श्यामजी कृष्ण वर्मा

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श्यामजी कृष्ण वर्मा
श्यामजी कृष्ण वर्मा
श्यामजी कृष्ण वर्मा
पूरा नाम श्यामजी कृष्ण वर्मा
जन्म 4 अक्टूबर, 1857
जन्म भूमि मांडवी गांव, गुजरात
मृत्यु 31 मार्च, 1930
मृत्यु स्थान जेनेवा, स्विट्ज़रलैण्ड
पति/पत्नी भानुमति कृष्ण वर्मा
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, वकील, पत्रकार
विद्यालय विल्सन हाईस्कूल, मुम्बई; ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय
शिक्षा बी.ए.
विशेष योगदान इंग्लैंड से मासिक 'द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट' प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया।
अन्य जानकारी स्वामी दयानंद सरस्वती के सान्निध्य में रहकर मुखर हुए संस्कृत व वेदशास्त्रों के मूर्धन्य विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त श्यामजी कृष्ण वर्मा 1885 में तत्कालीन रतलाम राज्य के 1889 तक दीवान पद पर आसीन रहे।

श्यामजी कृष्ण वर्मा (अंग्रेज़ी: Shyamji Krishna Varma, जन्म: 4 अक्टूबर, 1857; मृत्यु: 31 मार्च, 1930) भारत के उन अमर सपूतों में हैं, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत की आज़ादी के लिए लगा दिया। ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों से त्रस्त होकर भारत से इंग्लैण्ड चले गये श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपना सारा जीवन भारत की स्वतन्त्रता के लिए माहौल बनाने में और नवयुवकों को प्रेरित करने में लगाया। स्वामी दयानंद सरस्वती के सान्निध्य में रहकर मुखर हुए संस्कृत व वेदशास्त्रों के मूर्धन्य विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त श्यामजी कृष्ण वर्मा 1885 में तत्कालीन रतलाम राज्य के 1889 तक दीवान पद पर आसीन रहे।

जीवन परिचय

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर, 1857 को गुजरात के मांडवी गांव में हुआ था। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सन् 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मध्य प्रदेश में रतलाम और गुजरात में जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किए। सन् 1897 में वे पुनः इंग्लैंड गए। 1905 में लॉर्ड कर्ज़न की ज़्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक 'द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट' प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रांतिकारी छात्रों को लेकर इंडियन होमरूल सोसायटी की स्थापना की। श्यामजी कृष्ण वर्मा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से आज़ादी के संकल्प को गतिशील करने वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम.ए. और बैरिस्टर की उपाधियां मिलीं थीं। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था।[1]

शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र

श्यामजी कृष्ण वर्मा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से 1883 ई. में बी.ए. की डिग्री प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय होने के अतिरिक्त अंग्रेज़ी राज्य को हटाने के लिए विदेशों में भारतीय नवयुवकों को प्रेरणा देने वाले, क्रांतिकारियों का संगठन करने वाले पहले हिन्दुस्तानी थे। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा को देशभक्ति का पहला पाठ पढ़ाने वाले आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती थे। 1875 ई. में जब स्वामी दयानंद जी ने बम्बई (अब मुंबई‌) में आर्य समाज की स्थापना की तो श्यामजी कृष्ण वर्मा उसके पहले सदस्य बनने वालों में से थे। स्वामी जी के चरणों में बैठ कर इन्होंने संस्कृत ग्रंथों का स्वाध्याय किया। वे महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित परोपकारिणी सभा के भी सदस्य थे। बम्बई से छपने वाले महर्षि दयानंद के वेदभाष्य के प्रबंधक भी रहे। 1885 ई. में संस्कृत की उच्चतम डिग्री के साथ बैरिस्टरी की परिक्षा पास करके भारत लौटे। इंग्लैण्ड में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रयासों को सबल बनाने की दृष्टि से श्यामजी कृष्ण वर्मा जी ने अंग्रेज़ी में जनवरी 1905 ई. से 'इन्डियन सोशियोलोजिस्ट' नामक मासिक पत्र निकाला। 18 फ़रवरी, 1905 ई. को उन्होंने इंग्लैण्ड में ही 'इन्डियन होमरूल सोसायटी' की स्थापना की और घोषणा की कि हमारा उद्देश्य "भारतीयों के लिए भारतीयों के द्वारा भारतीयों की सरकार स्थापित करना है" घोषणा को क्रियात्मक रूप देने के लिए लन्दन में 'इण्डिया हाउस' की स्थापना की, जो कि इंग्लैण्ड में भारतीय राजनीतिक गतिविधियों तथा कार्यकलापों का सबसे बड़ा केंद्र रहा।[2]

विचारधारा

पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत की स्वतंत्रता पाने का प्रमुख साधन सरकार से असहयोग करना समझते थे। आपकी मान्यता रही और कहा भी करते थे कि यदि भारतीय अंग्रेज़ों को सहयोग देना बंद कर दें तो अंग्रेज़ी शासन एक ही रात में धराशायी हो सकता है। शांतिपूर्ण उपायों के समर्थक होते हुए भी श्यामजी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हिंसापूर्ण उपायों का परित्याग करने के पक्ष में नहीं थे। उनका यह दावा था कि भारतीय जनता की लूट और हत्या करने के लिए सबसे अधिक संगठित गिरोह अंग्रेज़ों का ही है। जब तक अंग्रेज़ स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन करने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं तब तक हिंसक उपायों की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जब सरकार प्रेस और भाषण की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगाती है, भीषण दमन के उपायों का प्रयोग करती है तो भारतीय देशभक्तों को अधिकार है कि वे स्वतंत्रता पाने के लिए सभी प्रकार के सभी आवश्यक साधनों का प्रयोग करें। उनका मानना था कि हमारी कार्रवाई का प्रमुख साधन रक्तरंजित नहीं है, किन्तु बहिष्कार का उपाय है। जिस दिन अंग्रेज़ भारत में अपने नौकर नहीं रख सकेंगे, पुलिस और सेना में जवानों की भर्ती करने में असमर्थ हो जायेंगे, उस दिन भारत में ब्रिटिश शासन अतीत की वास्तु हो जाएगा। इन्होंने अपनी मासिक पत्रिका इन्डियन सोशियोलोजिस्ट के प्रथम अंक में ही लिखा था कि अत्याचारी शासक का प्रतिरोध करना न केवल न्यायोचित है अपितु आवश्यक भी है और अंत में इस बात पर भी बल दिया कि अत्याचारी, दमनकारी शासन का तख्ता पलटने के लिए पराधीन जाति को सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाना चाहिए।[2]

सम्मान

सम्मान में जारी डाक टिकट

रतलाम में श्यामजी कृष्ण वर्मा सृजन पीठ की स्थापना भी की जा चुकी है। श्यामजी कृष्ण वर्मा की जन्मस्थली माण्डवी गुजरात क्रांति तीर्थ के रूप में विकसित किया जा रहा है। जहां स्वाधीनता संग्राम सैनानियों की प्रतिमाएं व 21 हजार वृक्षों का क्रांतिवन आकार ले रहा है। रतलाम में ही स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों के परिचय गाथा की गैलरी प्रस्तावित है, ताकि भारतीय स्वतंत्रता के आधारभूत मूल तत्वों का स्मरण एवं उनके संबंधित शोध कार्य की ओर आगे बढ़ सके, लेकिन इसके लिए रतलाम ज़िला प्रशासन एवं मध्यप्रदेश शासन की मुखरता भी अपेक्षित है।[3]

निधन

क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा इनके शिष्यों में से एक थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। वीर सावरकर ने उनके मार्गदर्शन में लेखन कार्य किया था। 31 मार्च, 1933 को जेनेवा के अस्पताल में इनका निधन हुआ।

अंतिम इच्छा

सात समंदर पार से अंग्रेज़ों की धरती से ही भारत मुक्ति की बात करना सामान्य नहीं था, उनकी देश भक्ति की तीव्रता थी ही, स्वतंत्रता के प्रति आस्था इतनी दृढ़ थी कि पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपनी मृत्यु से पहले ही यह इच्छा व्यक्त की थी कि उनकी मृत्यु के बाद अस्थियां स्वतंत्र भारत की धरती पर ले जाई जाए। भारतीय स्वतंत्रता के 17 वर्ष पहले दिनांक 31 मार्च, 1930 को उनकी मृत्यु जिनेवा में हुई, उनकी मृत्यु के 73 वर्ष बाद स्वतंत्र भारत के 56 वर्ष बाद 2003 में भारत माता के सपूत की अस्थियां गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर देश की धरती पर लाने की सफलता मिली।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्यामजी कृष्ण वर्मा (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 27 मार्च, 2014।
  2. 2.0 2.1 क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा (हिन्दी) क्रांतिवीर। अभिगमन तिथि: 27 मार्च, 2014।
  3. 3.0 3.1 जोशी, पं. बाबूलाल। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पं. श्याम जी कृष्ण वर्मा (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 27 मार्च, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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