कंपोज़िंग

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कंपोज़िंग मुद्रणालयों (छापेखानों) में उस क्रिया को कहते हैं जिसमें टाइप छपाई के लिए क्रमानुसार रखा जाता है। इस काम के लिए एक छाटे उपकरण की आवश्यकता पड़ती है जिसे कंपोज़िंग स्टिक कहते हैं। यह लगभग 10 इंच लंबी और 2 इंच चौड़ी एक प्रकार की तश्तरी होती है जो केवल तीन ओर से घिरी रहती है। इनमें से दो ओर की दीवारें अचल रहती हैं, परंतु तीसरी ओर की दीवार किसी भी स्थान में कसी जा सकती है, जिससे भीतर की चौड़ाई इच्छानुसार नापी जा सकती है। इस स्टिक में टाइप एक-एक करके रखे जाते हैं। प्रत्येक टाइप के पार्श्व में एक खाँचा कटा रहता है, जिसे निक कहते हैं। टाइप लकड़ी की बड़ी-बड़ी खानेदार तश्तरियों में रखे रहते हैं जिनको केस कहते हैं। केस लगभग 32।। इंच लंबा, 14।। इंच और और 11/3 इंच गहरा होता है। प्रत्येक केस में कई घर रहते हैं और प्रत्येक घर में एक प्रकार के टाइप रहते हैं। इसलिए टाइप उठाते समय टाइप की जाँच नहीं करनी पड़ती। उदाहरणत:, यदि क को स्टिक में रखना है तो क वाले खाने से टाइप उठा लिया जाएगा। और उसे स्टिक में इस प्रकार रखा जाएग कि निक बाएँ हाथ के अँगूठे की ओर पड़े। इसी हाथ से स्टिक पकड़ी जाती है। इसलिए अँगूठे से छूते ही पता चला जाता है कि टाइप ठीक रखा गया या नहीं। इस प्रकार अनुभवी कंपोज़िटर (कंपोज़िंग का काम करनेवाला व्यक्ति कंपोज़िटर कहलाता है) केवल पांडुलिपि पर दृष्टि जमाए बड़ी शीघ्रता से कंपोज़ करता चला जाता है।

केसों में घर (खाने) बराबर नहीं होते। जिन अक्षरों की आवश्यकता अधिक पड़ती है वे बड़े रहते हैं और वे उस केस में रहते हैं जो कंपोजिटर के समीप रहता है। अंग्रेज़ी कंपोज़िग में केवल दो केसों से काम चल जाता है। पासवाले केस को निचला (लोअर केस) कहते हैं; दूसरे केस को ऊपरी केस (अपर केस) कहा जाता है, क्योंकि वह कुछ अधिक तिरछा और निचले केस के ऊपरी माथे से सटाकर रखा जाता है। अँग्रेजी के निचले केस में साधारणत: 53 खाने रहते हैं; ऊपरी केस में 98 अक्षर रहते हैं। हिंदी की कंपोज़िंग में दो केसों से काम नही चलता, चार केसों की आवश्यकता पड़ती है-निचला, ऊपरी, दायाँ, बायाँ। इनमें क्रमानुसार और घर रहते हैं। फिर, जैसा चित्रों से स्पष्ट है, कुछ घरों में एक से अधिक प्रकार के टाइप रहते हैं।

कंपोज़िंग स्टिक को निचले केस के लगभग मध्य के पास रखना चाहिए, जिससे दाहिने हाथ को यथासंभव कम दूर ही चलना पड़े।

जब स्टिक में एक पंक्ति लगभग पूरी हो जाती है तब पंक्ति की लंबाई को घटा बढ़ाकर उसे स्टिक की भीतरी चौड़ाई के ठीक बराबर करना पड़ता है (अवश्य ही स्टिक की चौड़ाई आवश्यकतानुसार पहले से ही ठीक नाप कर ली जाती है)। लाइन की लंबाई ठीक करने को 'जस्टिफ़ाई' करना कहते हैं। इसके लिए शब्दों के बीच लगे धातु या पतले टुकड़े लगाए जाते हैं। अच्छे कारीगर ऐसा प्रबंध करते हैं कि शब्दों के बीच के सब स्थान प्राय: बराबर रहें।

जब एक पंक्ति कंपोज़ हो जाती है तब दूसरी पंक्ति कंपोज़ की जाती है, परंतु बहुधा पंक्तियों के बीच कुछ अतिरिक्त स्थान छोड़ने के लिए आदेश रहता है। तब एक पंक्ति के कंपोज़ होने के बाद और दूसरी की कंपोज़िंग आरंभ करने के पहले धातु का चिपटा टुकड़ा डाल दिया जाता है, जिसे लेड कहते हैं। लेडों की मोटाई साधारणत: 3 पॉइंट (3/72 इंच) होती है। पंक्तियों के बीच अधिक स्थान की आवश्यकता होने पर दो-दो लेड डाल दिए जाते हैं। जिस कंपोज़िंग में पंक्तियों के बीच लेड नहीं डाला जाता उसे ठोस कंपोज़िग कहते हैं। स्मरण रहे कि देवनागरी के कुछ टाइपों में मात्राएँ टाइप के शरीर (बॉडी) से बाहर बढ़ी रहती हैं, इसलिए बिना लेड लगाए उनसे कंपोज़ करने पर मात्राएँ टूट जाती हैं। इस पुस्तक में कंपोज़िंग बारह पॉइंट के टाइप में ठोस की गई है; इसमें मात्राएँ टाइप के शरीर से बाहर नहीं बढ़ी हैं।

जब इतनी पंक्तियाँ कंपोज़ हो जाती हैं कि स्टिक प्राय: भर जाती है तब कुल कंपोज़ किए टाइपों को (जिसे मैटर कहते हैं) निकालकर एक छिछली तश्तरी में रख देते हैं। इस तश्तरी को गैली कहते हैं। गैली के तीन ओर लगभग आध इंच ऊँची, खड़ी दीवारें रहती हैं। गैली को कुछ तिरछा रखा जाता है जिसमें टाइप लुढ़कने न पाए। स्टिक से मैटर निकालते समय बड़ी सावधानी से उसे चारों ओर से अँगुलियों का सहारा देना पड़ता है जिसमें टाइप बिखरने न पाएँ।

जब स्वयं गैली लगभग भर जाती है, अथवा कंपोज़िंग समाप्त हो जाती है, तब टाइप को पुष्ट डोरी से बाँध दिया जाता है और टाइप पर स्याही का बेलन फेरकर एक प्रतिछाप ली जाती है। इस प्रतिछाप को प्रूफ या गैली प्रूफ कहते हैं। प्रूफ छापने का काम प्रूफ प्रेस में किया जाता है।

इस प्रूफ को कोई व्यक्ति सावधानी से पढ़ता है और सब अशुद्धियों पर चिह्न लगाकर लिखता चलता है कि क्या संशोधन करना चाहिए। मुद्रणालयों में जो व्यक्ति इस काम के लिए नियुक्त रहता है उसे प्रूफ संशोधक (प्रूफ रीडर) कहा जाता है। समय बचाने के लिए प्रूफ संशोधन में विशेष चिह्नों का प्रयोग किया जाता है।[1]

जब संशोधित प्रूफ कंपोज़िटर के पास आता है, तब वह मैटर को बाँधनेवाली डोरी खोल डालता है और प्रूफ पर अंकित अशुद्ध अक्षरों को मैटर से चिमटी द्वारा निकालकर केसों में यथास्थान रख देता है और उनके बदले शुद्ध अक्षर लगाता चलता है तथा अन्य आवश्यक संशोधन करता है। संशोधित मैटर को खंडों में बाँटकर पृष्ठों के अनुसार लगा दिया जाता है, पृष्ठ संख्या कंपोज़ कर दी जाती है और पृष्ठ का शीर्षक भी (जिसे फ़ोलियो कहते हैं) लगा दिया जाता है।

जब कहीं भी कोई अशुद्धि नहीं रह जाती तब मैटर मशीन विभाग को छापने के लिए सौंप दिया जाता है।

मशीन से कंपोजिंग

मशीन से कंपोज़िंग दो प्रकार से हो सकती है। एक में पूरी-पूरी पंक्तियाँ एक साथ टुकड़े में ढलती हैं; दूसरे में एक-एक अक्षर ढलते हैं। लाइन ढालनेवाली मशीनों के उदाहरण लाइनोटाइप और इंटरटाइप मशीनें हैं।इन मशीनों में प्रत्येक टाइप के लिए कई एक साँचे रहते हैं जिनको मैट्रिक्स कहते हैं। मशीन में चाभियों का समूह (कुंजीपटल) रहता है। एक चाभी (कुंभी) दबाने से उस चाभीवाला एक अक्षर उतरता है। चाभी दबाने का काम लगभग उसी प्रकार का होता है जैसे साधारण टाइपराइटर में, केवल छोटे और बड़े (कैपिटल) अँग्रेजी अक्षर सब कुंजीपटन पर अलग-अलग रहते हैं। जब पंक्ति लगभग पूरी हो जाती है तब एक मुठिया ऐंठी जाती है सब कंपोज़ किए हुए साँचे ढालने की स्थिति में आ जाते हैं और पंक्ति जस्टिफ़ाई हो जाती है, अर्थात्‌ लंबाई की कमी पूरी हो जाती है। प्रत्येक स्पेस दोहरा होता है और प्रत्येक आधा भाग, स्फान रूपी होता है। इसलिए दबने पर दोहरे स्पेस की सम्मिलित मोटाई बढ़ जाती है और इस प्रकार पंक्ति जस्टिफ़ाई हो जाती है। तब पिघली धातु साँचे के सामने डटे खोखले बक्स में भर जाती है, जिससे पंक्ति ढल जाती है। साँचे के कारण इस ढली पंक्ति के माथे पर कंपोज़ किए अक्षर बन जाते हैं। फिर मशीन में लगी छुरियाँ इस ढले छड़ को बगल और नीचे से नाम मात्र छील देती हैं, जिसमें मोटाई और ऊँचाई सच्ची हो जाए। तब ढली पंक्ति गैली में जा गिरती है। उधर साँचेवाले अक्षर मशीन के माथे पर पहुँच जाते हैं। उनकी पदी में ताले की चाभियों की भाँति दाँत बने रहते हैं। इनके कारण वे अपने-अपने घरों में जा गिरते हैं। इस प्राकर थोड़े से ही साँचों से बराबर काम होता रहता है।

इसमें अक्षरों के अनुसार कागज में पहले छेद किया जाता है। प्रत्येक शब्द के बाद स्पेसवाली चाभी दबाकर स्पेस लगाते हैं।

ऐसी मशीनों से कंपोज़िंग का काम बड़ी शीघ्रता से होता है। कड़ी धातु से बने रहने के कारण साँचे बहुत दिनों तक नए की भाँति बने रहते हैं, अत: उनसे ढला टाइप बहुत तीक्ष्ण रहता है और छपाई अच्छी होती है। समाचारपत्रों की छपाई में इस मशीन की विशेष उपयोगिता है, क्योंकि मैटर पंक्तियों में ढला रहता है जिससे उसके बिखरने का डर नहीं रहता। परंतु साथ ही यह असुविधा भी है कि कंपोज़िंग में कहीं अशुद्धि हो जाने से पूरी पंक्ति फिर से कंपोज़ करनी पड़ती है। फिर, कंपोज़िंग में एक दो शब्द छूट जाने से कई पंक्तियों को कम स्पेस लगाकर फिर से कंपोज़ करना पड़ता है जिससे छूटा हुआ शब्द यथास्थान लग सके।

मोनोटाइप

अलग-अलग टाइप ढालकर कंपोज़ करनेवाली मशीन अभी केवल एक कंपनी बनाती है। मशीन का नाम मोनोटाइप। वस्तुत: इसमें तीन पृथक मशीनों की आवश्यकता पड़ती है। एक मशीन तो पंप है जो हवा को संपीडित करके (दबाकर) एक टंकी में भरती रहती है। इस संपीडित वायु की आवश्यकता शेष दोनों मशीनों में पड़ती हैं। एक मशीन बहुत बड़े टाइपराइटर की तरह होती है जिसमें 225 या अधिक चाभियाँ रहती हैं। चाभी दबाने पर संपीडित वायु के बल से एक पंक्ति में लगी तीस सुइयों में से साधारणत: दो सुइयाँ उठती हैं जो एक पुलिंदे में से निकले कागज में दो छेद कर देती हैं (द्र. चित्र 12)। छेद होने का ढंग यह है कि कागज की टिकली कटकर निकल जाती है। प्रत्येक चाभी से छेद विभिन्न स्थानों में होते हैं। एक पंक्ति में दो छेद हो जाने पर कागज थोड़ा आगे बढ़ जाता है और तब दूसरी पंक्ति में छेद होते हैं।

दूसरी मशीन में अक्षर ढलते हैं। पहली मशीन से छेद किया कागज इस मशीन में चढ़ा दिया जाता है। कागज एक बेलन पर चिपक कर बैठता है और उसके ऊपर एक अर्धनलिका चपककर बैठती है। इस अर्धनलिका में संपीडित वायु आती रहती है। कागज के छेदों की कोई पंक्ति पूर्वोक्त बेलन के छेदों की पंक्ति पर आती है, तब कागज के दोनों छेदों में से संपीडित वायु बेलन के भीतर की दो नलिकाओं में घुसती है। बेलन के भीतर 30 नलिकाएँ रहती हैं और प्रत्येक का सिरा बेलन के एक छेद से संबद्ध रहता है। जब किसी नलिका में वायु घुसती है तो उसके दूसरे सिरे से संबद्ध खूँटी संपीडित वायु के बल से उठ जाती है। 15 खूँटियाँ एक पट्ट में से निकलती हैं; 15 एक अन्य पट्ट से। अक्षरों के साँचे 3 इंचव्3 इंच के फ्रेम में कसे रहते हैं (द्र. चित्र 13)। यह फ्रेम कमानी के बल से पूर्वोक्त खूँटियों से जा डटता है। मान लें, 15 खूँटियों का पहला समूह फ्रेम के ठीक उत्तर में है और दूसरा समूह ठीक पश्चिम में, तो अन्य फ्रेम नीचे लगे एक खाँचे के ठीक उत्तर चला जा सकता है और दक्षिण के खाँचे पर। फ्रेम और पहला खाँचा दोनों साथ ही पूरब-पश्चिम चल सकते हैं। जब फ्रेम उत्तर और पश्चिमवाली खूँटियों से जा डटेगा तब उसी अक्षर का साँचा पंप के मुँह पर पड़ेगा जिसके लिए कंपोज़ करते समय चाभी दबाई गई थी। अब एक कमानी साँचे को एक खोखले छेद पर दबा देगी (जिसकी चौड़ाई अक्षर की चौड़ाई के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है) और नीचे से पिघली धातु पंप द्वारा आकर ढल जाएगी। फिर मशीन स्वयं इस अक्षर को खींच ले जाएगी, दूसरा अक्षर ढलेगा, फिर अन्य अक्षर, और पंक्ति पूरी हो जाने पर एक हुक उसे खींचकर गैली में पहुँचा देगा। उधर फ्रेम ढीला होकर अपनी प्रस्थान स्थिति में पहुँच जाएगा और वहाँ से चलकर अन्य खूँटियों से जा डटेगा।

पंक्तियाँ सब पूरी नाप की (अर्थात्‌ जस्टिफ़ाई होकर) निकलती हैं। कारण यह है कि कंपोज़ करते समय पंक्ति लगभग पूरी होने पर कार्यकर्ता (ऑपरेटर) मशीन में लगे सूचक को देखकर समझ जाता है कि कितने मोटे स्पेसों के लगने पर पंक्ति होगी और वह उसी अनुरूप विशेष कुंजी को दबाता है। अक्षरों का ढालना उलटी ओर से आरंभ होता है, अर्थात्‌ अंतिम छेद का अक्षर पहले ढाला जाता है और जब किसी नई पंक्ति की ढलाई आरंभ की जाती है तो मशीन का एक पुरजा ऐसी स्थिति में आ जाता है कि दाबी गई चाभियों के अनुसार वांछित नाप के ही स्पेस उस पंक्ति में ढलते हैं।

साँचे कड़ी धातु के बने रहते हैं। इसलिए उनसे बहुत दिनों तक बढ़िया टाइप ढलता रहता है और छपाई बड़ी सुंदर होती है। असुविधा यही है कि देवनागरी के लिए इने-गिने प्रकार के ही साँचे मिलते हैं, यद्यपि अंग्रेजी के लिए सैंकड़ों आकार प्रकार के अक्षर ढल सकते हैं। (म.ला.जा.)

देवनागरी की कंपोज़िंग

देवनागरी की कंपोज़िंग में दो कारणों से विशेष कठिनाई पड़ती है :

  1. मात्राओं का ऊपर नीचे लगना;
  2. संयुक्ताक्षरों की बहुलता।

कंपोज़ करने की रीति से यह स्पष्ट है कि यदि टाइपों को किसी एक दूसरे की बगल में लगाना हो तभी कार्य सुगमता से हो सकता है। परंतु देवनागरी में इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, औ, अं, अँ, आँ, ऑ, की मात्राएँ (अर्थात्‌ , ी, ु, ू, ृ, े, ै, ो, ौ, ं, ँ, ाँ ॉ) और ( ्‌ ) ये अक्षरों के ऊपर तथा नीचे आवश्यकतानुसार मात्राएँ तथा स्पेस कंपोज़ किए जाते हैं, अर्थात्‌ एक पंक्ति शब्दावली कंपोज़ करने के लिए वस्तुत: पंक्तियाँ कंपोज़ करनी पड़ती हैं; एक में ऊपर लगनेवाली मात्राएँ तथा स्पेस, जैसा चित्र से स्पष्ट हैं। इस शैली में कुं या इसी प्रकार के अन्य मात्रायुक्त अक्षर कंपोज़ करने के लिए कम से कम तीन टुकड़े, और अक्षर से मात्राएँ छोटी होने पर मात्राओं को बीच में लाने के लिए चार अन्य स्पेसों (धातु के टुकड़ों) की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए ऐसी कंपोज़िंग में समय अधिक लगता है। 12 तथा 16 पॉइंट के अक्षरों में बंबइया शैली का प्रयोग प्राय: नहीं होता, क्योंकि उनमें मात्राओं को इतनी छोटी टुकड़ियों पर रखना पड़ता है कि उनको उठाना और स्टिक में बैठाना कठिन कार्य हो जाता है। (1 उ पॉइंट 1/72 इंच)।

12 तथा 16 पॉइंट के टाइपों के लिए साधारणत: 'अखंड' शैली का प्रयोग होता है। इसमें अक्षर और बार-बार आनेवाली मात्राएँ एक साथ ढली रहती हैं। उदाहरणत: टाइपों में क, कु, कू, कृ, के, कै अक्षर भी ढले मिलेंगे। परंतु इससे टाइपों की संख्या छह गुनी हो जाती है। इतना ही नहीं, जब इन मात्राओं के साथ अनुस्वार, रेफ आदि का भी प्रयोग करना पड़ता है जब ऐसे कु की आवश्यकता पड़ती है जिसके ऊपर अनुस्वार (बिंदी) लग सके। इसके लिए टाइप के माथे पर चूल कटा रहता है और बगल के नीचे से धातु कटी रहती है। इसी बगल में धातु का दूसरा टुकड़ा आ बैठता है। इस दूसरे टुकड़े में एक अंग एक बगल बिना पेंदी का सहारा पाए बढ़ा रहता है, जो प्रधान अक्षर की चूल पर जा बैठता है। चित्र से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। टाइप के मुखड़े के उस भाग को कर्न कहते हैं जो शरीर के बाहर बढ़ा रहता है ।

इस रीति से काम तो चल जाता है, परंतु अँग्रेजी की कंपोज़िग की तुलना में, जिसमें कहीं चूल नहीं बैठाना पड़ता और केवल इटैलिक एफ़ या जे में कर्न रहता है, देवनागरी की कंपोज़िंग के समय अधिक लगता है। फिर, बगल से बिठाई गई मात्राएँ बहुधा टूट जाती हैं। कारण यह है कि जहाँ प्रधान टाइप की चूल पर बगल से आकर मात्रा बैठती है वहाँ टाइपों की ऊँचाइयों में कुछ अंतर रह जाने से मात्रावाले टाइप का एक अंग बिना आधार का रह जाता है और छपाई के समय दाब पड़ने पर मात्रा कहीं भी न टूटी हो। गीता प्रेस (गोरखपुर) से छपी गीता में प्रशंसनीय प्रयत्न किया गया है कि कहीं अशुद्धि न होने पाए और जहाँ कहीं भी मात्रा टूट गई है अथवा कोई अन्य अशुद्धि हो गई वहाँ छपी पुस्तक में हाथ से संशोधन कर दिया गया है; परंतु इतनी सावधानी बरतने पर भी कहीं-कहीं मात्रा के कारण उत्पन्न हुई अशुद्धि (कम से कम मेरी प्रति में, जो एकादश संस्करण की है) रह गई है।

बगल से चूल बैठाने के कारण देवनागरी में पर्याप्त छोटे टाइप नहीं मिलते। अँग्रेजी में 4।। पॉइंट तक में, हाथ से कंपोज़ के लिए मैटर से, छपाई सुविधासहित हो सकती है और 3 पॉइंट तक का टाइप बनता है, परंतु हिंदी में 6 पॉइंट का टाइप भी अभी किसी ग्रंथ के छपने में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। कोश आदि की छपाई में इससे बड़ी कठिनाई पड़ती है। यदि हिंदी-शब्द-सागर, जिसमें 4,300 पृष्ठ हैं, 12 पॉइंट टाइप में लेडयुक्त छपने के बदले 6 पॉइंट ठोस में छप सकता तो कुल सामग्री 800 पृष्ठों में ही आ जाती और इसका मूल्य भी पंचमांश हो जाता है। इससे हिंदी की जो सेवा होती उसकी कल्पना पाठक स्वयं कर सकते हैं। कोश आदि लगातार घंटों तक नहीं पढ़े जाते; दो चार मिनट में काम चल जाता है। इसलिए कोश के छोटे टाइप से आँखों पर विशेष बल नहीं पड़ता। बेब्स्टर के प्रसिद्ध अँग्रेजी कोश में अधिकतर 5 पॉइंट का टाइप व्यवहृत हुआ है जिससे एक इंच मेें 14 पंक्तियाँ आ जाती हैं। यदि यह भी हिंदी विश्वकोश की भाँति 12 पॉइंट में लेडयुक्त छपता तो दो जिल्दों के बदले यह उतनी ही बड़ी तथा उतनी ही मोटी 14 जिल्दों में संपूर्ण होता।

संयुक्त अक्षरों से कठिनाई

देवनागरी में संयुक्त अक्षर बनाने की दो रीतियाँ हैं। एक रीति में अक्षर को आधा करके उसकी बगल में समूचा रख दिया जाता है; दूसरी में अक्षर एक के नीचे एक लिखे जाते हैं। उदहारणार्थ :

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:-

की तुलना

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जय:

से करें। दूसरी पंक्ति में ञ्ा के नीचे च तथा ज हैं। इस पद्धति के ऊपर लिखा आधा अक्षर (अर्थात्‌ हल्‌) और नीचे लिखा अक्षर पूरा समझा जाता है।

देवनागरी के जिन अक्षरों में दाहिनी ओर खड़ी रेखा है उनका आधा बनाना सरल है; केवल खड़ी रेखा छोड़ दी जाती है। इस प्रकार हमें ख् , ग्, ध् , च् , ज्, ञ् , ण्, त्, थ् , ध् , न् , प् , ब् , भ् , म् , य् , ल् , व् , श् , ष् , स् , मिल जाते हैं। शेष अक्षरों में से क, झ, फ, ह की दाहिनी आरेवाली टाँग को सीधी और छोटी कर देने से काम चल जाता है, यथा क्, झ्, फ्, ह्‌। इनमें से अंतिम अर्थात्‌ ह का आधा रूप, हाल ही में चला है; इसे संभवत: मोनोटाइपवालों ने चलाया है। अब बच जाते हैं 10 अक्षर : ङ, छ, ट, ठ, ड, ड़, ढ, ढ़, द तथा र। इनके आधे बनाने की कोई सुगम रीति नहीं निकल पाई है, यद्यपि आवश्यकता पड़ने पर हल्‌ लगाकर काम चला ही लिया जाता है। उत्तर प्रदेश की नागरी लिपि सुधार समिति (1954) ने तो सुझाव दिया था कि जहाँ कही इन अक्षरों के आधे का कम पड़े वहाँ हल्‌ से काम लिया जाए, परंतु जनता के एक महत्वपूर्ण अंग को यह बात पसंद नहीं आई।

जब पूर्वोक्त अक्षरों का आधा बन नहीं पाता, और हल्‌ का प्रयोग पसंद नहीं होता, तब अक्षरों को ऊपर नीचे लिखने की प्रथा अपनानी पड़ती है। ये संयुक्ताक्षर कहलाते हैं। उदाहरण के लिए द पर विचार करें। आधे द के बाद क, ख, ग आदि में जो अक्षर आ सकते हैं उनमें से प्रत्येक के लिए पृथक संयुक्त अक्षर काटाइप रखना पड़ता है। उदाहरणार्थ

श्रीमद्भगवद्गीता

देखिए, इनमें द्भ और द्ग ये टाइप द तथा भ अथवाद और ग के टाइपों को जोड़ने से नही बने हैं। इनके लिए पृथक टाइप रहते हैं। इसी प्रकार द्ध, द्द, द्म, द्य, द्र, द्व के भी टाइप रहते हैं। सच पूछिए तो कई एक अन्य संयुक्त टाइप भी चाहिए जिसमें द आधा और परवर्ती अक्षर पूरा रहे, परंतु झंझट कम करने के लिए वहाँ द् से काम चला लिया जाता है। फिर, उन संयुक्त अक्षरों के टाइपों में, जो बने हुए रखे जाते हैं, बहुधा उ, ऊ, ए, ऐ की मात्राएँ भी लगानी पड़ती हैं। चाहिए तो मात्रायुक्त भी अखंड टाइप, परंतु साधारणत: पूर्वोक्त मात्रारहित संयुक्तक्षरों में चूल कटे टाइप भी रहते हैं और बगल से मात्राएँ लगा दी जाती हैं। ङ, छ, ट, ठ, ड, ढ, तथा ड़, ढ़, ह के लिए ये ही बातें लागू हैं। कुछ संयुक्त टाइप रहते हैं, अन्य स्थानों में हल्‌ से काम चलता है; मात्राएँ लगानी होती हैं तो चूल कटे टाइपों से काम चलाया जाताहै; कुछ संयुक्ताक्षर ऐसे भी हैं जो आधे अक्षरों से बन सकते हैं, परंतु उनका कोई विशेष रूप भी प्रचलित है, जैसे त्त, झ, ह्म, क्त, क्ष, र का स्थान निराला है। आधा र रेफ कहलाता है और अक्षरों के ऊपर लगता है, यथा धर्म। यहाँ भी वस्तुत: र्म के लिए अखंड टाइप होता तो अच्छा होता; तब रेफ के टूट जाने का डर नहीं रहता। परंतु कितने संयुक्त अक्षरों और मात्रासहित संयुक्त अक्षरों के टाइप रखे जाएँ? यदि कोई प्रण कर ले कि एक भी चूल कटा अक्षर न रखा जाएगा और कोई भी संयुक्त हक्षर हल्‌ से न बनाया जाएगा तो संभवत: इतने टाइप हो जाएँगे कि प्रचलित चार केसों के बदले 20 केसों में टाइप भरने की आवश्कता पड़ जाएगी। इसे कोई अतिशयोक्ति न समझे, क्योंकि साधारण व्यंजनों के अतिरिक्त बिंदीयुक्त व्यंजन भी हैं (जैसे क़, ख़, ग़्ा इत्यादि) और मात्राएँ केवल उतनी ही नहीं जितनी ऊपर गिनाई गई हैं और न संयुक्ताक्षर उतने ही हैं जिनके लिए ऊपर संकेत किया गया है। दो मात्राएँ एक साथ आ सकती हैं और रेफ के साथ भी। संयुक्ताक्षर तीन अक्षरों के मेल से भी बनते हैं। साधारणत: मात्राओं में निम्नलिखित मेल रखे जाते हैं :

ा ी ु ू े ै ो ौ ं ँ : ां ाँ ' ीं ं ँ ं ें ैं ों ौं र् ार् र्ि ीर् र् ं ु ू ेर् ै र् ोर् ौर् , ँ ार् र् ी र् ं ु ू ेर् ै र् ोर् ृ ृर् ॉ

और इन सब का उपयोग चूल कटे अक्षरों के साथ होता है।

र का रूप पहले ा तथा। अब भी देहातों में बनियों की दूकानों पर ग्राम 1 में र का प्राचीन रूप मिलता है। ट्र के नीचे लगा र भी इसी रूप का एक अंश है। मेरा अनुमान है कि द्रुत गति से लिखने में ग्र की बाईं टाँग छोटी होती गई और दाहिनी तिरछी तथा बड़ी, और इस प्रकार इसी अक्षर ने र रूप धारण कर लिया। यदि यह अनुमान अशुद्ध हो तो भी कोई हानि नहीं। इतना निर्विवाद है कि ग्र का प्राचीन रूप अब भी संयुक्त रूप से लगा हुआ है। इसी प्रकार ग्र, ्घ्रा इत्यादि अक्षरों में भी। ट्र में तो यह स्पष्ट ही पहचाना जा सकता है। प्रश्न यह है जब ग्र बदलकर र हो गया है तो क्यों न हम नवीन रूप का ही प्रयोग सर्वत्र करें। क्यों न हम अब प्रसाद को प्रसाद लिखें, क्रम को क्रम। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, प्रसाद आदि के प्रचलित न होने का कारण यह है कि टाइपवालों के पास साँचा बना है, वे क्र, ग्र, ्घ्रा इत्यादि ढालते चले आए हैं। इसलिए जब उनसे सब प्रकार का टाइप इकट्ठा मँगाया जाता है तो उसमें ग्र, ग्र आदि भी रख देते हैं। जब टाइप आ जाता है तो कंपोज़िटर भी उनका प्रयोग करने ही लगता है। फिर पाठक बचपन से क्र, ग्र, ्घ्रा, . . . देखते हाए हैं। उन्हें क्र, ग्र, घ्र, . . . खटकते हैं, यद्यपि वे भाषा के नियमों से पूर्णतया शुद्ध हैं। परिणाम यह होता है कि परिणाम ढर्रा चला चलता है और कंपोज़िटरों के केसों में क्रे, ग्रे, ्घ्रो . . . के लिए भी घर रखना पड़ता है, एक सादा, एक चूल कटा, क्योंकि इन संयुक्ताक्षरों पर मात्राएँ बहुधा लगानी पड़ती हैं।

कुछ संयुक्ताक्षर बेकार ही प्रचलित हैं, क्योंकि उनके बदले आधे अक्षर से बने संयुक्ताक्षर का प्रयोग सुगमता से हो सकता है। कुछ उदाहरण गीता प्रसे की गीता में दिए जा रहे हैं, और प्रत्येक के नीचे उनका सरलीकृत रूप भी दिखलाया जा रहा है।

त्त न्न श्व क्त

च्च श्च ष्ट्व ष्ट्वा ष्ट त्त न्न श्व क्त प्त

ह्य

ञ्च ष्ट्र ह्य क्न घ्न ज्ज स्त्र ग्न

ब्रह्मविद्ब्रह्माणि भुंक्ते पुंगव शंख कांक्षे

सुगम छपाई के लिए लिपि में सुधार

यह सर्वमान्य है कि हमारी नागरी लिपि अन्य लिपियों की तुलना में बहुत वैज्ञानिक है। परंतु इसमें कुछ त्रुटियाँ भी हैं। एक तो यह कि सभी इकारांत शब्दों के उच्चारण में इ का उच्चारण अंत में होता है, परंतु मात्रा लिखी जाती है पहले, जैसे बुद्धि। बुद्धि के उच्चारण में स्पष्टतया पहले बुद् का उच्चारण होता है, फिर जिह्वा ध्‌ के स्थान पर जाती है और अंत इ से मिलकर उसका उच्चारण होता है; परंतु प्रचलित शैली में इ की मात्रा पहले लिखी जाती है। इकारांत कहने से ही बोध होता है कि इ अंत में है। इसी विचार से नागरी लिपि सुधार समिति (लखनऊ, 1954) ने प्रस्तावित किया कि इ की मात्रा भी अक्षरों के दाहिनी ओर लिखी जाए। परंतु नागरी लिपि सुधार समिति (लखनऊ, 1956) ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया, क्योंकि यह जनता को पसंद नहीं था और उनका कहना था कि ग्े तथा ो में विशेष अंतर न होने से अंततोगत्वा भाषा भ्रष्ट हो जाएगी। यद्यपि अँग्रेजी लिखने में a तथा ड्ड का भेद केवल खड़ी रेखा की लंबाई पर निर्भर है, और प्रस्तावित शैली में ह्रस्व मात्रा को बहुत छोटी और दीर्घ मात्रा को बहुत लंबी बनाना भी संभव था, यथा

की री टी

किंतु इस झगड़े को फिर उठाना बेकार है। परंतु यदि ह्रस्व इ की मात्रा को दाहिनी ओर लाया जा सकतातो बगल से लगनेवाली निम्नलिखित मात्राएँ और मात्रायुक्त रेफ, अनुस्वार आदि, जो बहुत दुर्बल होते हैं और शीघ्र ही टूटते हैं, दाहिनी ओर जाकर पुष्ट हो जाते :

र्ि र्ि

परंतु इससे कहीं अधिक सुधार यह है कि , ी, ु , ू , ,े ,ै ो, ौ, ं का रूप थोड़ा बदल दिया जाए और उनको अक्षरों की बगल में इस प्रकार लगाया जाए कि चूल कटे अक्षरों की आवश्यकता न पड़े और कहीं भी किसी मात्रा का कोई अंग किसी अक्षर के किसी अंग पर चढ़ा न रहे। लाइनोटाइप वालों ने ऐसा सुधार किया है। उनकी मशीन से हिंदी की कंपोज़िंग 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' वाले अपनी पत्रिका में करते हैं। एक बानगी नीचे दी जाती है :

इसमें संदेह नहीं कि यह पर्याप्त सुपाठ्य है, परंतु इसमें उन्नति की जा सकती है, विशेषकर मात्राओं के रूप में, जिसमें ए तथा की मात्राओं के ऊपरी भाग सदैव परस्पर समांतर रहें। फिर, एक दो अक्षर कुछ विशेष सुंदर बनाए जा सकते हैं।

हाथ की कंपोजिंग में लाइनोटाइप में की परिपाटी पर बने अक्षरों के प्रयोग से बहुत कुछ समय और पूँजी की बचत हो सकती है। मुद्रकों, टाइप डिज़ाइन करनेवालों और टाइप ढालनेवालों को इधर ध्यान देना चाहिए। जनता को भी सुधरे टाइपों को अपनाना चाहिए, क्योंकि इससे अधिक शुद्ध पठनीय सामग्री उनको मिला करेगी, छपाई कुछ सस्ती हो जाएगी और छोटे अक्षरों के प्रयोग से कोश आदि अधिक छोटे, हल्के और सस्ते दाम में मिल सकेंगे।

हिंदी साहित्य सम्मेलन ने अपने एक प्रस्ताव द्वारा सुझाव दिया था कि छोटे टाइपों के लिए अक्षरों की शिरोरेखा वैकल्पिक रहे, अर्थात्‌ यदि मुद्रक चाहे तो बिना शिरोरेखा के अक्षरों का उपयोग करे। ऐसे अक्षरों से छह पॉइंट की ठोस छपाई हो सकती है

एक काम जो प्रत्येक मुद्रक बिना पैसा कौड़ी खर्च किए कर सकता है यह है कि वह ऐसे संयुक्ताक्षर का टाइप कभी भी मोल न ले जो किसी आधे अक्षर से बन सकता है। इसके अतिरिक्त जहाँ हल्‌ का लगाना अनुपयुक्त न जान पड़े वहाँ अनिवार्य रूप से हल्‌ से ही काम चलाए। ऐसा उन सब जगहों में किया जा सकता है जहाँ उच्चारण में स्वाभाविक रुकावट आ सकती है, जैसे 'श्रीमद्भगवद्गीता' छापने में।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्र. 'प्रूफ संशोधन'
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 351 |

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