ख़ुमार बाराबंकवी
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पूरा नाम | मोहम्मद हैदर ख़ान (मूल नाम) |
जन्म | 15 सितम्बर, 1919 |
जन्म भूमि | पीरबटावन मोहल्ला, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 19 फ़रवरी, 1999 |
मृत्यु स्थान | लखनऊ, उत्तर प्रदेश |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | उर्दू शायरी |
मुख्य रचनाएँ | 'शब-ए-ताब', 'हदीस-ए-दीगर', 'आतिश-ए-तर' और 'रख्स-ए-मचा' आदि। |
प्रसिद्धि | उर्दू शायर |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | वर्ष 1992 में दुबई में ख़ुमार की प्रसिद्धि और कामयाबी के लिये जश्न मनाया गया। 25 सितम्बर, 1993 को बाराबंकी जिले में जश्न-ए-खुमार का आयोजन किया गया। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
ख़ुमार बाराबंकवी (अंग्रेज़ी: Khumar Barabankvi, जन्म- 15 सितम्बर, 1919; मृत्यु- 19 फ़रवरी, 1999) भारतीय शायर थे। उनका वास्तविक नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था, लेकिन शायद ही कोई उनके इस नाम से वाकिफ हो। वह तो मशहूर थे ख़ुमार बाराबंकवी या ख़ुमार साहब के नाम से। बाराबंकी जिले को अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने वाले अजीम शायर खुमार बाराबंकवी को प्यार से बेहद करीबी लोग 'दुल्लन' भी बुलाते थे।
परिचय
उर्दू ग़ज़ल की विरासत लाखों शायरों में सदियों से तक़सीम होती आई है लेकिन बहुत कम ऐसे शायर गुज़रे हैं जिनके दामन में लाल-ओ-जवाहर आए हैं और जिनकी ज़बान से शब्दों के मोती बन-बन कर बिखरे हैं। वली दकनी ने उर्दू ग़ज़ल का चराग़ रौशन किया था जो पहले दिल्ली में जगमगाया फिर लखनऊ के ऐवानों में नूर बन के बरसा। चराग़ से चराग़ और शम्मा से शम्मा होती रही। इस मानूस नर्म और दिलकश रोशनी की शम्मों के सिलसिले में संभवतः तरन्नुम के फ़ानुस में रोशन एक आख़िरी शम्मा थी जो मुहम्मद हैदर ख़ां ख़ुमार बाराबंकवी बनकर सन 1999 तक जलती रही। एक बेहद पसंदीदा तग़ज़्ज़ुल से भरपूर सोज़ में डूबी हुई ग़ज़लगोई और ग़ज़लसराई में ख़ुमार के समान कोई न था। इस राह में वह अकेले थे, फ़रमाते थे[1]-
हो न हो अब आगई मंज़िल क़रीब।
रास्ते सुनसान नज़र आए हैं।
जन्म
ख़ुमार बाराबंकवी का जन्म 15 सितम्बर सन 1919 को बाराबंकी, उत्तर प्रदेश में हुआ था।
उत्तर प्रदेश की राजधानी से पूरब की तरफ़ 23 किलोमीटर दूर शहर बाराबंकी स्थित है। इसकी ख़ास बोली तो किसी क़दर अवधी से मिलती जुलती है लेकिन शिक्षित वर्ग और संभ्रांत लखनऊ की ज़बान बोलते हैं। तहज़ीब भी वही है। शे’र-ओ-अदब की महफ़िलें और मुशायरे और दूसरी अदबी सरगर्मीयां होती रहती हैं। बाराबंकी ज़िला में क़स्बा रूदौली भी है जहाँ के नामवर शायर मजाज़ थे। क़रार बाराबंकवी भी अच्छे शायर थे जिनके कलाम को लखनऊ के अह्ल-ए-ज़बान भी पसंद करते थे। उन्हीं के एक शागिर्द मुहम्मद हैदर ख़ां यानी ख़ुमार बाराबंकवी थे। उन्होंने स्कूल और कॉलेज में तालीम हासिल कर के पुलिस विभाग में नौकरी करली थी। शेरगोई का शौक़ बचपन से था। पहले स्थानीय मुशायरों में शिरकत करते रहे फिर लखनऊ की निजी महफ़िलों में कलाम सुनाया तो हीआओ खुला और बाक़ायदा मुशायरों में आमंत्रित किए जाने लगे। क़ुदरत ने उनको ग़ज़ल के अनुरूप बेहद दिलकश और पुरसोज़ आवाज़ अता की थी जिसको आवाज़ का एक नशात-अंगेज़ सोज़ कहना चाहिए जो जिगर मुरादाबादी के बाद उन ही के हिस्से में आया था।
बने थे ग़ज़ल के लिए
सच तो ये है कि ग़ज़ल उनके लिए और वो ग़ज़ल के लिए बने थे। एक जगह लिखते हैं कि "मैंने समस्त विधाओं का विश्लेषण करने के बाद अपनी भावनाओं और घटनाओं को व्यक्त करने के लिए क्लासिकी ग़ज़ल ही को सबसे ज़्यादा उपयुक्त और अनुकूल पाया, तो ग़ज़ल के ख़िदमत गुज़ारूँ में शामिल हो गया। वक़्त ने कई करवटें बदलीं मगर मैंने ग़ज़ल का दामन नहीं छोड़ा।" ये फ़ैसला ख़ुमार का बिल्कुल सही था। वर्ना उर्दू अदब में महबूब की दिलबरी और आशिक़ की ग़म-आश्ना दिलनवाज़ी से भरपूर हल्की फुल्की मुतरन्निम ग़ज़लों का इतना अच्छा संग्रह एकत्र न होने पाता।[1]
फ़िल्मों में योगदान
सन 1945 में मुशायरे में शिरकत की ग़रज़ से ख़ुमार, जिगर मुरादाबादी और मजरूह सुल्तानपुरी के साथ बंबई आए थे। ए.आर.कारदार ने जब उनका कलाम सुना तो अपनी फ़िल्म 'शाहजहाँ' मैं गीत लिखने की फ़र्माइश की जो ख़ुमार ने क़बूल कर ली। उस फ़िल्म में नौशाद ने संगीत दिया था और कुन्दन लाल सहगल ने गीत गाए थे-
चाह बर्बाद करेगी हमें मालूम न था।
हम पे ऐसे भी पड़ेगी हमें मालूम न था।
कुछ और गाने भी उनके बड़े लोकप्रिय हुए, जैसे-
- तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती।
- भूला नहीं देना भूला नहीं देना, ज़माना ख़राब है।
- दिल की महफ़िल सजी है चले आइए।
- मुहब्बत ख़ुदा है मुहब्बत ख़ुदा है।
बंबई के माहौल और 1947 के दंगों ने उनको बंबई से दु:खी कर दिया और ख़ुमार बाराबंकवी वापस उत्तर भारत चले गए।
सादगी पसंद
ख़ुमार बाराबंकवी निहायत सादगी पसंद थे और दिलचस्प गुफ़्तगू करते थे। हर एक से झुक के मिलते थे। शुरू में शराब पीने के बुरी तरह आदी थे लेकिन बाद में तौबा कर लिया था। फिक्र-ओ-ख़्याल की धीमी धीमी आग को वो सीने में लिये फिरते थे और कभी कभी अशआर में उसको व्यक्त कर देते थे मगर शिकायत नहीं। उनकी जवाँ-साल लड़की जब इंतिक़ाल कर गई तो इस बड़े सदमे को उन्होंने सिर्फ़ एक शेर में व्यक्त किया है[1]-
उसको जाते हुए तो देखा था।
फिर बसारत ने साथ छोड़ दिया।
मृत्यु
ख़ुमार बाराबंकवी ने 80 बरस की लम्बी उम्र पाई। 19 फ़रवरी, 1999. को ज़िन्दगी की शराब का ख़ुमार उतर गया और वह अनंत की दुनिया में पहुँच गए। मृत्यु के एक वर्ष पूर्व से ही उन्होंने खाना पीना छोड़ दिया था। 13 फ़रवरी, 1999 को उनकी हालत गंभीर हो गई थी। उन्हें लखनऊ के मेडिकल कालेज में भर्ती कराया गया था। जहाँ 19 फ़रवरी की रात उन्होंने आखिरी साँस ली।
लेखन कार्य व सम्मान
ख़ुमार साहब ने चार पुस्तकें भी लिखीं। ये पुस्तकें 'शब-ए-ताब', 'हदीस-ए-दीगर', 'आतिश-ए-तर' और 'रख्स-ए-मचा' है। उनकी पुस्तकें कई विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल की गईं। उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, जिगर मुरादाबादी, उर्दू अवार्ड, उर्दू सेंटर कीनिया और अकादमी नवाये मीर उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद, मल्टी कल्चरल सेंटर ओसो कनाडा, अदबी संगम न्यूयार्क, दीन दयाल जालान सम्मान वाराणसी, कमर जलालवी एलाइड्स कालेज पाकिस्तान आदि ने सम्मानित किया। वर्ष 1992 में दुबई में ख़ुमार की प्रसिद्धि और कामयाबी के लिये जश्न मनाया गया। 25 सितम्बर, 1993 को बाराबंकी जिले में जश्न-ए-खुमार का आयोजन किया गया। जिसमें तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने एक लाख की धनराशि व प्रशस्ति पत्र उन्हें देकर सम्मानित किया था।[2]
हैदराबाद के एक मुशायरे में ली गई एक तस्वीर से उनका सिर्फ़ चेहरा लेकर बाक़ी हिस्सा मुकम्मल किया गया है और रंग व परिदृश्य से सजाया गया है। इस पोज़ में वो कलाम सुनाते नज़र आरहे हैं और बहुत सारे लोगों की याददाश्त में उनका यही चेहरा महफ़ूज़ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 ख़ुमार बाराबंकवी का परिचय (हिंदी) rekhta.org। अभिगमन तिथि: 05 दिसम्बर, 2021।
- ↑ ख़ुमार बाराबंकवी / परिचय (हिंदी) kavitakosh.org। अभिगमन तिथि: 05 दिसम्बर, 2021।
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