किण्वन

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किण्वन [1] फर्मेण्टेशन लैटिन शब्द [2] से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है उबलना। बाद में आलंकारिक ढंग से इस शब्द का प्रयोग अंगूर के रस के फेनिल होने के लिए किया जाने लगा। अत: हिंदी शब्द किण्वन भी इसी के लिए प्रयुक्त होता है।

अत्यंत प्राचीन काल से मनुष्य ऐल्कोहलीय किण्वन से परिचित था। सन्‌ 1857 में फ्रांस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक लुई पास्तुर ने इसकी वैज्ञानिक रीति से खोज की। उसने देखा कि दूध का किण्वन कतिपय सूक्ष्म जीवाणुओं की ही उपस्थिति में संभव है तथा इन जीवाणुओं को दूर रखने पर यह संभव नहीं हो सकता। अत: उसने निष्कर्ष निकाला कि किण्वन ऐसी क्रिया है जो जीवाणुकोषों पर, विशेषत: यीस्ट कोशों पर निर्भर होती है। सन्‌ 1875 में उसने यह भी ज्ञात किया कि किण्वन आक्सिजन की अनुपस्थिति में भी संभव है। अत: किण्वन की परिभाषा आक्सिजन रहित जीवन कहकर की गई। सन्‌ 1897 में बुकनर ने यीस्ट कोशों को बालू के साथ पीसकर उनका सार निकाला, जिसमें शर्करा विलयन को विघटित करने की वैसी ही क्षमता थी जैसी जीवित यीस्ट कोशों में। सन्‌ 1905 में हार्डेन तथा यंग ने यह ज्ञात किया कि फॉस्फेटों की उपस्थिति में किण्वन अधिक सुगमता से होने लगता है, क्योंकि कार्बन डाइआक्साइड गैस अधिक मात्रा में देर तक निकलती रहती है। बाद में रॉबिन्सन, न्यूबर्ग, मेयरहॉफ़ आदि ने किण्वन संबंधी अनेक शोधे कीं। हार्डेन और यंग ने यह भी ज्ञात किया कि यदि यीस्ट के सार को अपोहित किया जाए तो वह अपनी सक्रियता खो देता है, जिससे यह ज्ञात हुआ कि निष्कर्ष में किण्वज (Enzyme) के अतिरिक्त सहकिण्वज (Coenzyme) भी होता है।

अत: किण्वन की निम्नलिखित परिभाषा दी जा सकती है :

कार्बोहाइड्रेट तथा तत्संबंधी यौगिकों के निर्वात विच्छेदन द्वारा ऐसे पदार्थों की प्राप्ति जो आक्सिजन के प्रभाव को छोड़कर किण्वजों या जीवकोषों के द्वारा और अधिक विघटित न हों, किणवन कहलाती है। यह मूलत: वायु की अनुपस्थिति में होता है और जीवाणु इस प्रक्रिया में प्रमुख भाग लेते हैं।

किण्वन में मूल यौगिक के खंड-खंड हो जाते हैं, तथा 1 अणु ग्लूकोस से 2 अणु ऐल्कोहल तथा 2 अणु कार्बन डाइआक्साइड अथवा 2 अणु लैक्टिक अम्ल प्राप्त हो सकते हैं, परंतु यदि आक्सिजन की उपस्थिति में ग्लूकोस का उपचयन होता है तो 6 अणु पानी तथा 6 अणु कार्बन डाइआक्साइड बनते हैं और किण्वन से अधिक ऊर्जा मुक्त होती है। पास्तुर ने यह दिखलाया कि आक्सिजन की उपस्थिति में यीस्ट की सक्रियता मंद पड़ जाती है और तब वातीय उपचयन होने लगता है। इस प्रभाव को पास्तुर घटना या प्रभाव कहते हैं।

जीवाणुओं द्वारा प्रेरित किण्वन क्रियाएँ कई प्रकार से वर्गीकृत की जाती हैं :

1. प्रयुक्त माध्यम के अनुसार, यथा कार्बोहाइड्रेट प्रोटीन या वसा का किण्वन; 2. कृषिजन्य पदार्थों अथवा औद्योगिक सहजातों पर जीवाणुओं की अभिक्रिया के अनुसार, यथा अन्न, आलू, इक्षु, शर्करा, शीरा, चाय आदि का किण्वन; 3. उत्पन्न मुख्य यौगिकों के आधार पर, यथा ऐल्कोहलीय या लैक्टिक किण्वन; 4. वायु की उपस्थिति या अनुपस्थिति के अनुसार, यथा वातीय अथवा निर्वात किण्वन; 5. जीवाणुओं के उद्भव एवं उनकी विशुद्धता के आधार पर, यथा विशुद्ध संवर्ध किण्वन, प्रकृत विशुद्ध किण्वन, मिश्रित संवर्ध किण्वन, क्षणिक किण्वन आदि।

किण्वन प्राविधि-जीवाणुओं के प्रयोग द्वारा किण्वन परंपरागत कला के रूप में ही सुरक्षित रहा है। परंतु अब एक विज्ञान के रूप में प्रयुक्त और समादृत है, क्योंकि इसके अंतर्गत जीवाणुविज्ञान, जैव रसायन, भौतिक रसायन, गणित तथा इंजीनियरी सब सम्मिलित है। अत: यह किण्वन इंजीनियरी के नाम से विख्यात हो रहा है।

किण्वन उद्योग में निम्नलिखित कार्य किए जाते हैं।

कच्चे माल का चुनाव; उपयुक्त जीवाणुओं का चुनाव; कच्चे माल का निर्माण; अंत:क्राम (Inoculum) की तैयारी; जीवाण्वीय अभिक्रिया का संचालन, पुन:प्राप्ति, तथा उपजातों का उपयोग।

कच्चे माल से तात्पर्य ऐसे उपलब्ध पदार्थों से है जो जीवाण्वीय अभिक्रिया द्वारा अन्य नवीन पदार्थों में परिणत हो सकें। कृषिजन्य पदार्थों में से फलों [3], अन्नों [4]तथा कंदों [5] का उपयोग औद्योगिक तथा पेय ऐल्कोहल, लैक्टिक, अम्ल तथा खाद्य यीस्ट के निर्माण में होता है। दूध, मलाई तथा केसीन से नाना प्रकार के खाद्यपदार्थ तैयार किए जाते हैं। उद्योगों से प्राप्त उपजातों में से शीरे का उपयोग औद्योगिक ऐल्कोहल तथा खाद्य यीस्ट के निर्माण में, सोयाबीन की खली, संतरे के छिलकों तथा ताड़ीखानों से बचे पदार्थों का उपयोग किण्वजों, जीवाणुद्वेषियों (antibiotics) तथा विटामिनों के निर्माण में, मांस उद्योग से बचे प्लीहा, यकृत आदि के अवशेषों का उपयोग जेलाटिन तथा विटामिनों के निर्माण में होता है। उन सभी कच्चे मालों की उपयोगिता काबोहाइड्रेट की उपस्थिति तथा मात्रा पर निर्भर रहती है। इन पदार्थों के साथ कुछ गौण पदार्थों की भी आवश्यकता किण्वन में पड़ती है। यथा तनुकरण के लिये जल, उदासीनी करण के लिए चूना, जीवाणुओं के संवर्धन के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस आदि। इन्हें स्वादिष्ट बनाने के लिए लवण तथा मसाले जैसे गैण पदार्थों का भी उपयोग किया जाता है।

जीवाणुओं की उपयोगिता पर न केवल वांछित अभिक्रिया निर्भर रहती है, वरन्‌ समय की भी बचत होती है। उपयुक्त जीवाणु द्वारा ही पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी सक्रियता को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। किण्वन के लिए तीन प्रकार के प्रमुख जीवों का उपयोग होता है-यीस्ट, जीवाणु (bacteria) तथा फफूँद (mould)। कच्चे माल को जीवाण्वीय अभिक्रिया के योग्य बनाने के लिये, उसे भौतिक तथा रासायनिक रूप से उपचारित होना चाहिए, यथा शीरे का पानी में विलय करना, फलों को फाँकों में काटना तथा कुचलना होता है, स्टार्चयुक्त पदार्थों को उबालना पड़ता है। तब निचोड़ने के बाद, छानकर जो स्वच्छ तरल द्रव्य प्राप्त किया जाता है उसका पीएच व्यवस्थित करके निष्कर्ष को गरम, ठंढा अथवा अर्धविनिवृत (sterilized) किया जाता है, जिससे वांछित जीवाणु वृद्धि करें। इस अवस्था में किण्वन प्रारंभ करने के लिए जीवित जीवाणु (अंत:क्राम) छोड़े जाते हैं। अब वास्तविक किण्वन प्रारंभ होता है। यह अनेक बातों पर निर्भर है, यथा कार्बोहाइड्रेट, वातन, ताप, पीएच, किण्वपात्र तथा जीवाणुओं की संख्या।

वातन का कार्य बुदबुदीकरण द्वारा संपन्न किया जाता है। प्रारंभ में जीवाणुओं की वृद्धि के लिए वायु आवश्यक होती है। जीवाणुओं की क्रिया द्वारा प्रचुर उष्मा उत्पन्न होती है, अत: किण्वपात्र को शीतल करने का उचित प्रबंध करना पड़ता है। किण्वन के पश्चात्‌ विभिन्न पदार्थों का पृथक्करण वाष्पन अथवा माणिभीकरण द्वारा किया जाता है।

रासायनिक क्रियाओं के आधार पर किवण्न के छह भेद किए गए हैं:

1. ऐंलकोहलीय किण्वन-इसमें शर्करा किण्वन से एथिल ऐल्कोहल (एथिनोल) तथा कार्बन डाइआक्साइड प्राप्त होते हैं। फास्फेट की उपस्थिति में शर्करा का किण्वन द्रुत गति से होने लगता है। संपूर्ण क्रिया को इस प्रकार लिखा जा सकता है। ज़ाइमेज़ किण्वज़ संकीर्ण

C6 H12 O6 --------> 2 C2H5 O H + 2 CO2 हेक्सोस एथिल ऐलकोहल + कार्बन डाइआक्साइड

इस क्रिया में सर्वप्रथम फास्फेट तथा शर्करा के योग से फास्फोरित शर्करा उत्पन्न होती है, तब हेक्सोस श्रंखला के विघटन से ग्लिसरैल्डिहाइड-3-फास्फेट तथा द्विहाइड्रॉक्सि ऐसीटोन फास्फेट बनते हैं। इनमें से दूसरे यौगिक के रूपांतरण से प्रथम यौगिक बनता रहता है। अगली अवस्था में ग्लिसरैल्डिहाइड-3- फास्फेट के उपचयन से ग्लिसरिक अम्ल फास्फेट बनता है, जिसके विफास्फोरीकरण से पाइरूविक अम्ल उत्पन्न होता है जो ऐसीटैल्डीहाइड में परिवर्तित हो जाता है। अंत में ऐसी टैल्डिहाइड से एथिल ऐल्कोहल बनता है।

इस प्रकार के किण्वन में कार्बन डाइआक्साइड तथा ऐल्कोहल के अतिरिक्त अन्य पदार्थ भी बनते हैं, जिन्हें फ़ूज़ेल आयल की संज्ञा प्रदान की गई है। ये मदिरा को विशिष्ट स्वाद प्रदान करते हैं। ऐलकोहलीय किण्वन के लिए यीस्ट, बैक्टीरिया तथा फफँूदों का प्रयोग किया जाता है, परंतु औद्योगिक स्तर पर यीस्ट को ही प्रमुखता दी जाती है। ऐल्कोहल, यवसुरा (बियर) तथा धान्यसुरा (ह्विस्की) के लिए सैक्करोमाइसीज़ सेरिविसिई (Saccharmyces cerevisiae), द्राक्षमदिरा (वाइन) के लिए सैक्करोमाइसीज़ एलिप्सोइड्यूस (Saccharomyces ellipsoidus) तथा पैस्टुरियानस (Pasteurianus) यीस्ट की प्रमुख प्रजातियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। यीस्टें विभिन्न प्रकार की शर्कराओं को किण्वित करने में समर्थ हैं, परंतु टेट्रोस, पेंटोस या हेप्टोस शर्कराओं पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ग्लूकोस सबसे शीघ्र किण्वित होता है। बहु-शर्कराएँ सर्वप्रथम जलविश्लेषित होकर एकशर्कराओं में परिवर्तित होने के अनंतर किण्वित होती हैं। ऐल्काहलीय किण्वन के द्वारा औद्योगिक ऐल्कोहल, ऐल्कोहलीय पेय, यवमदिरा, द्राक्षमदिरा, यवासवन (Brewing) पावरोटी तथा यीस्ट का निर्माण व्यापारिक पैमाने पर किया जाता है।

2. लैक्टिक अम्ल किण्वन-विभिन्न प्रकार के लैक्टिक बैक्टीरिया शर्करा के किण्वन द्वारा लैण्क्टिक अम्ल उत्पन्न करते हैं : C6 H12 O6 2 C3 H6 O3 हेक्सोस (शर्करा) लैक्टिक अम्ल


पशुओं के ऊतकों में यह क्रिया ग्लाइकोविश्लेषण (Glycolysis) कहलाता है। लैक्टिक अम्ल का निर्माण तुरंत प्रारंभ नहीं होता, वरन्‌ इसकी एक त्वरण अवधि होती है, जो फास्फट की उपस्थिति में घट जाता है। विभिन्न शर्कराएँ निम्नांकित क्रम से किण्वित होंगी :

फ्रुक्टोस > मैनोस > डेक्स्ट्रोस > गैलैक्टोस > लैक्टोस

औद्योगिक रूप में लैक्टिक अम्ल का निर्माण मक्का, पनीर, शीरे के साथ 0.5-2.5% लैक्टो-बैक्टीरिया का संवर्ध डालकर किण्वित करके किया जाता है। 42-500 सेंटीग्रेड पर 3-4 दिन में किण्वन पूर्ण हो जाता है।

3. प्रोपियोनिक किण्वन-यह प्रोपियोनिक बैक्टीरिया के द्वारा, जो अवातंजीवी हैं, संपादित होता है। इनके अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के बैक्टीरिया भी प्रोपियोनिक अम्ल उत्पन्न कर सकते हैं। प्रोपियोनिक बैक्टीरिया के द्वारा ग्लूकोस, लैक्टिक अम्ल, मैलिक अम्ल तथा कभी कभी ग्लिसराल से प्रोपियोनिक अम्ल और साथ साफ सक्सिनिक अम्ल बनते हैं। प्रत्येक दशा में कार्बन डाइआक्साइड उत्पन्न होता है। 4. फार्मिक किण्वन-इस किण्वन को संपादित करने वाले अनेक प्रकार के बैक्टीरिया में [6] अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह पशुओं की बड़ी आँत में पाया जाता है। जब ये बैक्टीरिया शर्करा पर क्रिया करते हैं तो फार्मिक अम्ल उत्पन्न होता है। परंतु इस प्रकार के किण्वन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें हाइड्रोजन गैस भी निकलती है। हाइड्रोजन तथा कार्बन डाइआक्साइड में 1:1 का अनुपात रहता है:

2C6H12O6 +H2O__2CH3CHOHC OOH + C2H5OH+ CH3COOH+2 CO2+2 H2O

यह हाइड्रोजन फार्मिक अम्ल के विघटन से ही संभव है। साथ में ऐल्कोहल और ऐसीटिक तथा लैक्टिक अम्ल भी बनते हैं। H C O O H = H2 + C O2 फार्मिक अम्ल हाइड्रोजन

पाइरूविक अम्ल के किण्वन से भी फार्मिक अम्ल मुख्य पदार्थ के रूप में बनता है। CH3COOOOH + H2O__(CH3 COOH) + HCOOH पाइरूविक अम्ल ऐसीटिक अम्ल फार्मिक अम्ल

5. ब्यूटिल ब्यूटरिक-किण्वन-यह अत्यंत जटिल किण्वन है। यह क्लास्ट्रीडिया जीवाणुओं द्वारा जो पूर्णत: अवातजीवी हैं, संभव है। शर्कराओं या संबंधित यौगिकों पर इनकी क्रिया द्वारा ब्यूटरिक अम्ल के अतिरिक्त ब्यूटिल ऐल्कोहल, ऐसीटोन, आइसोप्रोपिल ऐल्कोहल, ऐसीटिक अम्ल, फार्मिक अम्ल, एथिल ऐल्कोहल, कार्बन डाइआक्साइड तथा हाइड्रोजन में से या एक अधिक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के ब्यूटरिक किण्वन का पता सर्वप्रथम 1861 ई. में लुई पास्तुर ने लगाया। ब्यूटरिक अम्ल का निर्माण का2...(C2__) यौगिकों से ही संभव है। ब्यूटिल ऐल्कोहल इसी अम्ल के अपचयन द्वारा बनता है।

1. उपचयन किण्वन-ये वास्तविक किण्वन नहीं हैं, क्योंकि इनमें आक्सिजन प्रयुक्त होता है। परंतु औद्योगिक विधियों में कोई भी जैव-रासायनिक क्रिया, जो जीवाणुओं द्वारा संपन्न हो सके, किण्वन कहलाती है। इस प्रकार के किण्वनों एथिल ऐल्कोहल का ऐसीटिक अम्ल में परिवर्तन तथा शर्कराआ से सिट्रिक, फ्यूमैरिक तथा आक्सैलिक अम्लों के निर्माण प्रमुख हैं।

सुरा को वायुमंडल में खुला रखकर अम्ल उत्पादन की घटना का पता लगाते समय सर्वप्रथम लुई पास्तुर ने सन्‌ 1860 में दो प्रकार के जीवाणुओं को अम्लता उत्पादन के लिए उत्तरदायी बताया। सन्‌ 1899 में बेरिक ने उन जीवाणुओं को जो ऐसीटिक अम्ल उत्पन्न करते हैं, ऐसीटो बैक्टर (Acetobacter) नाम दिया। इन जीवाणुओं की सबसे बड़ी विशेषता है ऐल्कोहल को ऐसीटिक अम्ल में परिवर्तित करने की।

CH3CH2OH + O2___C H2 COOH + H2O

आजकल इस किण्वन का उपयोग ऐसीटिक अम्ल का व्यापारिक मात्रा में निर्माण करने में किया जाता है।

शर्कराओं से सिट्रिक अम्ल बनाने की क्षमता अनेक जीवाणुओं में प्राप्त हुई है, परंतु इनमें सिट्रीमाइसीज़ (Citromies) का उपयोग सिट्रिक अमल का औद्योगिक स्तर पर निर्माण करने के लिये होता है। इस प्रकार के किण्वन से प्राप्ति कम होने के कारण अब एक प्रकार के कवक (फंगस) ऐस्परजिलस नाइजर का अत्यधिक उपयोग होने लगा है।

रियोज़स निग्रिकन्स नामक जीवाणु एथिल ऐल्कोहल तथा ऐसीटिक अम्ल को फ्यूमेरिक अम्ल में परिवर्तित करने की क्षमता रखते हैं । 100 ग्राम शर्करा से 50 ग्राम अम्ल प्राप्त किया जा सकता है।

उपयुक्त्त औद्योगिक महत्वों के अतिरिक्त किण्वन द्वारा रसोईघरों तथा पावरोटी विक्रेताओं के लिए प्रचुर मात्रा में खाद्य यीस्ट का प्रयोग किया जाने लगा है। इस खाद्य यीस्ट का निर्माण शर्करा के किण्वन द्वारा नाइट्रोजन तथा फास्फोरस की उपस्थिति में बहुत पैमाने में किया जाता है। इस यीस्ट को सुखा कर प्रयोग में लाया जाता है।

किण्वन द्वारा ग्लिसलार जैसे महत्वपूर्ण पदार्थ का निर्माण भी होने लगा है। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी में वसीय पदार्थों की उपलब्धि न होने के कारण किण्वनविधि से निर्माण का आश्रय लिया गया। ऐल्कोहलीय किण्वन में थोड़े से परिवर्तन करके ग्लिसरोल की उपलब्धि की जाती है। ये परिवर्तन न्यूबर्ग की द्वितीय तथा तृतीय विधियाँ कहलाती हैं। इनमें क्रमश: सोडियम बाइसल्फाइट तथा क्षारीय माध्यम का प्रयोग ऐल्कोहलीय किण्वन में किया जाता है।[7]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फर्मेण्टेशन, Fermentation
  2. फर्वेयर, Fervere
  3. अंगूर, सेब, बेर आदि
  4. राई, गेहूं, जौ, चावल, मक्का
  5. आलू, गाजर, शकरकंद, चुकंदर
  6. बैक्टीरियम कोली, Bacterium Coli
  7. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 4 |

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