गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-20
शास्त्रों के अनुसार ही वह रहा और चला है। उसके चित्त में जो सबसे प्रधान भाव या विचार है, भारतीय धारणा के अनुसार मानव -जाति का परिचालन करने वाला धार्मिक, सामाजिक और नैतिक नियम, विशेषकर स्वजाति-धर्म अर्थात् क्षात्र धर्म, क्योंकि वह क्षत्रिय है, धीर-वीर उदार राजपूत्र है, योद्धा है, आर्यों का नेता है, इसी क्षात्र-धर्म के अनुसार सदा पुण्य मार्ग चलता हुआ वह यहां तक आया है और अब यहां आकर अकस्मात् वह देखता है कि इसने उसको एक अति भीषण, अभूतपूर्व संहार-कर्म के सामने, उस कार्य के प्रमुख पात्ररूप में ला पटका है, ऐसे गृह युद्ध के सामने ला पटका है जिसमें सभी सुसंस्कृत आर्यराष्ट्र सम्मिलित हैं और जिसमें उनके समस्त मानव-मुकुटमणि नष्ट हो जायेंगे और भय है कि उनकी व्यवस्थित सभ्यता में विश्रृंखला आ जायेगी और वह विनाश को प्राप्त हो जायेगी। फलवादी मनुष्य की यह विशेषता वह अपने संवेदनों के द्वारा ही अपने कर्म के आशय के प्रति सचेत होता है। अर्जुन ने अपने सखा और सारथी से कहा, ’मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलिये’, किसी गंभीर भावना से नहीं बल्कि दर्प के साथ उन करोड़ों मनुष्यों का मुंह एक निगाह में देख लेने के लिये जो अधर्म का पक्ष लेकर आये थे और जिनका अर्जुन को इस रण रंग में सामना करना है, जिन्हें धर्म की विजय के लिये जीतना और मरना है।
परंतु, उस दृश्य को देखने के साथ ही उसके आँखें खुलती हैं और जिस गृह- कलह और पारस्परिक युद्ध का अर्थ उसकी समझ में आता है- यह वह युद्ध है जिसमें एक ही जाति, एक ही राष्ट्र, एक ही वंश के नहीं, बल्कि एक ही कुल के और एक ही घर के लोग एक-दूसरे के शत्रु बन आमने-सामने खड़े हैं। जिन लोगों को यह सामाजिक मनुष्य परम प्रिय और पूज्य मानता है उन्हीं लोगों का उसे शत्रु के नाते सामना करना वध करना होगा, पूज्यपाद गुरु और आचार्य, पुराने-संगी साथी, मित्र, सहयोद्धा, दादा, चाचा, और वे लोग जो रिश्ते में पिता के समान, पुत्र के समान, पौत्र के समान हैं, वे लोग जिनके साथ रक्त का संबंध है या जो साले-संबंधी हैं--ये सब सामाजिक संबंध यहां तलवार के घाट उतारने हैं। यह नहीं कह सकते कि इन बातों को अर्जुन पहले न जानता था, पर उसको इनका जीवंत अनुभव नहीं हुआ था, क्योंकि उसको तो अपने दावों की, अपने ऊपर हुए अत्याचारों की याद थी। उसे धुन की सवार थी कि सिद्धांतों और न्याय के लिये लड़ना होगा, न्याय और धर्म की रक्षा करनी होगी तथा अधर्म और अत्याचार से युद्ध करके उनको मार भगाना होगा। इसलिये उसने इय युद्ध के पहलू के बारे में न तो कभी गहराई के साथ सोचा न अपने हृदय के अंदर और जीवन के मर्मस्थल में न अनुभव ही किया। भगवान् सारथी यह बात अब उसकी अंतदृष्टि के सामने लाते है, उसकी आंखों के आगे सनसनीखेज तरीके से उपस्थित करते हैं और इससे उसकी संवेदनात्मक, प्राणमय और भावमय सत्ता के मर्म-स्थानों में एक गहरा धक्का-सा लगता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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