इलाहाबाद का इतिहास

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इलाहाबाद का इतिहास
विवरण इलाहाबाद शहर, दक्षिणी उत्तर प्रदेश राज्य के उत्तरी भारत में स्थित है। इलाहाबाद गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला इलाहाबाद ज़िला
निर्माता अकबर
स्थापना सन 1583 ई.
भौगोलिक स्थिति उत्तर- 25.45°, पूर्व- 81.85°
मार्ग स्थिति राष्ट्रीय राजमार्ग 2 और 27 से इलाहाबाद पहुँचा जा सकता है।
कब जाएँ अक्टूबर से मार्च
कैसे पहुँचें विमान, रेल, बस, टैक्सी
हवाई अड्डा इलाहाबाद विमानक्षेत्र, नज़दीकी वाराणसी हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशन प्रयाग रेलवे स्टेशन, इलाहाबाद सिटी रेलवे स्टेशन, दारागंज रेलवे स्टेशन, इलाहाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन, नैनी जंक्शन रेलवे स्टेशन, सूबेदारगंज रेलवे स्टेशन, बमरौली रेलवे स्टेशन
बस अड्डा लीडर रोड एवं सिविल लाइंस से बसें उपलब्ध
यातायात ऑटो रिक्शा, बस, टैम्पो, साइकिल रिक्शा
क्या देखें इलाहाबाद पर्यटन
कहाँ ठहरें होटल, धर्मशाला, अतिथि ग्रह
गूगल मानचित्र, इलाहाबाद विमानक्षेत्र
अद्यतन‎

इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के प्रमुख धार्मिक नगरों में से एक है। यह नगर, जिसे प्राचीन समय में 'प्रयाग' नाम से जाना जाता था, अपनी सम्पन्नता, वैभव और धार्मिक गतिविधियों के लिए जाना जाता रहा है। भारतीय इतिहास में इस नगर ने युगों के परिवर्तन देखे हैं। बदलते हुए इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है। यह नगर राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का गवाह रहा है तो राजनीतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी रहा। इलाहाबाद को 'संगम नगरी', 'कुम्भ नगरी' और 'तीर्थराज' भी कहा गया है। 'प्रयागशताध्यायी' के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्ज़ा प्राप्त है।

नामकरण

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम 'प्रयाग' है। यह माना जाता है कि चार वेदों की प्राप्ति के पश्चात् ब्रह्मा ने यहीं पर यज्ञ किया था, इसीलिए सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग अर्थात् 'यज्ञ'। कालान्तर में मुग़ल बादशाह अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफ़ी प्रभावित हुआ। उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण 'इलहवास' किया अर्थात् "जहाँ पर अल्लाह का वास है"। परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि 'इला' नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर[1] थी, के वास के कारण इस जगह का नाम 'इलावास' पड़ा। कालान्तर में अंग्रेज़ों ने इसका उच्चारण इलाहाबाद कर दिया।

वेद तथा पुराणों में उल्लेख

इलाहाबाद अत्यन्त पवित्र नगर माना जाता रहा है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृति कवियों से लेकर लोक साहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इलाहाबाद को 'संगम नगरी', 'कुम्भ नगरी' और 'तीर्थराज' भी कहा गया है। 'प्रयागशताध्यायी' के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियाँ तीर्थराज प्रयाग की पटरानियाँ हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्ज़ा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र 'तीर्थराज प्रयाग' को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुतः गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है, उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे- देवप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग आदि। केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है, उसे 'प्रयागराज' कहा गया। प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-

को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष पुंज कुंजर मगराऊ।
सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।

प्रागैतिहासिक इतिहास

यदि प्रागैतिहासिक काल को देखा जाए तो इलाहाबाद और मिर्जापुर के मध्य अवस्थित बेलनघाटी में पुरापाषाण काल के पशुओं के अवशेष प्राप्त हुए थे। बेलनघाटी में विंध्य पर्वत के उत्तरी पृष्ठों पर लगातार तीन अवस्थायें-पुरापाषाण, मध्यपाषाण व नवपाषाण काल एक के बाद एक पाई जाती हैं। भारत में नवपाषाण युग की शुरूआत ईसा पूर्व छठीं सहस्त्राब्दी के आस-पास हुई थी। इसी समय से उपमहाद्वीप में चावल, गेहूँजौ जैसी फसलें उगायी जाने लगी थीं। इलाहाबाद ज़िले के नवपाषाण स्थलों की यह विशेषता है कि यहाँ ईसा पूर्व छठी सहस्त्राब्दी में भी चावल का उत्पादन होता था। इसी प्रकार वैदिक संस्कृति का उद्भव भले ही सप्तसिन्धु देश (पंजाब) में हुआ हो, पर विकास पश्चिमी गंगा घाटी में ही हुआ। गंगा-यमुना दोआब पर प्रभुत्व पाने हेतु तमाम शक्तियाँ संघर्षरत रहीं और नदी तट पर होने के कारण प्रयाग का विशेष महत्व रहा। आर्यों द्वारा उल्लिखित द्वितीय प्रमुख नदी सरस्वती प्रारम्भ से ही प्रयाग में प्रवाहमान थी। सिन्धु सभ्यता के बाद भारत में द्वितीय नगरीकरण गंगा के मैदानों में ही हुआ। यहाँ तक कि सभी उत्तर कालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000.600 ई.पू. में उत्तरी गंगा मैदान में ही रचे गये थे। उत्तर वैदिक काल के प्रमुख नगरों में से एक कौशाम्बी भी था, जो कि वर्तमान में इलाहाबाद से एक पृथक् जनपद बन गया। प्राचीन कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध के काफ़ी समय बाद हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया और कुरूवंश में जो जीवित रहे, वे इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में आकर बस गये। महात्मा गौतम बुद्ध के समय अवस्थित 16 बड़े-बड़े महाजनपदों में से एक वत्स की राजधानी कौशाम्बी थी।

मौर्यकालीन इतिहास

मौर्य काल में पाटलिपुत्र, उज्जयिनी और तक्षशिला के साथ कौशाम्बी व प्रयाग भी चोटी के नगरों में थे। प्रयाग में मौर्य शासक अशोक के 6 स्तम्भ लेख प्राप्त हुए हैं। संगम-तट पर किले में अवस्थित 10.6 मीटर ऊँचा अशोक स्तम्भ 232 ई.पू. का है, जिस पर तीन शासकों के लेख खुदे हुए हैं। 200 ई. में समुद्रगुप्त इसे कौशाम्बी से प्रयाग लाया और उसके दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग-प्रशस्ति इस पर ख़ुदवाया गया। कालान्तर में 1605 ई. में इस स्तम्भ पर मुग़ल सम्राट जहाँगीर के तख़्त पर बैठने का वाकया भी ख़ुदवाया गया। 1800 ई. में किले की प्राचीर सीधी बनाने हेतु इस स्तम्भ को गिरा दिया गया और 1838 में अंग्रेज़ों ने इसे पुनः खड़ा किया।

गुप्तकालीन उल्लेख

प्रयाग गुप्त काल के शासकों की राजधानी रहा है। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित 'प्रयाग-प्रशस्ति' उसी स्तम्भ पर खुदा है, जिस पर अशोक का है। इलाहाबाद में प्राप्त 448 ई. के एक गुप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि पाँचवीं सदी में भारत में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी। इसी प्रकार इलाहाबाद के करछना नगर के समीप अवस्थित गढ़वा से एक-एक चन्द्रगुप्तस्कन्दगुप्त का और दो अभिलेख कुमारगुप्त के प्राप्त हुए हैं, जो उस काल में प्रयाग की महत्ता दर्शाते हैं। 'कामसूत्र' के रचयिता मलंग वात्सायन का जन्म भी कौशाम्बी में हुआ था। भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट माने जाने वाले हर्षवर्धन के समय में भी प्रयाग की महत्ता अपने चरम पर थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग लिखता है कि- "इस काल में पाटलिपुत्र और वैशाली पतनावस्था में थे, इसके विपरीत दोआब में प्रयाग और कन्नौज महत्त्वपूर्ण हो चले थे। ह्वेनसांग ने हर्ष द्वारा महायान बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ कन्नौज और तत्पश्चात् प्रयाग में आयोजित महामोक्ष परिषद का भी उल्लेख किया है। इस सम्मेलन में हर्ष अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़कर सर्वस्व दान कर देता था। स्पष्ट है कि प्रयाग बौद्धों हेतु भी उतना ही महत्त्वपूर्ण रहा है, जितना कि हिन्दुओं हेतु। कुम्भ मेले में संगम में स्नान का प्रथम ऐतिहासिक अभिलेख भी हर्ष के ही काल का है।

घाट परम्परा

प्रयाग में घाटों की एक ऐतिहासिक परम्परा रही है। यहाँ स्थित दशाश्वमेध घाट पर प्रयाग महात्म्य के विषय में मार्कंडेय ऋषि द्वारा अनुप्राणित होकर धर्मराज युधिष्ठिर ने दस यज्ञ किए और अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति हेतु प्रार्थना की। धर्मराज द्वारा दस यज्ञों को सम्पादित करने के कारण ही इसे 'दशाश्वमेध घाट' कहा गया। एक अन्य प्रसिद्ध घाट रामघाट, झूंसी है। महाराज इला जो कि भगवान राम के पूर्वज थे, ने यहीं पर राज किया था। उनकी संतान व चन्द्रवंशीय राजा पुरूरवा और गंधर्व मिलकर इसी घाट के किनारे अग्निहोत्र किया करते थे। धार्मिक अनुष्ठानों और स्नानादि हेतु प्रसिद्ध त्रिवेणी घाट वह जगह है, जहाँ पर यमुना पूरी दृढ़ता के साथ स्थिर हो जाती हैं व साक्षात् तापस बाला की भाँति गंगा-यमुना की ओर प्रवाहमान होकर संगम की कल्पना को साकार करती हैं। त्रिवेणी घाट से ही थोड़ा आगे संगम घाट है। संगम क्षेत्र का एक ऐतिहासिक घाट किला घाट है। अकबर द्वारा निर्मित ऐतिहासिक किले की प्राचीरों को जहाँ यमुना स्पर्श करती हैं, उसी के पास यह किला घाट है और यहीं पर संगम तट तक जाने हेतु नावों का जमावड़ा लगा रहता है। इसी घाट से पश्चिम की ओर थोड़ा बढ़ने पर अदृश्य सलिला सरस्वती नदी के समीकृत सरस्वती घाट है। रसूलाबाद घाट प्रयाग का सबसे महत्त्वपूर्ण घाट है।

सामारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण

इलाहाबाद सल्तनत काल में भी सामारिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा। अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने इलाहाबाद में कड़ा के निकट अपने चाचा व श्वसुर जलालुद्दीन ख़िलज़ी की धोख़े से हत्या कर अपने साम्राज्य की स्थापना की थी। मुग़ल काल में भी इलाहाबाद अपनी ऐतिहासिकता को बनाये रहा। अकबर ने संगम तट पर 1538 ई. में किले का निर्माण कराया। ऐसी भी मान्यता है कि यह किला मौर्य सम्राट अशोक द्वारा निर्मित था और अकबर ने इसका जीर्णोद्धार मात्र करवाया। पुनः 1838 में अंग्रेज़ों ने इस किले का पुनर्निर्माण करवाया और वर्तमान रूप दिया। इस किले में भारतीय और ईरानी वास्तुकला का मेल आज भी कहीं-कहीं दिखायी देता है। इस किले में 232 ई.पू. का अशोक का स्तम्भ, जोधाबाई महल, पातालपुरी मंदिर, सरस्वती कूप और अक्षय वट अवस्थित हैं। ऐसी मान्यता है कि वनवास के दौरान भगवान राम इस वट-वृक्ष के नीचे ठहरे थे और उन्होंने उसे अक्षय रहने का वरदान दिया था, इसीलिए इसका नाम अक्षयवट पड़ा। किले-प्राँगण में अवस्थित सरस्वती कूप में सरस्वती नदी के जल का दर्शन किया जा सकता है। इसी प्रकार मुग़लकालीन शोभा बिखेरता 'खुसरो बाग़' बादशाह जहाँगीर के बड़े पुत्र खुसरो द्वारा बनवाया गया था। यहाँ बाग़ में खुसरो, उसकी माँ और बहन सुल्तानुन्निसा की क़ब्रें हैं। ये मक़बरे काव्य और कला के सुन्दर नमूने हैं। फ़ारसी भाषा में जीवन की नश्वरता पर जो कविता यहाँ अंकित है, वह मन को भीतर तक स्पर्श करती है।

अंग्रेज़ों का अधिकार

बक्सर के युद्ध, 1764 बाद अंग्रेज़ों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा पर आधिपत्य कर लिया, पर मुग़ल सम्राट शाहआलम द्वितीय अभी भी नाममात्र का प्रमुख था। अंततः बंगाल के ऊपर क़ानूनी मान्यता के बदले ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने शाह आलम को 26 लाख रुपये दिए एवं कड़ा व इलाहाबाद के ज़िले भी जीतकर दिये। सम्राट को 6 वर्षों तक कम्पनी ने इलाहाबाद के किले में लगभग बंदी बनाये रखा। पुनः 1801 में अवध के नवाब को अंग्रेज़ों ने सहायक संधि हेतु मजबूर कर गंगा-यमुना के दोआब पर क़ब्जा कर लिया। उस समय इलाहाबाद प्रान्त अवध के ही अन्तर्गत था। इस प्रकार 1801 में इलाहाबाद अंग्रेज़ों की अधीनता में आया और उन्होंने इसे वर्तमान नाम दिया।

स्वतत्रता आन्दोलन में भूमिका

भारत के स्वतत्रता आन्दोलन में भी इलाहाबाद की एक अहम् भूमिका रही। राष्ट्रीय नवजागरण का उदय इलाहाबाद की भूमि पर हुआ तो गाँधी युग में यह नगर प्रेरणा केन्द्र बना। 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के संगठन और उन्नयन में भी इस नगर का योगदान रहा है। सन 1857 के विद्रोह का नेतृत्व यहाँ पर लियाक़त अली ख़ाँ ने किया था। कांग्रेस पार्टी के तीन अधिवेशन यहाँ पर 1888, 1892 और 1910 में क्रमशः जार्ज यूल, व्योमेश चन्‍द्र बनर्जी और सर विलियम बेडरबर्न की अध्यक्षता में हुए। महारानी विक्टोरिया का 1 नवम्बर, 1858 का प्रसिद्ध घोषणा पत्र यहीं अवस्थित 'मिण्टो पार्क'[2] में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड केनिंग द्वारा पढ़ा गया था। नेहरू परिवार का पैतृक आवास 'स्वराज भवन' और 'आनन्द भवन' यहीं पर है। नेहरू-गाँधी परिवार से जुडे़ होने के कारण इलाहाबाद ने देश को प्रथम प्रधानमंत्री भी दिया।

चंद्रशेखर आज़ाद

क्रांतिकारियों की शरणस्थली

उदारवादी व समाजवादी नेताओं के साथ-साथ इलाहाबाद क्रांतिकारियों की भी शरणस्थली रहा है। चंद्रशेखर आज़ाद ने यहीं पर अल्फ़्रेड पार्क में 27 फ़रवरी, 1931 को अंग्रेज़ों से लोहा लेते हुए ब्रिटिश पुलिस अध्यक्ष नॉट बाबर और पुलिस अधिकारी विशेश्वर सिंह को घायल कर कई पुलिसजनों को मार गिराया औरं अंततः ख़ुद को गोली मारकर आजीवन आज़ाद रहने की कसम पूरी की। 1919 के रौलेट एक्ट को सरकार द्वारा वापस न लेने पर जून, 1920 में इलाहाबाद में एक सर्वदलीय सम्मेलन हुआ, जिसमें स्कूल, कॉलेजों और अदालतों के बहिष्कार के कार्यक्रम की घोषणा हुई, इस प्रकार प्रथम असहयोग आंदोलन और ख़िलाफ़त आंदोलन की नींव भी इलाहाबाद में ही रखी गयी थी।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

इलाहाबाद विश्वविद्यालय

सन 1887 में स्थापित पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' की अपनी अलग ही ऐतिहासिकता है। इस संस्थान से शिक्षा प्राप्त कर जगद्गुरु भारत को नई ऊँचाईयाँ प्रदान करने वालों की एक लम्बी सूची है। इसमें उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त, उत्तराखण्ड के प्रथम मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रथम अध्यक्ष जस्टिस रंगनाथ मिश्र, स्वतंत्र भारत के प्रथम कैबिनेट सचिव धर्मवीर, राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके डॉ. शंकर दयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंहचन्द्रशेखर, राज्यसभा की उपसभापति रहीं नजमा हेपतुल्ला, मुरली मनोहर जोशी, मदन लाल खुराना, अर्जुन सिंह, सत्य प्रकाश मालवीय, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के.एन. सिंह, जस्टिस वी.एन. खरे, जस्टिस जे.एस. वर्मा इत्यादि कई महान् व्यक्तित्व शामिल हैं। शहीद पद्मधर की कुर्बानी को समेटे 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' सदैव से राष्ट्रवाद का केन्द्र बिन्दु बनकर समूचे भारतवर्ष को स्पंदित करता रहा है।

विधिक व्यवसाय की नींव

देश का चौथा सबसे पुराना उच्च न्यायालय, जो कि 1866 में आगरा में अवस्थित हुआ, के 1869 में इलाहाबाद स्थानान्तरित होने पर आगरा के तीन विख्यात एडवोकेट पंडित नन्दलाल नेहरू, पंडित अयोध्यानाथ और मुंशी हनुमान प्रसाद भी इलाहाबाद आये और विधिक व्यवसाय की नींव डाली। मोतीलाल नेहरू इन्हीं पंडित नंदलाल नेहरू जी के बड़े भाई थे। कानपुर में वकालत आरम्भ करने के बाद 1886 में मोतीलाल नेहरू वक़ालत करने इलाहाबाद चले आए और तभी से इलाहाबाद और नेहरू परिवार का एक अटूट रिश्ता आरम्भ हुआ। 'इलाहाबाद उच्च न्यायालय' से सर सुन्दरलाल, मदन मोहन मालवीय, तेज बहादुर सप्रू, डॉ. सतीशचन्द्र बनर्जी, पी.डी. टंडन, डॉ. कैलाश नाथ काटजू, पंडित कन्हैया लाल मिश्र आदि ने इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उत्तर प्रदेश विधानमण्डल का प्रथम सत्र समारोह इलाहाबाद के थार्नहिल मेमोरियल हॉल में[3] 8 जनवरी, 1887 को आयोजित किया गया था।

अल्फ़्रेड पार्क

इलाहाबाद में ही अवस्थित अल्फ़्रेड पार्क भी कई युगांतरकारी घटनाओं का गवाह रहा है। राजकुमार अल्फ़्रेड ड्यूक ऑफ़ एडिनबरा के इलाहाबाद आगमन को यादगार बनाने हेतु इसका निर्माण किया गया था। पुनः इसका नामकरण चन्द्रशेखर आज़ाद की शहीद स्थली रूप में उनके नाम पर किया गया। इसी पार्क में अष्टकोणीय बैण्ड स्टैण्ड है, जहाँ अंग्रेज़ी सेना का बैण्ड बजाया जाता था। इस बैण्ड स्टैण्ड के इतालियन संगमरमर की बनी स्मारिका के नीचे पहले महारानी विक्टोरिया की भव्य मूर्ति थी, जिसे 1957 में हटा दिया गया। इसी पार्क में उत्तर प्रदेश की सबसे पुरानी और बड़ी जीवन्त गाथिक शैली में बनी पब्लिक लाइब्रेरी भी है, जहाँ पर ब्रिटिश युग के महत्त्वपूर्ण संसदीय कागज़ात रखे हुए हैं। पार्क के अंदर ही 1931 में इलाहाबाद महापालिका द्वारा स्थापित संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1948 में अपनी काफ़ी वस्तुयें भेंट की थीं।

धार्मिक ऐतिहासिकता

इलाहाबाद की अपनी एक धार्मिक ऐतिहासिकता भी रही है। छठवें जैन तीर्थंकर भगवान पद्मप्रभ की जन्मस्थली कौशाम्बी रही है तो भक्ति आंदोलन के प्रमुख स्तम्भ रामानन्द का जन्म प्रयाग में हुआ। रामायण काल का चर्चित श्रृंगवेरपुर, जहाँ पर केवट ने राम के चरण धोये थे, यहीं पर है। यहाँ गंगातट पर श्रृंगी ऋषि का आश्रम व समाधि है। भारद्वाज मुनि का प्रसिद्ध आश्रम भी यहीं आनन्द भवन के पास है, जहाँ भगवान राम श्रृंगवेरपुर से चित्रकूट जाते समय मुनि से आशीर्वाद लेने आए थे। अलोपी देवी के मंदिर के रूप में प्रसिद्ध सिद्धिपीठ यहीं पर है तो सीता-समाहित स्थल के रूप में प्रसिद्ध सीतामढ़ी भी यहीं पर है। गंगा तट पर अवस्थित दशाश्वमेध मंदिर जहाँ ब्रह्मा ने सृष्टि का प्रथम अश्वमेध यज्ञ किया था, भी प्रयाग में ही अवस्थित है। धौम्य ऋषि ने अपने तीर्थयात्रा प्रसंग में वर्णन किया है कि प्रयाग में सभी तीर्थों, देवों और ऋषि-मुनियों का सदैव से निवास रहा है तथा सोम, वरुण व प्रजापति का जन्मस्थान भी प्रयाग ही है।

किसी समय प्रयाग का एक विशिष्ट अंग रहा, लेकिन अब एक पृथक् जनपद के रूप में अवस्थित कौशाम्बी का भी अपना एक अलग इतिहास है। विभिन्न कालों में धर्म, साहित्य, व्यापार और राजनीति का केंद्र बिन्दु रहे कौशाम्बी की स्थापना उद्यिन ने की थी। यहाँ पाँचवी सदी के बौद्ध स्तूप और भिक्षुगृह हैं। वासवदत्ता के प्रेमी उद्यन की यह राजधानी थी। यहाँ की खुदाई से महाभारत काल की ऐतिहासिकता का भी पता लगता है। इलाहाबाद की ऐतिहासिकता अपने आप में अनूठी है। यह इलाहाबादी अमरूद के बिना भी अधूरी सी लगती है, तभी तो शायर अकबर इलाहाबादी ने कहा है कि- "कुछ इलाहाबाद में सामं नहीं बहबूद के, धरा क्या है सिवा अकबर-ओ-अमरूद के"।

इलाहाबाद में कुम्भ मेला

कुम्भ मेला

संगम तट पर लगने वाले कुम्भ मेले के बिना प्रयाग का इतिहास अधूरा है। प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ पर महाकुम्भ मेले का आयोजन होता है, जो कि अपने में एक लघु भारत का दर्शन करने के समान है। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष लगने वाले माघ स्नान और कल्पवास का भी आध्यात्मिक महत्व है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार माघ मास में तीन करोड़ दस हज़ार तीर्थ प्रयाग में एकत्र होते हैं और विधि-विधान से यहाँ ध्यान और कल्पवास करने से मनुष्य स्वर्गलोक का अधिकारी बनता है। 'पद्मपुराण' के अनुसार प्रयाग में माघ मास के समय तीन दिन पर्यन्त संगम स्नान करने से प्राप्त फल पृथ्वी पर एक हज़ार अश्वमेध यज्ञ करने से भी नहीं प्राप्त होता-

प्रयागे माघमासे तु त्र्यहं स्नानस्य यत्फलम्।
नाश्वमेधसस्त्रेण तत्फलं लभते भुवि।।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (अब झूसी)
  2. अब मदन मोहन मालवीय पार्क
  3. तब अवध व उत्तर प्रदेश प्रांत विधानपरिषद

बाहरी कड़ियाँ

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