इन्द्रिय -न्याय दर्शन
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- न्याय दर्शन में तीसरा प्रमेय इन्द्रिय है। यद्यपि छठां प्रमेय मनस भी इन्द्रिय है। तथापि मनस के विषय में विशेष ज्ञान के लिए यहाँ उसका पृथक् उल्लेख किया गया है। यद्यपि सांख्य आदि दर्शनों में वाक, पाणि, पाद, पायु, और उपस्थ- इन पाँच कर्मेन्द्रियों का भी यहाँ परिग्रह हुआ है। और वहीं यह भी कहा गया है कि अहंकार सभी इन्द्रियों को उत्पन्न करता है। तथापि महर्षि गौतम हस्त आदि अंगविशेषों को इन्द्रिय नहीं मानते हैं। इन के मत में घ्राण आदि पाँच इन्द्रियों हैं, [1] क्योंकि वे प्रत्यक्षात्मक ज्ञान के साक्षात साधन हैं। हस्त आदि इन्द्रियों के सदृश हैं। अतएव उनमें इन्द्रिय पद का लाक्षणिक प्रयोग होता है। ‘तात्पर्य’ टीकाकार वाचस्पति मिश्र[2] भी न्याय के इस सिद्धान्त के समर्थन में कहते हैं कि यदि असाधारण कार्य के साधन हस्त आदि को इन्द्रिय कहा जाय तब तो कण्ठ, हृदय, आमाशय तथा पक्वाशय को भी कर्मेंन्द्रिय कहा जा सकता है। गौतम के मत में अहंकार किसी इन्द्रिय का उपादान कारण नहीं है, किन्तु पृथिवी आदि पंचभूत ही क्रमश: घ्राण आदि पाँच इन्द्रियों के उपादान कारण हैं।
- न्यायदर्शन में इन्द्रिय को भौतिक पदार्थ कहा गया है। इन्द्रिय-लक्षणसूत्र के अन्त में महर्षि गौतम ने ‘भूतेभ्य:’ पद का प्रयोग किया है। इनकी मूल युक्ति यही है कि गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्दों के बीच में घ्राण इन्द्रिय जब केवल गन्ध को ही ग्रह करता है तथा रसना केवल रस का ही प्रत्यक्ष कराता है, तब उसे भौतिक ही कहना उचित होगा। क्योंकि तत्तत भूतजन्यत्व ही वहाँ अनुमान द्वारा सिद्ध होता है। श्रवणेन्द्रिय उत्पन्न नहीं होता है। क्योंकि जीव का कर्णगोलकावच्छिन्न नित्य आकाश ही वस्तुत: श्रवण है। उसी कर्णगोलक की उत्पत्ति मानकर शास्त्र में श्रवणेन्द्रिय को उत्पन्न कहा गया है। कर्णगोलक उपाधि के भेद से श्रवणेन्द्रियरूप आकाश के भेद की कल्पना की जाती है। महर्षि गौतम ने आकाश को श्रवणेन्द्रिय की योनि (मूल) कहा है। श्रवणेन्द्रिय भी अभौतिक पदार्थ नहीं है। किन्तु आकाशात्मक भूतरूप है।
- गौतम के मत में आकाश विभु अर्थात् सर्वव्यापी तथा नित्य पदार्थ हे। विभुद्रव्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। अत एव आकाश रूप श्रवणेन्द्रिय वस्तुत: नित्य पदार्थ है। गौतम के इन्द्रिय - लक्षणसूत्र में - ‘भूतेभ्य’’ इस पद में पंचमी विभक्ति का अर्थ जन्यत्व नहीं हैं किन्तु प्रयोजकत्व है। जिसकी सत्ता के बिना जिसकी सत्ता सिद्ध नहीं होती है, उसे उसका प्रयोज्य कहते हैं। आकाश की सत्ता के बिना श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सिद्ध नहीं होती है, अतएव वह आकाश का प्रयोज्य है और आकाश उसका प्रयोजक।