कालिदास की अलंकार-योजना

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कालिदास की अलंकार-योजना
पूरा नाम महाकवि कालिदास
जन्म 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईसवी के मध्य
जन्म भूमि उत्तर प्रदेश
पति/पत्नी विद्योत्तमा
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र संस्कृत कवि
मुख्य रचनाएँ नाटक- अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्; महाकाव्य- रघुवंशम् और कुमारसंभवम्, खण्डकाव्य- मेघदूतम् और ऋतुसंहार
भाषा संस्कृत
पुरस्कार-उपाधि महाकवि
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अन्य जानकारी कालिदास शक्लो-सूरत से सुंदर थे और विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में एक थे। लेकिन कहा जाता है कि प्रारंभिक जीवन में कालिदास अनपढ़ और मूर्ख थे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

कालिदास के काव्यों में शब्दालंकारों का प्रयोग अपेक्षाकृत कम मिलता है। यद्यपि यत्र - तत्र सानुप्रासिक पदावली दिखायी देती है, किंतु उतनी ही मात्रा में जितनी कि काव्यप्रवाह में अत्यंत स्वाभविक रूप से उपनिबद्ध हो गयी है। यथा-

जीवंपुन: शश्वदुपप्लवेभ्य: प्रजा: प्रजानाथ पितेव पासि[1]

  • अन्य शब्दालंकारों में बुद्धि विलास होने के कारण महाकवि की रुचि नहीं दिखाई देती। यही कारण है कि उनके काव्यों में यमक, श्लेष आदि के प्रयोग नगण्य हैं।
  • कवि ने अर्थालंकारों का पर्याप्त प्रयोग किया है। अर्थालंकारों में भी उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अर्थांतरन्यास आदि अलंकारों का बाहुल्य है। इनमें भी समीक्षकों ने कवि की उपमा को सर्वश्रेष्ठ कहा है- 'उपमा कालिदासस्य'। कुछ लोग उपमा से उपमालंकार का तो कुछ लोग सादृश्यमूलक अलंकार का अर्थ ग्रहण करते हैं। वस्तुत: कवि की उपमा का विन्यास जितना सुन्दर होता है, रूपक, उत्प्रेक्षा दृष्टांत, अर्थांतरन्यास आदि का उससे कम नहीं। अत: 'उपमा' से सादृश्मूलक अर्थालंकार अर्थ ग्रहण करना ही उचित है। कवि के अनेक अर्थांतरन्यास सूक्ति के रूप में प्रसिद्ध हैं। अर्थांतरन्यासों की इसी लोकप्रियता से प्रभावित किसी समीक्षक का कथन है-

उपमा कालिदासस्य नोत्कृष्टेति मतं मम।
अर्थांतरन्यासविन्यासे कालिदासों विशिष्यते॥

  • चाहे उपमा का प्रयोग हो या अर्थांतरन्यास का अथवा किसी अन्य अलंकार का, सभी काव्य में विशेष चमत्कार उत्पन्न करते हैं। विशेष रूप से उपमा का प्रयोग तो आद्वितीय है। उनकी उपमायें कहीं-कहीं यथार्थ हैं तो कहीं शास्त्रीय और कहीं आध्यात्मिक। वे उपमाओं के कुशल शिल्पी हैं। रघुवंश के प्रथम पद्य में कवि ने शिव और पार्वती के सम्बन्ध की उपमा शब्द और अर्थ के सम्बन्ध से दी है-

वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरी॥

  • सम्भव है, 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्' इस काव्यलक्षण की प्रेरणा आचार्यों को इसी उपमा से मिली हो। महाराजा दिलीप नन्दिनी के साथ सायंकाल जब लौटते हैं तो स्वागतार्थ सुदक्षिणा आगे आती है तब सुदक्षिणा एवं दिलीप के मध्य नन्दिनी ऐसे शोभित होती है जैसे दिन और रात्रि के बीच सन्ध्या सुशोभित होती है।[2]
  • तेजस्वी राजा दिलीप की दिन से, नन्दिनी की लालिमायुक्त सन्ध्या से तथा श्यामवर्णा सुदक्षिणा की रात्रि से उपमा सटीक तथा मनोहर है। रघुवंश के इन्दुमती स्वयंवर में इन्दुमती की दीपशिखा से दी गयी उपमा इतनी प्रसिद्ध हो गयी कि कवि का नाम ही 'दीपशिखा-कालिदास' पड़ गया। इन्दुमती जिन-जिन राजाओं को छोड़कर आगे बढ़ती जाती थी, उनका मुँह उदास पड़ता जाता था जैसे राजमार्ग के वे- वे भवन जो दीपक के आगे बढ़ जाने पर धुँधले पड़ते जाते हैं-

सञ्चारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीताय पतिंवरा सा।
नरेन्द्रमार्गाट्ठ इव प्रपेदे, विवर्णभावं स स भूमिपाल:॥[3]

मेघदूत महाकाव्य

मेघदूत में उपमा का प्रयोग तो श्लाध्य है ही, किंतु वहाँ उत्प्रेक्षा का बाहुल्येन प्रयोग है। मेघ के रामगिरि से अलकानगरी की ओर प्रस्थान करने पर मार्ग में पड़ने वाले नगरों, पर्वतों एवं नदियों मे मेघ के सम्पर्क से कैसी अपूर्व शोभावृद्धि होती है, कवि ने उत्प्रेक्षा के माध्यम से चित्रित किया है। कृष्णवर्ण मेघ जब विश्राम करने के लिये पके आम्रवृक्षों से घिरे हुए आम्रकूट पर्वत पर बैठेगा तो पृथिवी के स्तन जैसी दिखायी देने वाली यह शोभा देवताओं के द्वारा देखने योग्य होगी- छन्नोपांत: परिणतफलद्योतिभि: काननाम्रै-

स्त्वय्यारूढे शिखरमचल: स्निग्धवेणी सवर्णे।
नूनं यास्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्थां
मध्ये श्याम: स्तन इव भुव: शेषविस्तारपाण्डु:॥[4]

  • इसी प्रकार मेघ जब चर्मण्वती नदी से जलग्रहण करने के लिये झुकेगा तो आकाशस्थ देवताओं को दूर से ऐसा प्रतीत होगा मानों पृथिवी के मुक्ताहार के म्ध्य में इन्द्रनीलमणि पिरों दिया गया हो-

प्रेक्षिष्यंते गगनगतयो नूनमावर्ज्य दृष्टी-
रेकं मुक्तागुणमिव भुव: स्थूलमध्येन्द्रनीलम्॥[5]

  • उक्त दोनों ही उपमाओं में कवि ने ऊँचाई से पृथ्वी के किसी दृश्य को देखने पर उसकी जो छवि प्रतिभासित होती है, उसे अद्भुत कल्पनाशीलता से प्रस्तुत किया है।
कुमारसम्भव

कुमारसम्भव में कवि ने कामदेव के प्रभाव से शंकर के मन में उठे विकार की बड़ी ही सटीक उपमा दी है। जिस तरह चन्द्रमा के उदित होने पर समुद्र में ज्वार आ जाता है, उसी प्रकार पार्वती को देख लेने पर शंकर के मन में हलचल होने लगी और उन्होंने अपने नेत्र पार्वती के बिम्बाफल सदृश अधरोष्ठों पर गड़ा दिये-

हरस्तु किञ्चित् परिलुप्तधैर्यश्चन्द्रोदयारम्भ इवाम्बुराशि:।
उमामुखे बिम्बफलाधरोष्ठे व्यापारयामास विलोचनानि॥[6]

  • उपमा के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि कालिदास की उपमा बाणभट्ट प्रभृति कवियों की भाँति श्लेषानुप्राणित नहीं है फलत: पाठकों को अर्थावबोध में क्लिष्टमा का सामना नहीं करना पड़ता।
  • महाकवि के काव्यों में अर्थांतरन्यास का भी पर्याप्त प्रयोग हुआ है। ऐसे स्थल सूक्तियों के निदर्शन हैं, जहाँ कवि ने साररूप में अपना लौकिक अनुभव व्यक्त किया है। मेघ तो धूल, अग्नि, जल और वायु का सम्मिश्रण है, अचेतन है और सन्देश तो कुशल इन्द्रियों वाले लोग ही ले जा सकते हैं फिर भी उत्सुकतावश यक्ष ने मेघ से प्रार्थना की, क्योंकि कामपीडित लोगों को चेतन-अचेतन का ध्यान नहीं रहता-

इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे।
कामार्त्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतननेषु॥[7]

  • यहाँ विशेष का एक लोकसामान्य तथ्य से समर्थन किया गया है। इसी प्रकार कुमारसम्भव का प्रसिद्ध श्लोक-

अनंतरत्नप्रभवस्य यस्त्र हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम्।
एको हि दोषों गुणसन्नितीन्दो: किरणेष्विवाङ्क:॥[8]

  • असंख्य रत्न उत्पन्न करने वाले हिमालय की शोभा हिम के कारण कम नहीं हुई, क्योंकि जहाँ बहुत से गुण हों वहाँ एक दोष उसी तरह से नहीं दिखाई देता जैसे चन्द्रमा के किरणों में कलंक।
  • महाकवि ने उपर्युक्त अलंकारों के अतिरिक्त अतिशयोक्ति, सहोक्ति, सन्देह, विभावना, अर्थापत्ति, परिणाम, समासोक्ति, परिकर, उदात्त, काव्यलिङ्ग, निदर्शना, विशेषोक्ति आदि का भी सुन्दर प्रयोग किया है। कहीं-कहीं एक पद्य में अनेक अलङ्कारों का सङ्कर अथवा संसृष्टि भी दिखायी देती है।
  • कालिदास ने अपनी विराट कल्पना और सौन्दर्यदृष्टि के द्वारा सारे भारत की अपार सुषमा तथा इस देश की वसुन्धरा के प्रतिक्षण परिवर्तमान अपूर्व रूप से पूरी गत्यात्मकता के साथ साक्षात्कार कराया है। उनके अप्रस्तुत विधान में रंगों की परख के साथ रंगों के मिश्रण से उत्पन्न छटाओं को शब्दचित्रों में साकार कर दिया गया है। रघुवंश के तेरहवें सर्ग में पुष्पक विमान से लौटते हुए राम के द्वारा लंका से अयोध्या तक के तीर्थस्थलों, नदियों, पर्वतों और रमणीय प्रदेशों का वर्णन इस दृष्टि से बड़ा मनोरम है। प्रयाग में गंगा - यमुना के संगम का चित्र है-

क्वचित् प्रभालेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिरिवानुविद्धा।
अन्यत्र माला सितपङ्कजानामिन्दीवरैरुत्खचितांतरेव।।
क्वचित् खगाना प्रियमानसानां कादम्बसंसर्गवतीत पङक्ति:।
अन्यत्र कालागुरुदत्तपन्ना भक्तिर्भुवश्चन्दनकल्पितेव॥
क्वचित् प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छायाविलीनै: शबलीकृतेव।
अन्यत्र शुभ्रो शरदभ्रलेखा रन्ध्रेष्षिवालक्ष्यनभ: प्रदेशा॥
क्वचिच्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माङ्गरागा तनुरीश्वरस्य।
पश्यानवद्याङगि विभाति गङ्गा भिन्नप्रवाहा यमुनातरङ्गै:॥[9]

  • कही तो प्रभाओं में लिपटे इन्द्रनीलमणियों में गुंथी सफेद मोतियों की लड़ी सी, कहीं सफेद कमलों की उस माला के जैसी जिसमें बीच-बीच में नीलकमल गुंथे हों, कहीं कादम्ब पक्षी के साथ उड़ते राजहंसों की कतार के समान, तो कहीं धरती पर चन्दन से बनी भक्ति-रेखा के समान जिसमें काले अगरु की थाप दी गयी हो, कहीं चन्द्रमा की प्रभा के समान, जिसमें छाया में दुबका अंधेरा मिला हुआ हो, तो कहीं शरद के स्वच्छ मेघों की कतार सर्प के आभूषण से युक्त शिव की देह के समान-इस प्रकार यमुना के तरंगों से भिन्न प्रवाह वाली यह गंगा सुशोभित हो रही है। यहाँ कवि ने गंगा की शुभ्रता और यमुना के नील वर्ण के सम्मिश्रण के लिये उपमानों की जो माला गूंथी है, वह संगम के दृश्य के सर्वथा अनुरूप है।
  • इसी प्रकार कालिदास अपने वर्ण्यविषय की अपूर्वता का अनुभव देने के लिये कहीं उपमानों को एक दूसरे से जोड़ देते हैं, तो कहीं किसी प्रचलित उपमान में अपनी ओर से कोई विशेषता जोड़ कर उसे प्रस्तुत करते हैं। पार्वती के ओठों पर थिरकती मुस्कान की तुलना किस वस्तु से हो सकती है? यदि फूल को प्रवाह (मूंगे) पर रखा जाय, या सफेद मोती को विद्रुम मणि पर तो उसमें शुभ्र स्मित का वे अनुकरण कर सकते हैं-

पुष्पं प्रवालोपहितं यदि स्यान्मुक्ताफलं वा स्फुटविद्रुमस्थम्।
ततोस्नुकुर्याद् विशदस्य तस्यास्ताम्रौष्ठपर्यस्तरुच: स्मितस्य॥ [10]

  • कहीं कालिदास नैसर्गिक पदार्थों को मनुष्य जगत् के उपादानों या अलंकरणों से उपमित करते हैं, तो कहीं मनुष्य के लिये वे नैसर्गिक उपमान लाते हैं। यक्ष के भवन के बाहर पक्षियों के बैठने के लिये सोने की वासयष्टि है, जो नीलम मणियों से जुड़ी हुई है। कवि ने यहाँ मणि के लिये उपमान दिया है- 'अनतिप्रौढवंशप्रकाशै:'- हरे बाँस की कांति वाले। कहीं कालिदास वर्ण्य की चेष्टा, गति और आकृति को साकार करते हुए उपमान में भी तदनुरूप चेष्टा, गति आदि का अपनी कल्पना से आधान कर देते हैं। पार्वती लता मात्र न होकर 'सञ्चारिणी पल्लविनी लता' है। इन्दुमती भी संचारिणी दीपशिखा है। यौवन के आगमन पर पार्वती का देह चतुरस्त्र शोभा से युक्त हो जाता है, जैसे चित्र के खाके में तूलिका से रंग भर दिये गये हों, या कमल सूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर खिल उठा हो- ऐसे नवयौवन ने उनके देह में बांकापन ला दिया-

उन्मीलितं तूलिकयेव चित्रं सूर्यांशुभिर्भिन्नमिवारविन्दम्।
बभूव तस्याश्चतुरस्त्रशोभि वपुर्विभक्तं नवयौवन॥[11]

  • कालिदास काव्यरचना में समाधिगुण की अभिव्यक्ति के साथ प्राय: अछूते उपमान उठा कर लाते हैं। ये उपमान उनकी मौलिकता और प्रतिभा के नवोन्मेष का अनुभव कराते हैं। इन्दुमती के दिवंगत होने पर अज का हृदय शोक से ऐसे ही विदीर्ण हो गया, जैसे छत पर फूट आये प्लक्ष के पेड़ से छत दरक जाती है।[12] कैकेयी के मुख से दो वरदानों की बात ऐसे ही निकली, जैसे वर्षा होने पर धरती में बिल से दो साँप बाहर आये हों।[13]
  • कालिदास के अप्रस्तुत विधान में मानव स्वभाव तथा प्रकृति का सूक्ष्म पर्यवेक्षण, नवीन परिकल्पनाएं, सौन्दर्य-दृष्टि तथा गहन संवेदनशीलता ने उनकी कविता को अतिशय सम्पन्न बना दिया- इसमें कोई सन्देह नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रघुवंश महाकाव्य 2.48
  2. दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या॥ रघुवंश महाकाव्य 2.20
  3. 6.67, रघुवंश महाकाव्य
  4. 1.18, मेघदूत महाकाव्य
  5. 1.50, मेघदूत महाकाव्य
  6. 3.67, कुमारसम्भव
  7. 1.5
  8. 11.3
  9. रघुवंश, 13.54-57
  10. कुमारसम्भव 1.44
  11. कुमारसम्भव, 1.32
  12. रघुवंश 8।93
  13. रघुवंश,12।5

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