प्यासा (फ़िल्म)
प्यासा (फ़िल्म)
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निर्देशक | गुरु दत्त |
निर्माता | गुरु दत्त |
लेखक | अबरार अल्वी |
कहानी | अबरार अल्वी |
संवाद | अबरार अल्वी |
कलाकार | गुरु दत्त, माला सिन्हा, वहीदा रहमान, जॉनी वॉकर, महमूद, रहमान |
प्रसिद्ध चरित्र | विजय (गुरु दत्त) |
संगीत | सचिन देव बर्मन |
गायक | मो. रफ़ी, हेमंत कुमार, गीता दत्त |
प्रसिद्ध गीत | ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, सर जो तेरा चकराये |
संपादन | वाई. जी. चाव्हाण |
प्रदर्शन तिथि | 19 फ़रवरी, 1957 |
अवधि | 146 मिनट |
भाषा | हिंदी |
सिनेमेटोग्राफ़ी | वी. के. मूर्ति |
अन्य जानकारी | विश्व प्रसिद्ध पत्रिका टाइम की वेबसाइट ने 10 सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फ़िल्मों की एक सूची में ‘प्यासा’ को शीर्ष पांच फ़िल्मों में स्थान दिया गया है। |
प्यासा (अंग्रेज़ी: Pyaasa) गुरुदत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत हिंदी सिनेमा की सदाबहार रोमांटिक फ़िल्मों में से एक है। जिस प्रकार साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। उसी प्रकार फ़िल्में भी समकालीन परिस्तिथियों से प्रभावित होती हैं। फ़िल्म 'प्यासा' भी तत्कालिक प्रभावों से अछूती नहीं है। समाज के छल और कपट से आक्रोशित नायक द्वारा अपना मौलिक अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देना, इस चरम सीमा की इसी हताशा को गुरुदत्त ने बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है। विश्व प्रसिद्ध पत्रिका टाइम की वेबसाइट ने 10 सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फ़िल्मों की एक सूची पेश की है। जिसमें ‘प्यासा’ को शीर्ष पांच फ़िल्मों में स्थान दिया गया है। यह फ़िल्म 1957 में आई थी। इस फ़िल्म में एक संघर्षशील कवि और उसकी एक सेक्स वर्कर के साथ दोस्ती को ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश किया गया है। 'प्यासा' में आजादी से पहले के भारत के हालात दर्शाए गए हैं। इसके पहले टाइम पत्रिका ने वर्ष 2005 में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था।
टाइम पत्रिका का कहना है कि भारतीय फ़िल्मों में अब भी परिवार के प्रति निष्ठा और सभी का प्यार से दिल जीतने की भावना देखने को मिलती है। टाइम की सूची में पहले स्थान पर 'सन ऑफ द शेख' (1926), दूसरे पर 'डॉड्सवर्थ' (1939), तीसरे पर 'कैमिली' (1939), चौथे पर 'एन एफे़यर टू रिमेम्बर' (1957) और पांचवे स्थान पर 'प्यासा' (1957) को रखा गया है।[1]
कथानक
आज़ादी के 10 वर्ष बाद 1957 में रिलीज फ़िल्म "प्यासा" संघर्षरत कवि विजय (गुरुदत्त) की कहानी है, जो श्रेष्ठ होते हुए भी अपनी कृतियों को स्थान नहीं दिला पाए। विजय की रचनाएँ अमीरों के अत्याचारों का विरोध व ग़रीबों के समर्थन में हैं। पर प्रकाशकों ने उनका महत्व न समझा और स्वयं उनके भाई उनके लेखन को व्यर्थ समझते हैं तथा उनकी रचनाओं को एक कबाड़ी को बेच देते हैं। ये रचनाएं संयोग से गुलाबो (वहीदा रहमान) ख़रीदती है तथा इन पंक्तियों को गुनगुनाती है। समाज के ढर्रे से त्रस्त विजय घर छोड़ देता है और उसका अधिकांश समय सड़कों पर ही गुजरता है। एक संयोगवश गुलाबो की भेंट विजय की मित्र मीना (माला सिन्हा) से होती है जिसने विजय की ग़रीबी के कारण एक प्रकाशक घोष बाबू (रहमान) से शादी कर ली। परन्तु वह अपने वैवाहिक जीवन से खुश नहीं है और वापस विजय के जीवन में आना चाहती है, परन्तु विजय को मंज़ूर नहीं।
दूसरी ओर विजय को एक दुर्घटना में चोट लगती है और वह एक संयोगवश मृत समझ लिया जाता है। गुलाबो अपने कुछ अन्य प्रभावशाली परिचितों की सहायता से विजय की रचनाएं प्रकाशित करा देती है। ये कवितायेँ घोष इस आशा से प्रकाशित करता है कि वह विजय की मृत्यु से उपजी सहानुभूति का लाभ उठाकर धन कमा लेगा पर उसके भाई (महमूद) घोष के पास जाते है और वो पैसा हथियाने के लिए प्रयास करते हैं। परन्तु विजय जीवित है और उसका इलाज़ एक मानसिक रोग अस्पताल में चल रहा है। एक दिन नर्स से अपनी ही प्रकाशित रचना सुन कर तथा अपनी प्रसिद्धि का समाचार जान कर विजय सामान्य हो जाता है। परन्तु कोई उसका विश्वास नहीं करता तथा उसको पागलों वाले कमरे में ही रखा जाता है। घोष को जब यह पता चलता है तो वह विजय के मित्र श्याम व भाईयों को अपने रचे षड्यंत्र में शामिल कर लेता है तथा सब मिल कर उसको पहचानने से मना कर देते हैं। फिर शुरू होती है विजय की दुनिया के सामने अपना अस्तित्व साबित करने की कशमकश।[2]
कहानीकार
अबरार अल्वी की लिखी यह कहानी एक सन्देश समेटे हुए है और ये सन्देश अपने उत्कृष्ट अभिनय के माध्यम से गुरुदत्त, वहीदा रहमान, जॉनी वाकर, रहमान व माला सिन्हा ने प्रस्तुत किया है।
निर्देशन
गुरु दत्त का निर्देशन ठोस है और उन्होंने बेहद उम्दा पटकथा दी है। फ़िल्म का चरम दिल छू लेने वाला है और पूरे फ़िल्म की जान है। गुरु दत्त ने एक बेहतरीन और भावुक चरम से दुनिया की सच्चाई सामने रखने की कोशिश की है।
संगीत
फ़िल्म में संगीत ठोस है और फ़िल्म की थीम पर सही बैठता है। एस. डी. बर्मन का संगीत तथा मोहम्मद रफ़ी के गाये कुछ गीत आज भी उतने ही पसंद किये जाते हैं।
क्रमांक | गाना | गायक/ गायिका का नाम |
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1. |
आज सजन मोहे संग लगा लो |
गीता दत्त |
2. | हम आपकी आँखों में इस दिल को | गीता दत्त, मोहम्मद रफ़ी |
3. | सर जो तेरा चकराये | मोहम्मद रफ़ी |
4. | जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को | हेमंत कुमार |
5. | ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है | मोहम्मद रफ़ी |
6. | जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं | मोहम्मद रफ़ी |
7. | जाने क्या तूने कही | गीता दत्त |
8. | तंग आ चुके हैं कश्मकश-ए-ज़िंदगी से हम | मोहम्मद रफ़ी |
9. | ये हँसते हुए फूल, यह महका हुआ गुलशन | मोहम्मद रफ़ी |
10. | गम इस क़दर बढ़े कि मैं घबरा के पी गया | मोहम्मद रफ़ी |
संवाद
फ़िल्म में संवाद भी अबरार अल्वी के हैं, जो फ़िल्म की जान हैं। "अपने शौक़ के लिए प्यार करती है और अपने आराम के लिए प्यार बेचती है" संवाद विजय के साथ हुई बेवफ़ाई बयान करती है। वही "तो मै यहाँ क्या कर रहा हूँ मैं जिन्दा क्यों हूँ, गुलाबो" निराश हताश विजय की दुर्दशा दिखाती है। हालाँकि फ़िल्म एक दृष्टि से बहुत ही धीमे चलती है और कुछ स्थानों पर थोड़ी बोरियत सी लगती है। पर गीत, संगीत, अभिनय, संवाद शेष सभी कसौटियों पर खरी उतरती है। 'प्यासा' आज भी उतना ही महत्व रखती और और शायद इसलिए ही इस फ़िल्म की आज भी उतनी ही महता है।
कलाकार
प्यासा में गुरु दत्त, माला सिन्हा और वहीदा रहमान ने प्रमुख भूमिका निभाई हैं। इनके अलावा जॉनी वॉकर, रहमान और महमूद की भी महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं।
क्रमांक | कलाकार | पात्र का नाम | चित्र | विशेष |
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1. | माला सिन्हा | मीना | ||
2. | गुरुदत्त | विजय | कवि | |
3. | वहीदा रहमान | गुलाबो | ||
4. | रहमान | मि. घोष | प्रकाशक, मीना के पति | |
5. | जॉनी वॉकर | अब्दुल सत्तार | तेल मालिश करने वाला | |
6. | कुमकुम | जूही | ||
7. | लीला मिश्रा | माँ | विजय की माँ | |
8. | महमूद | विजय का भाई | भाई | |
9. | टुनटुन | पुष्पलता |
रोचक तथ्य
प्यासा फ़िल्म से जुड़े कुछ रोचक तथ्य इस प्रकार हैं[3]-
क्रमांक | तथ्य |
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1. | व्यवसायिक दृष्टिकोण से कुछ सफल फ़िल्में बनाने के बाद गुरुदत्त कुछ फ़िल्में अपनी रुचि के अनुसार बनाना चाहते थे, जो उनके मन को सुकून दे सके। इनमें से ही एक फ़िल्म प्यासा थी। |
2. | फ़िल्म की कहानी हिमाचल के एक असफल कवि चन्द्रशेखर प्रेम की अपनी कहानी है जिसको अपनी रचना को बम्बई जाकर बेचनी पडी। उसने उर्दू हिंदी में बहुत सी किताबें लिखी परन्तु उनके लिए वह कभी प्रसिद्ध न हो सका। |
3. | फ़िल्म का अंत परिस्तिथियों से समझौता कर किया जाय या नहीं इस पर भी बहुत विचार विमर्श हुआ। अंत में फ़िल्म का अंत गुरुदत्त ने अपनी पसंद से किया। |
4. | अपनी इस विख्यात फ़िल्म के लिए गुरु दत्त ट्रेजेडी किंग दिलीप साहब को लेना चाहते थे परन्तु उनके मना करने पर उन्होंने स्वयं इस रोल को निभाया। |
5. | एक धीमी शरुआत के बाद फ़िल्म सफल रही। विडंबना ही कही जाएगी कि गुरुदत्त के जीवन काल में तो नहीं परन्तु उनके बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत सराहना मिली। फ्रांस, जर्मनी में फ़िल्म बहुत पसंद की गयी। फ्रेंच प्रीमियर में इसका शो हुआ, तद्पश्चात् नौवें अंतर्राष्ट्रीय एशियन फ़िल्म फेस्टिवल में भी इसको प्रदर्शित किया गया। |
6. | टाइम्स रीडर्स ने इसको सर्वकालिक टॉप दस फ़िल्मों में सम्मिलित किया। आज भी इस फ़िल्म को पसंद करने वाले दर्शक हैं। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्यासा सबसे रोमांटिक फ़िल्मों में से एक: टाइम (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 12 दिसम्बर, 2012।
- ↑ प्यासा (Pyaasa Movie) (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 12 दिसम्बर, 2012।
- ↑ Pyaasa (1957) (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 12 दिसम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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