनित्रों का प्रयोग होता है जिनमें पानी के प्रवाह का प्रबंध हो। आसवन उपकरण का तीसरा अंग ग्राही है। यह वह पात्र है जिसमें भाप के ठंडा हो जाने पर बना हुआ द्रव इकठ्ठा किया जा सके। ग्राही भी सुविधानुसार अनेक प्रकार के होते हैं।
तीन प्रकार के आसवन महत्वपूर्ण माने जाते हैं-प्रभाजित आसवन, निर्वात आसवन और भंजक आसवन। प्रभाजित आसवन द्वारा विलयन, अर्थात् मिश्रण, में से उन द्रवों को पृथक् किया जा सकता है जिनके क्वथनांक पर्याप्त भिन्न हों। द्रवों का वाष्प प्रभाजित आसवन के संघनित्रों में इस प्रकार क्रमश: ठंढा किया जा सकता है कि ग्राही में पहले वे द्रव ही चुए जो सापेक्षत: ठंढा किया जा सकता है जो सापेक्षत: अधिक वाष्पवान् हों। इस काम के लिए जिन भभकों का उपयोग किया जाता है उनमें ताप धीरे धीरे बढ़ता है।
निर्वात आसवन के लिए ऐसा प्रबंध किया जाता है कि भभके और संघनित्र के भीतर की वायु पंप द्वारा बहुत कुछ निकल जाए। विलयन के ऊपर वायु की दाब कम होने पर विलायकों का क्वथनांक भी कम हो जाता है और वे सापेक्षत: आति न्यून ताप पर ही आसवित किए जा सकते हैं। ऊपर, प्रयोगशाला के लिए उपयुक्त संघनित्र; मध्य में, ऐसा जो तीन चार गैलन जल प्रति घंटा आसवित कर सकता है (१. ठंडा कर नेवाले जल की निकासी, २. स्रुत जल की निकासी, ३. गैस (ईधन) आने की नली,)४. जल आने की नली, ५. भाप-दाब मापी; नीचे, प्रभाजित आसवन के लिए उपयुक्त ग्राही। प्रभंजक आसवन एक प्रकार का शुष्क आसवन होता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण कोयले का आसवन है। पत्थर के कोयले में पानी का अंश तो कम ही होता है, पर जब वह अधिक तप्त किया जाता है तो उसके प्रभंजन (टूटने) द्वारा अनेक पदार्थ बनते हैं जिन्हें भाप बनाकर उड़ाया और फिर ठंडा करके ठोस या द्रव किया जा सकता है। प्रभंजन में कुछ ऐसी भी गैसें बन सकती हैं जो ठंडी होने पर द्रव या ठोस तो न बनें, पर गैस रूप में ही जिनकी उपयोगिता हो; उदाहरणत:, संभव है, इन गैसों का उपयोग हवा के साथ जलाकर प्रकाश अथवा उष्मा पैदा करने में किया जा सकता हो। पत्थर के कोयले से प्रभंजक आसवन से इस प्रकार की गैसों के अतिरिक्त क्रियोज़ोट, नैफ्थैलीन आदि पदार्थ प्राप्त किए जा सकते हैं। मिट्टी के तेल का भी प्रभंजक आसवन किया जा सकता है।[1]
साधारण आसवन का उपयोग इत्र तैयार करने में भी किया जाता है। (द्र. ऐल्कोहल) आदि शीर्षक लेख भी इस संबंध में देखिए)। इत्र तैयार करने में भाप, आसवन का प्रयोग किया जाता है। पानी की भाप के साथ साथ इत्र उड़ाए जाते हैं और संघनित्र में ठंडा करके पानी और इत्र का मिश्रण ग्राही में प्राप्त किया जाता है।[2]
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