उपपत्ति
उपपत्ति प्रकरण से प्रतिपादित अर्थ के साधन में जो युक्ति प्रस्तुत की जाती है उसे 'उपपत्ति' कहते हैं-'प्रकरण प्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र तत्र श्रूयमाणा युक्ति: उपपति:'। ज्ञान के साधन में उपपत्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। आत्मज्ञान की प्राप्ति में जो तीन क्रमिक श्रेणियाँ उपनिषदों में बतलाई गई हैं उनमें मनन की सिद्धि उपपत्ति के ही द्वारा होती है। वेद के उपदेश को श्रुतिवाक्यों से प्रथमत: सुनना चाहिए (श्रवण) और तदनंतर उनका मनन करना चाहिए (मनन)। युक्तियों के सहारे ही कोई तत्व दृढ़ और हृदयंगम बताया जा सकता है। बिना युक्ति के मनन निराधार रहता है और यह आत्मविश्वास नहीं उत्पन्सन कर सकता। मनन की सिद्धि के अनंतर निदिध्यासन करने पर ही आत्मा की पूर्ण साधना निष्पन्न होती है। 'मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:' की व्याख्या में माथुरी उपपत्ति को हेतु का पर्याय मानती है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 120 |