छत्रप्रकाश -लाल कवि
लाल कवि ने प्रसिद्ध महाराज छत्रसाल की आज्ञा से उनका जीवनचरित 'छत्रप्रकाश' में दोहों चौपाइयों में बड़े ब्योरे के साथ वर्णन किया है। इतिहास की दृष्टि से 'छत्रप्रकाश' बड़े महत्व की पुस्तक है। 'छत्रप्रकाश' पुस्तक में छत्रसाल का संवत् 1764 तक का ही वृत्तांत आया है। इससे अनुमान होता है कि या तो यह ग्रंथ अधूरा ही मिला है अथवा लाल कवि का परलोकवास छत्रसाल के पूर्व ही हो गया था।
- नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित
इसमें सब घटनाएँ सच्ची और सब ब्योरे ठीक ठीक दिए गए हैं। इसमें वर्णित घटनाएँ और संवत् आदि ऐतिहासिक खोज के अनुसार बिल्कुल ठीक हैं, यहाँ तक कि जिस युद्ध में छत्रसाल को भागना पड़ा है उसका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है। यह ग्रंथ नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
- रचना प्रौढ़ और काव्यगुणयुक्त
ग्रंथ की रचना प्रौढ़ और काव्यगुणयुक्त है। लाल कवि में प्रबंधपटुता पूरी थी। संबंध का निर्वाह भी अच्छा है और वर्णन विस्तार के लिए मार्मिक स्थलों का चुनाव भी। वस्तुपरिगणन द्वारा वर्णनों का अरुचिकर विस्तार बहुत ही कम मिलता है। सारांश यह कि लाल कवि का सा प्रबंध कौशल हिन्दी के कुछ इने गिने कवियों में ही पाया जाता है। शब्द वैचित्रय और चमत्कार के फेर में इन्होंने कृत्रिमता कहीं से नहीं आने दी है। भावों का उत्कर्ष जहाँ दिखाना हुआ है, वहाँ भी कवि ने सीधी और स्वाभाविक उक्तियों का ही समावेश किया है, न तो कल्पना की उड़ान दिखाई है और न ऊहा की जटिलता। देश की दशा की ओर भी कवि का पूरा ध्यान जान पड़ता है। शिवाजी का जो वीरव्रत था वही छत्रसाल का भी था। छत्रसाल का जो भक्तिभाव शिवाजी पर कवि ने दिखाया है तथा दोनों के सम्मिलन का जो दृश्य खींचा है, वह ध्यान देने योग्य हैं।
- काव्य और इतिहास
'छत्रप्रकाश' में लाल कवि ने बुंदेल वंश की उत्पत्ति, चंपतराय के विजय वृत्तांत, उनके उद्योग और पराक्रम, चंपतराय के अंतिम दिनों में उनके राज्य का उद्धार, फिर क्रमश: विजय पर विजय प्राप्त करते हुए मुग़लों का नाकों दम करना इत्यादि बातों का विस्तार से वर्णन किया है। काव्य और इतिहास दोनों की दृष्टि से यह ग्रंथ हिन्दी में अपने ढंग का अनूठा है। लाल कवि का एक और ग्रंथ 'विष्णुविलास' है जिसमें बरवै छंद में नायिकाभेद कहा गया है। पर इस कवि की कीर्ति का स्तंभ 'छत्रप्रकाश' ही है। 'छत्रप्रकाश' से नीचे कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं -
लखत पुरुष लच्छन सब जाने।
सतकबि कबित सुनत रस पागे।
रुचि सो लखत तुरंग जो नीके।
चौंकि चौंकि सब दिसि उठै सूबा खान खुमान।
अब धौं धावै कौन पर छत्रसाल बलवान [1]
छत्रसाल हाड़ा तहँ आयो।
भयो हरौल बजाय नगारो।
दौरि देस मुग़लन के मारौ।
एक आन शिवराज निबाही।
आठ पातसाही झकझोरे।
काटि कटक किरबान बल, बाँटि जंबुकनि देहु।
ठाटि युद्ध यहि रीति सों, बाँटि धारनि धारि लेहु
चहुँ ओर सों सूबनि घेरो।
पजरे सहर साहि के बाँके।
कबहूँ प्रगटि युद्ध में हाँके।
बानन बरखि गयंदन फोरै।
कबहूँ उमड़ि अचानक आवै।
कबहूँ हाँकि हरौलन कूटै।
कबहूँ देस दौरि कै लावै।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 231।
बाहरी कड़ियाँ
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