जाट नायक ठाकुर चूड़ामन सिंह
चूड़ामन के पिता ब्रजराज की दो पत्नियाँ थीं– इन्द्राकौर तथा अमृतकौर। दोनों ही मामूली ज़मींदार परिवार से थीं। चूड़ामन की माँ, अमृतकौर चिकसाना के चौधरी चन्द्रसिंह की पुत्री थी। उसके दो पुत्र और थे– अतिराम और भावसिंह। वे दोनों भी मामूली ज़मींदार (भूमिधारी) थे। सम्भवतः चूड़ामन सिनसिनी पर शत्रु का अधिकार होने के बाद डीग, बयाना और चम्बल के बीहड़ों के जंगली इलाक़ों में छिप गया होगा। वह 'मारो और भागो' की छापामार पद्धति से लूटपाट करता था। चूड़ामन को जनता का समर्थन प्राप्त था। चूड़ामन स्वंय अपने प्रति निष्ठावान था। जाट-लोग कठोर जीवन व्यतीत करते थे। वे न दया चाहते थे और न दया करते थे। चूड़ामन कर्मठ और व्यावहारिक व्यक्ति था। उसने जाटों को उन्नत एवं दृढ़ बनाया। उसके समय में पहली बार 'जाट शक्ति' शब्द प्रचलन में आया बदनसिंह तथा सूरजमल के नेतृत्व में जाट शक्ति अठारहवीं शती में हिन्दुस्तान में एक शक्तिशाली ताक़त बन गई थी। चूड़ामन सिंह ने सन् 1721 में आत्महत्या की, तब उसके भाई का पौत्र सूरजमल चौदह बरस का था।
चूड़ामन की छापामार लड़ाकू सेना
चूड़ामन में नेतृत्व के गुण विद्यमान थे। उसने एक ज़बरदस्त छापामार लड़ाकू सेना तैयार की थीं। उसकी नीति थी–
- किसी क़िले या गढ़ी में घिरकर बैठने की अपेक्षा कुछ घुड़सवारों को लेकर गतिशील रहना, योजना बनाकर विरोध करना, युद्ध की योजना बनाना, अनुशासन बनाना और एक के बाद एक मोर्चा खोलने के लिए लगातार चलते रहना। जिससे शत्रु आराम से नहीं रह पाते थे। शत्रुओं को रास्तों की जानकारी ना होने और भारी साज़-सामान होने के कारण उनकी गतिशीलता कम हो जाती थी और वे जंगलों में भटक जाते थे। सिनसिनवार जाटों ने मुरसान और हाथरस के सरदारों की सहायता से दिल्ली और मथुरा, आगरा और धौलपुर के बीच शाही मार्ग को लगभग बन्द कर दिया था। मुग़लों के विरुद्ध युद्ध करते हुए चूड़ामन कभी पकड़ा नहीं गया, ना पूरी तरह परास्त हुआ। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया था। उसके पास 10,000 योद्धाओं–बन्दूकचियों, घुड़सवारों और पैदल की सेना थी। सन् 1704 में उसने सिनसिनी पर फिर अधिकार कर लिया, सन् 1705 में आगरा के फ़ौजदार मुख़्तारख़ाँ के आक्रमण करने पर वह सिनसिनी छोड़कर अपना प्रधान शिविर थून ले गया। वहाँ उसने बहुत मज़बूत दुर्ग बनवाया।
औरंगज़ेब की मृत्यु
- औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद चूड़ामन के लिए यह संघर्ष सरल रहा। औरंगज़ेब के अयोग्य पुत्रों में उत्तराधिकार के युद्ध में चूड़ामन विजेता के साथ था। यह युद्ध 13 जून, 1707 को गर्मियों में आगरा के दक्षिण में जाजौ में हुआ। आज़म हार गया; उसे और उसके पुत्र को प्राणों से हाथ धोना पड़ा। मुअज़्ज़्म 'शाह आलम प्रथम' के रूप में राजगद्दी पर बैठा।
- आज़म और मुअज़्ज़्म की सेनाओं की जाजौ में मुठभेड़ हुई, चूड़ामन अपने सैनिकों के साथ युद्ध का रूख़ देखता रहा और आक्रमण के लिए मौक़े की तलाश करता रहा। पहले उसने मुअज़्ज़्म के शिविर को लूटा। जब उसने देखा कि आज़म हारने लगा है तो मौक़े का फ़ायदा उठाकर वह भी उस पर टूट पड़ा। इस लूट के फलस्वरूप चूड़ामन बहुत धनी बन गया। मुग़लों की नक़दी, सोना, अमूल्य, रत्नजटित आभूषण, शस्त्रास्त्र, घोड़े, हाथी और रसद उसके हाथ लगे। इस धन के कारण वह जीवन-भर आर्थिक चिन्ताओं के बिलकुल मुक्त रहा। इस विपुल सम्पत्ति का कुछ भाग सन् 1721 में चूड़ामन की आत्महत्या के पश्चात् ठाकुर बदनसिंह और महाराजा सूरजमल के ख़ज़ानों में भी पहुँचा।
- अब चूड़ामन अपने सैनिकों को वेतन दे सकता था, अपने विरोधियों को धन देकर अपने पक्ष में कर सकता था और आवश्यकतानुसार क़िले बनवा सकता था। थून का दुर्ग इसी धन से बनवाया और सुसज्जित किया गया। जाजौ के युद्ध में सिनसिनवारों ने जो सहायता दी थी, उसके उपलक्ष्य में उन्हें भी सम्राट की ओर से इनाम मिले।
- बहादुरशाह ने चूड़ामन को 1,500 ज़ात और 500 घुड़सवार का मनसब प्रदान किया। विद्रोही को सरकारी कर्मचारी वर्ग में स्थान मिल गया। चूड़ामन बहुत ही पहुँचा हुआ अवसरवादी था; शाही सेनाध्यक्ष के अपने नए पद पर उसने मुग़ल सम्राट की निष्ठापूर्वक सेवा की। वह सन् 1710-11 में सिखों के विरुद्ध अभियान में मुग़ल सम्राट के साथ गया और 27 फ़रवरी, 1712 को जब लाहौर में बहादुरशाह की मृत्यु हुई, तब चूड़ामन वहीं था। सिखों के विरुद्ध अभियान में चूड़ामन दिल से साथ नहीं था। सिखों में भी बहुत से लोग, भले ही वे नानक के धर्म को मानते थे, उसी जैसे जाट थे।
- यद्यपि बहादुरशाह इतिहास पर अपनी कोई उल्लेखनीय छाप नहीं छोड़ पाया, फिर भी उसने अपने छोटे-से राज्य-सिंहासन की मर्यादा को कलंकित नहीं किया। उसके सौम्य स्वभाव, डाँवाडोल चित्त और दीर्घ-कालीन अनिश्चय के फलस्वरूप स्थिति जैसे-तैसे घिसटती रहीं। सम्राट का शासन वैसे ही चलता रहा जैसे उसके पिता के समय चलता था, परन्तु शनैः-शनैः साम्राज्य के महान् स्तम्भ लुप्त होते और ह्रास आरम्भ हो गया। बहादुरशाह से न लोग डरते थे, न उसका आदर करते थे, फिर भी लोग उसे मानते थे। उसके बाद जो बादशाह आए, उनको तो महत्त्वाकांक्षी सरदार केवल अपने हाथों की कठपुतली बनाए रहे।
बहादुरशाह की मृत्यु
लाहौर में सम्राट बहादुरशाह की मृत्यु के समय उसके चारों पुत्र उसके पास ही थे। उत्तराधिकार के लिए युद्ध तो होना ही था। जहाँदारशाह ने अपने तीन भाईयों को मार डाला और स्वयं राजसिंहासन पर बैठ गया। उसे लालकुमारी या लालकँवर नाम की एक रखैल के प्रेमी के रूप में स्मरण किया जाता है। यह लालकँवर स्वयं को दूसरी नूरजहाँ समझती थी। ऐसे पतित एवं कपटपूर्ण वातावरण में चूड़ामन जैसे व्यक्ति को चैन कहाँ मिल सकता था। मौक़ा मिलते ही वह राज-दरबार को छोड़कर अपने लोगों और अपनी जागीर की देखभाल करने के लिए आ गया। जब फ़र्रूख़सियर जहाँदारशाह को चुनौती देने के लिए दिल्ली आ पहुँचा, तब जहाँदारशाह ने सिनसिनवारों से सहायता माँगी। इस समय तक चूड़ामन यमुना के पश्चिमी तट पर रहने वाले जाटों तथा अन्य हिन्दू लोगों का वास्तविक शासक बन चुका था। दिल्ली से लेकर चम्बल तक उसका क्षेत्र था और उसके रूख़ पर ही यह बात निर्भर करती थीं कि हिन्दु्स्तान के सिंहासन के किसी उम्मीदवार के प्रति इस क्षेत्र की ग्रामीण जनता का व्यवहार मित्रतापूर्ण हो या शत्रुतापूर्ण। जहाँदारशाह के अनुरोध पर चूड़ामन अपने अनुयायियों की एक बड़ी सेना लेकर आगरा तक बढ़ गया। जहाँदारशाह ने उसे एक पोशाक भेंट की और उसे उचित सम्मान दिया। राज-सिंहासन के दावेदार दो निकृष्ट पुरुषों की सेनाओं में 10 जनवरी, 1913 को युद्ध हुआ। चूड़ामन ने आनन-फ़ानन में, दोनों पक्षों को बारी-बारी से लूटकर दोनों का ही बोझ हल्का कर दिया और उसके बाद वह थून लौट गया। कुछ ही समय बाद गला घोंटकर जहाँदारशाह की हत्या कर दी गई और फ़र्रूख़सियर सम्राट बना।
शाही मुख्य मार्ग का कार्यकारी अफ़सर (शाहराह)
वास्तविक शक्ति दो सैयद बन्धुओं के हाथों में रहीं। सैयद अब्दुल्ला बज़ीर बना और हुसैन अली प्रधान सेनापति। छबीलाराम को आगरा का सूबेदार नियुक्त किया गया। उसने चूड़ामन की हलचलों की रोकथाम करने के लिए कुछ चालें चलीं, परन्तु उसे सफलता न मिली। सूबेदार के ऊपर आगरा का राज्यपाल था– शम्सुद्दौला, जो 'ख़ान-ए-दौरां' की भव्य राजकीय उपाधि से विभूषित था। वह चतुर एवं दूरदर्शी था। अपने सूबेदार छबीलाराम के मार्ग का अनुसरण करने की उसकी ज़रा भी इच्छा नहीं थीं। शम्सुद्दौला इस दुर्जय जाट से विरोध पालकर अपनी प्रतिष्ठा गँवाना नहीं चाहता था; अतः उसने चूड़ामन से मैत्री की चर्चा चलाई। चूड़ामन ने फ़र्रूख़सियर की सेना और सामान को लूटा था, वह इतना समझदार तो था कि नए सम्राट को व्यर्थ ही न खिझाता रहे। 'ख़ान-ए-दौरां' ने सम्राट से चूड़ामन को क्षमा दिलवा दी और उसे दिल्ली आने का निमन्त्रण भिजवाया। एक बार फिर चूड़ामन ने अपने 4,000 घुड़सवारों को लेकर दिल्ली को कूच किया और बड़फूला (बारहपुला) से उसे राजोचित सम्मान के साथ दिल्ली ले जाया गया। स्वयं 'ख़ान-ए-दौरां' उसे दीवान-ए-ख़ास में ले गया और सम्राट ने उसे दिल्ली के निकट से लेकर चम्बल के घाट तक शाही मुख्य मार्ग का कार्यकारी अफ़सर (शाहराह) नियुक्त कर दिया।
- चूड़ामन के पद के इस परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए प्रोफ़ेसर क़ानून गों ने लिखा है- 'एक भेड़िए को भेड़ो के रेबड़ का रखवाला बना दिया गया ।"[1] इस प्रकार आख़िरकार चूड़ामन को शाही अनुमोदन की छाप मिल ही गई। उसे यह अधिकार था कि जो क्षेत्र उसकी देख-रेख में छोड़ा गया है, उस पर आने-जाने वाले लोगों पर वह पथ-कर लगा सके।
- पहले जिस उत्साह से वह मुग़लों के काफ़िलों को लूटा करता था, उसी उत्साह से अब वह पथ-कर वसूल करने लगा। चूड़ामन की धींगा-मुश्ती की शिकायतें दिल्ली पहुँची, परन्तु अशक्त सम्राट उसकी रोक-थाम करने या उसे दंड देने के लिए कुछ भी नहीं कर सका। इसके अतिरिक्त, सैयद बन्धुओं के साथ मिलकर चूड़ामन ने 'ख़ान-ए-दौरां' तथा सैयद बन्धुओं में विद्यमान मतभेदों से भी लाभ उठाया।
- फ़र्रूख़सियर को राज-सिंहासन सैयद बन्धुओं की कृपा से मिला था, फिर भी वह उनके विरुद्ध षडयन्त्र करता रहता था। उसे मालूम था कि सैयद बन्धु जयपुर के राजा से ख़ुश नहीं है, अतः उसने सैयदों की पीठ-पीछे जयपुर के सवाई जयसिंह से चूड़ामन के थून-गढ़ पर आक्रमण करने को कहा। कछवाहों और सिनसिनवारों के बीच ख़ून की नदियाँ बह चुकी थी। औरंगजेब ने जाटों को दबाने के लिए राजा विशनसिंह का इस्तेमाल किया था। अब जयसिंह को इस काम के लिए रखा गया था। उसे भरपूर मात्रा में जन, धन तथा शस्त्रास्त्र दिए गए। कोटा और बूँदी के राजाओं को भी चूड़ामन से शिकायतें थीं, अतः उन्होंने जयसिंह का साथ दिया। चूड़ामन के भेदिए दिल्ली में थे और उसके विनाश की जो योजनाएँ बन रही थीं, उनकी सूचना वे उसे देते रहते थे। उसने जयसिंह के मुक़ाबले के लिए एक लम्बे युद्ध की तैयारी की। चूड़ामन ने इतना अनाज, नमक, घी, तम्बाकू, कपड़ा और ईंधन इकट्ठा कर लिया कि वह बीस वर्ष के लिए पर्याप्त रहे। जिन लोगों को लड़ाई में भाग नहीं लेना था, उन सबको उसने क़िले से बाहर भेज दिया, जिससे रसद का अनावश्यक व्यय न हो। क़िले का घेरा बीस महीने तक पड़ा रहा और उसका निर्णायक परिणाम कुछ भी न निकला। दिल्ली दरबार में तूरानी और ईरानी गुटों के मध्य चले षड्यन्त्र चूड़ामन के लिए वरदान रहे।
- जाटों ने घेरा डालने वालों को कभी चैन से न बैठने दिया। थून का इलाक़ा ग्रीष्म ऋतु में तो गरमी और धूल का खौलता कड़ाह बन जाता था और वर्षा ऋतु में बिलकुल दलदल। वह सैनिक गतिरोध दोनों ही पक्षों को पसन्द नहीं था।
- चूड़ामन ने जयसिंह को लाँघकर सैयद बन्धुओं से समझौते की बात चलाई और वह सम्राट को पचास लाख रूपए भेंट करने को राजी हो गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सिनसिनवारों ने कितनी विपुल धन-राशि एकत्र कर ली थी। सम्राट ने इस प्रस्ताव को तुरन्त स्वीकार कर लिया। थून के घेरे पर शाही ख़जाने के दो करोड़ रूपए ख़र्च हो चुके थे; प्राणों और प्रतिष्ठा की जो हानि हुई, वह इसके अतिरिक्त थी। जयसिंह को घेरा उठा लेने का आदेश दे दिया गया। प्रकटतः क्षुब्ध, पर मन-ही-मन प्रसन्न जयसिंह थून से वापस लौट गया।
सैयद बन्धु, फ़र्रूख़सियर से तंग आ गए थे। उन्होंने उससे पिंड छुड़ाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने उसकी हत्या करवा दी।
- चूड़ामन छाया की भाँति सैयद बन्धुओं के साथ लगा रहा, जब फ़र्रूख़सियर को अपदस्थ किया गया, तब वह हुसैनअली की सेना के साथ था। बाद में वह उसके साथ सम्राट-पद के एक नक़ली दावेदार नेकूसियर के विरुद्ध अभियान में आगरा गया। नेकूसियर को सैयद बन्घुओं के शत्रुओं ने सम्राट घोषित कर दिया था। सैयद बन्धुओं ने चूड़ामन को 'राजा' की उपाधि देने का वायदा किया था, पर अपने वायदे को पूरा करने के लिए सैयद बन्धु जीवित ही न रहे, क्योंकि शीघ्र ही उनकी हत्या कर दी गई। ठीक समय पर चूड़ामन ने पासा पलटा और वह नए सम्राट मुहम्मदशाह के साथ मिल गया।
- मुहम्मदशाह ने जाट-सरदार को बड़े पारितोषिक दिए, जिन्हें उसने स्वीकार कर लिया। परन्तु सन् 1720 में होडल की लड़ाई में वह सैयद अब्दुल्ला सम्राट के शिविरों को लूटने का प्रलोभन त्याग न सका। चूड़ामन ने पहले सम्राट के और उसके बाद अब्दुल्ला के शिविर को लूटा। इस लूट में उसके हाथ साठ लाख रूपए का माल लगा, जिसने थून के घेरे में हुए नुक़सान की भरपाई हो गई। अब शाहराह चूड़ामन एक स्वाधीन राजा की भाँति व्यवहार एवं आचरण करने लगा। आमेर को दबाए रखने के लिए उसने जोधपुर के अजीतसिंह राठौर से मैत्री कर ली। उसने बुन्देलों की भी सहायता की। परन्तु उसकी लूट-खसोट, उसका निरन्तर पक्ष-परिवर्तन, उसकी निष्ठाहीनता और उसकी अवसरवादिता उसके उन कुछ घनिष्ठ कुटुम्बियों के लिए असह्य होती जा रहीं थीं, जिनके दावों और हितों की वह अवहेलना कर रहा था।
बदनसिंह और रूप सिंह
अपने भाई भावसिंह की मृत्यु के पश्चात् चूड़ामन ने अपने दो भतीजों-बदनसिंह और रूप सिंह को पाला था। चूड़ामन थून में पदासीन था और बदनसिंह सिनसिनी में रहता था। बदनसिंह को अपने चाचा के तौर-तरीक़े और चालें बिलकुल नापसन्द थीं। उसका विचार था कि समय आ गया है अब जाटों को विद्रोहियों की भाँति नहीं, अपितु शासकों की भाँति रहना चाहिए। चूड़ामन के पास धन था, राज्य-क्षेत्र था और मुग़लों की दी हुई उपाधि भी थीं।
- इस समय जाट दो गुटों में बँट गये थे।
- चूड़ामन और उसके असंयत पुत्र मोखमसिंह के पक्ष में थे-सरदार खेमकरण सोघरिया, विजयराज गड़ासिया, छतरपुर का फ़ौजदार फ़तहसिंह और ठाकुर तुलाराम, ये सब पुरानी पीढ़ी के लोग थे।
- बदनसिंह को फ़ौजदार अनूपसिंह, राजाराम के पुत्र फ़तहसिंह, गैरू और हलेना के ठाकुरों तथा अन्य जातियों के मुखियाओं का समर्थन प्राप्त था। बदनसिंह ने चूड़ामन के जानी दुश्मन, जयपुर के राजा जयसिंह से भी सम्पर्क बनाया हुआ था। अपने क्रोधी पुत्र मोखमसिंह के कहने पर चूड़ामन अपने जीवन की सबसे भयंकर ग़लती की– एक बेकार सा बहाना लेकर उसने बदनसिंह और रूपसिंह को बन्दी बना लिया और उन्हें थून में ला रखा। यह ख़बर जाट-प्रदेश में दावानल की भाँति फैली। सभी जाट-सरदारों ने चूड़ामन पर दबाब डाला कि वह अपने भतीजों को क़ैद से छोड़ दे। उन्हें छोड़ने के लिए चूड़ामन ने यह शर्त रखी कि बदनसिंह उसका और उसकी नीतियों का विरोध न करे। बदनसिंह इसके लिए क़तई तैयार नहीं था।
- एक इतिहासकार का कथन है कि एक स्थिति ऐसी आई कि जब चूड़ामन ने बदनसिंह को ख़त्म ही कर देने का विचार किया, परन्तु अभी तक इसका कोई प्रमाण सामने नहीं आया। कहा जाता है कि प्रमुख जाट-सरदारों ने स्पष्ट कह दिया था कि यदि बदनसिंह को क़ैद से छोड़ा न गया, तो वे मोखमसिंह के विवाह में सम्मिलित नहीं होंगे।
- इस धमकी का असर हुआ। अन्त में चूड़ामन ने भावी विपत्ति को भाँप लिया और बदनसिंह तथा रूपसिंह को क़ैद से छोड़ दिया। बदनसिंह पहले तो आगरा गया और उसके बाद जयसिंह के पास जयपुर चला गया।
- चूड़ामन ने जो कुछ भी उपलब्ध किया, निर्माण किया, क़िलेबन्दी की और जीता, वह सब बहुत जल्दी नष्ट-भ्रष्ट हो जाना था- वह भी अन्य किसी के हाथों नहीं, अपितु जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के हाथों और वह भी चूड़ामन के अपने ही भतीजे की सहायता से। इस बार जयसिंह ने काम को पूरा करके ही छोड़ा। उसने थून में अपनी बेइज़्ज़ती का बदला ले लिया। बदनसिंह के मार्ग-दर्शन में आती हुई आमेर की सेनाओं के थून पहुँचने से पहले ही चूड़ामन ने आत्महत्या कर ली।
- चूड़ामन का एक सम्बन्धी निःसन्तान मर गया था। वह एक धनी व्यापारी था। उसके भाई-बन्धवों ने चूड़ामन के बड़े पुत्र मोखमसिंह को बुलवाया, उसे दिवंगत सम्बन्धी की सारी ज़मींदारी का उसे प्रधान बना दिया और उसकी सब चीज़ें उसे सौंप दीं।
- चूड़ामन के द्वितीय पुत्र जुलकरणसिंह ने अपने भाई से कहा– 'मुझे भी इन चीज़ों में से हिस्सा दो और हिस्सेदार मानो।' इस पर काफ़ी कहा-सुनी हो गई और मोखमसिंह लड़ने-मरने को तैयार हो गया। जुलकरण भी झगड़ने पर उतारू था, उसने अपने आदमी इकट्ठे किए और अपने भाई पर हमला कर दिया। बड़े-बूढ़ों ने चूड़ामन को ख़बर भेजी कि उसके बेटे आपस में लड़ रहे हैं। चूड़ामन ने मोखम सिंह को समझाना चाहा, तो उसने गाली-गलौज शुरू कर दी और प्रकट कर दिया कि वह अपने भाई के साथ-साथ बाप से भी लड़ने के तैयार है। इस पर चूड़ामन आपे से बाहर हो गया और झल्लाकार उसने वह विष खा लिया, जिसें वह सदा अपने पास रखता था और फिर वह घोड़े पर चढ़कर एक वीरान बाग़ में पहुँचकर एक पेड़ के नीचे लेट गया और मर गया। उसे खोजने के लिए आदमी भेजे गए और उन्होंने उसका शव ढूँढ़ निकाला। कोई भी शत्रु उसे जिस विष को खाने के लिए विवश नहीं कर पाया था, वही अब उसके एक मूर्ख पुत्र ने उसे खिला दिया। इस प्रकार चूड़ामन सन् 1721 में फ़रवरी मास में परलोक सिधारा उसके लिए न किसी ने गीत गाए, न किसी ने आँसू बहाए।
- अगले वर्ष थून-गढ़ ले लिया गया। मोखनसिंह भागकर जोधपुर चला गया और वहाँ अपने पिता के मित्र अजीतसिंह राठौर से शरण ली। जयसिंह के पास 14,000 घुड़सवार और 50,000 पैदल सैनिक थे। पहले तो थून के आस-पास खड़ी जंगल की अभेद्य पट्टी को काट डाला गया। बदन सिंह ने आक्रमण का संचालन किया, क्योंकि उसे इस क़िले के दुर्बल स्थानों का ज्ञान था। 18 नवम्बर, 1772 को थून का पतन हुआ।
- सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है– 'चूड़ामन ने जिन सैनिकों को एकत्र तथा संगठित किया था, उनमें से जो रणभूमि के हत्याकांड से बच पाए, उन्हें उनके घर भेज दिया गया और उन्हें विवश किया गया कि वे अपनी तलवारों को गलाकर हलों के फाल बनवाए। विजेता के आदेश से थून शहर को गधों से जुतवाया गया, जिससे वह ऐसा अभिशप्त प्रदेश बन जाए कि किसी राजवंश का केन्द्र-स्थान बनने के उपयुक्त न रहे। राजाराम और चूड़ामन के कार्य का उनके पीछे कोई निशान ही न बचा और उनके उत्तराधिकारी को हर चीज़ नींव से ही शुरू करनी पड़ी।'[2]
- डॉ. सतीशचन्द्र ने अपने विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ में उसे थोड़ा कम वर्णित किया है–
'यद्यपि जय सिंह जाटों की धृष्टता का दमन करने को बहुत ही लालायित था, फिर भी अपनी पहले की असफलता को ध्यान में रखते हुए उसने तब तक क़दम बढ़ाना स्वीकार नहीं किया, जब तक कि उसे आगरा का राज्यपाल न बना दिया गया। यह काम 1 सितंबर, 1772 का हो गया, और उसके बाद शीघ्र ही 14-15,000 सवारों की सेना लेकर जयसिंह ने दिल्ली से प्रस्थान किया। इस समय तक चूड़ामन की मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र मोखमसिंह जाटों का नेता बन गया था।[3] जयसिंह ने जाटों के गढ़ थून पर घेरा डाल दिया और बाक़ायदा जंगल को काटने और दुर्गरक्षक सेना को संख़्ती से घेरने का काम शुरू किया। दो सप्ताह इस प्रकार बीत गए। यह कह पाना कठिन है कि यह घेरा कितने दिन चलता, परन्तु जाटों में फूट पड़ गई। मोखमसिंह का चचेरा भाई बदनसिंह जयसिंह से आ मिला और उसने जाट रक्षा-पंक्तियों के दुर्बल स्थान उसे बता दिए। अब मोखमसिंह की स्थिति चिन्ताजनक हो गई। एक रात उसने मकानों को आग लगा दी, गोला-बारूद उड़ा दिया और जो भी कुछ नक़दी और आभूषण उसे मिल सके, उसे लेकर क़िले से भाग निकला और अजीतसिंह के पास चला गया। अजीतसिंह ने उसे शरण दी। अब विजेता बनकर जयसिंह ने गढ़ी में प्रवेश किया और उसे ढहवाकर भूमिसात कर दिया। घृणा के चिहृ के रूप में उसके वहाँ गधों से हल भी चलवाया।
राजा-ए-राजेश्वर
इस विजय के उपलक्ष्य में जयसिंह को 'राजा-ए-राजेश्वर' की उपाधि (ख़िताब) मिली। जाटों से क्या शर्ते तय हुई, इसका उल्लेख किसी समकालीन लेखक ने नहीं किया है। जाटों की सरदारी बदनसिंह ने सँभाली और चूड़ामन की ज़मींदारी उसे प्राप्त हुई। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रमुख क़िले तो अवश्य नष्ट कर दिए गए, परन्तु चूड़ामन के परिवार को उस समूचे राज्य से वंचित नहीं किया गया, जिसे उन्होंने धीरे-धीरे जीतकर बनाया था। इसके बाद बदनसिंह विनयपूर्वक स्वयं को जयसिंह का अनुचर कहता रहा। परन्तु प्रकट है कि वह बढ़िया प्रशासक था और उसके सावधान नेतृत्व में भरतपुर का जाट-घराना अगली दो दशाब्दियों तक चुपचाप, निरन्तर शक्ति संचय करता गया। इस प्रकार जाट-शक्ति की वृद्धि पर यह व्याघात वास्तविक कम और आभासी अधिक था।'[4] थून और सिनिसिनी से सूरजमल एक विशाल एवं शक्तिशाली राज्य का सृजन करने वाला था।
टीका टिप्पणी और संदर्भ