गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-18
वेद की और कम-से-कम पुराणों के कुछ अंश की भाषा स्पष्ट रूप से रूपकात्मक है, ये स्थूल दृश्यमान जगत् की चोट में रहने वाली वस्तुओं के वर्णन से और उनके दिग्दर्शन से भरे पड़े हैं, पर गीता में जो कुछ कहा गया है, साफ-साफ कहा गया है और मनुष्य के जीवन में जो बड़ी-बड़ी नैतिक और आध्यात्मिक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं उन्हीं का हल करना इसका हेतु है, इसलिये इसकी स्पष्ट भाषा और सुस्पष्ट विचारों को एक ओर धरकर अपने मन के अनुसार तोड़-मरोड़कर उनका अर्थ लगाना ठीक नहीं। परंतु इस विचार में इतना सत्य तो है ही कि गीता की शिक्षा को जितने सुंदर ढंग से बैठाया गया है वह यदि प्रतीकात्मक भी न हो, तो भी उसको एक विशिष्ट प्रकार का नमूना अवश्य ही कहा जा सकता है, और वास्तव में गीता जैसे ग्रंथ की शिक्षा को इसी प्रकार बैठाना ही चाहिये, नहीं तो यह जो कुछ रचना कर रही है उसके साथ इसका कोई संबंध नहीं रह जायेगा। यहां एक अर्जुन एक महान् जगद्व्यापी संघर्ष में राष्ट्रों और मनुष्यों के भगवत्-परिचालित कर्म को करने वाला एक प्रतिनिधि-पुरुष है। गीता में यह कर्मनिष्ठ मानव-जीव का नमूना है जो अपने कर्म द्वारा कर्म के उस उत्कृष्ट और अति भीषण संकट के समय इस समस्या के सामने आ पड़ा है कि मनुष्य के जीवन में और आत्म स्थिति में, यहां तक कि पूर्णता संबंधी शुद्ध नैतिक आदर्श में भी आपाततः जो यह असंगति दिखायी देती है वह आखिर क्या है?
अर्जुन इस युद्ध में रथी है और भगवान् श्रीकृष्ण उसके सारथी। वेद में भी एक जगह यह वर्णन आता है कि मानव-आत्मा और देव रथ पर बैठे लड़ाई लड़ते हुए किसी महान् गंतव्य स्थान की ओर जा रहे हैं। पर वहां केवल आलंकारिक वर्णन है, रूपक है। देव यहां इन्द्र है, जो ज्योतिर्लोक और अमृत के स्वामी हैं, दिव्य ज्ञान की शक्ति हैं और वे असत्य, तमस्, परिमितता और मृत्यु की संतानों के साथ युद्ध करने वाले सत्यान्वेषी मनुष्यों की सहायता के लिये नीचे उतरते हैं; युद्ध आत्मा के शत्रुओं के साथ है जो हमारी सत्ता के उच्च्तर लोक का रास्ता रोके हुए हैं; और गंतव्य स्थान है वह वृहत् लोक के जो परम सत्य के आलोक से आलोकित है और जो सिद्ध आत्मा के चिन्मय अमृत्व का धाम है, जहां के स्वामी इन्द्र हैं। मानव-आत्मा कुत्स है, वह अपने कुत्स नाम के अनुरूप सतत साक्षी चैतन्य के ज्ञान का साधक है, वह अर्जुन या अर्जुन का पुत्र है, शुक्ल है, शुक्ल माता श्वित्रा का शशु है, अर्थात् ऐसा सात्विक, विशुद्ध और प्रकाशमय अंतःकरण वाला जीव है जो दिव्य ज्ञान की अटूट गरिमा-महिमा की ओर सदा उन्मुख है। और, जब रथ अपने गंतव्य स्थान अर्थात् इन्द्र के अपने लोक में पहुंचता है तब मानव कुत्स उन्न्त होते-होते अपने देव सखा के साथ इतना सादृश्य लाभ करता है कि कौन इन्द्र है और कौन कुत्स, इसकी पहचान इन्द्र की अर्द्धांगिनी शची के कारण ही हो पाती है, क्योंकि शची “ऋत-प्रज्ञा“ हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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