बनारसी साड़ी

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बनारसी साड़ी में विदेशी महिला, वाराणसी

बनारसी साड़ी सभी साड़ियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जो मुख्य रूप से वाराणसी में बनाई जाती हैं। लाल, हरी और अन्य गहरे रंगों की ये साड़ियाँ हिंदू परिवारों में किसी भी शुभ अवसर के लिए आवश्यक मानी जाती हैं। उत्तर भारत में अधिकांश बहू-बेटियाँ बनारसी साड़ी में ही विदा की जाती हैं।

महत्त्व

बनारसी साड़ियों की कारीगरी सदियों पुरानी है। जरी, बेलबूटे और शुभ डिज़ायनों से सजी ये साड़ियाँ हर आयवर्ग के परिवारों को संतुष्ट करती हैं और उनकी ज़रूरतें पूरी करती हैं। बनारसी साड़ियाँ सुहाग का प्रतीक मानी जाती हैं। पारंपरिक हिंदू समाज में बनारसी साड़ी का महत्व चूड़ी और सिंदूर के समान है। उत्तर भारत की विवाहित और सधवा स्त्रियाँ विवाह के अवसर पर मिली इन साड़ियों को बड़े यत्न से संभालकर रखती हैं। केवल ख़ास-शुभ अवसरों पर ही स्त्रियाँ बनारसी साड़ियों को पहनती हैं।

इतिहास

बनारसी साड़ी का मुख्य केंद्र प्रारम्भ से ही बनारस रहा है। इसके अतिरिक्त यह साड़ी मुबारकपुर, मऊ और खैराबाद में भी बनाई जाती हैं। यह माना जा सकता है कि यह वस्त्र कला भारत में मुग़ल बादशाहों के आगमन के साथ ही आई। पटका, शेरवानी, पगड़ी, साफ़ा, दुपट्टे, बैड-शीट, मसन्द आदि के बनाने के लिए इस कला का प्रयोग किया जाता था। चूंकि भारत में साड़ियों का प्रचलन अधिक था, इसीलिए ईरान, इराक, बुखारा शरीफ आदि से आए हथकरघा के कारीगरों द्वारा विभिन्न प्रकार के डिज़ायनों को साड़ियों में डाला जाता था, यथा- बेल, बूटी, आंचल एवं कोनिया आदि। उस समय में रेशम एवं ज़री के धागों का प्रयोग किया जाता था। ताने में कतान और बाने में पाट बाना प्रयोग किए जाते थे, जिस के परिणामस्वरूप वस्त्र अति मुलायम व गफदार बनते थे। पूर्व में नक्शा, जाला से साड़ियाँ बनाई जाती थीं। उसके बाद डाबी तथा जेकार्ड का प्रयोग होने लगा, जो कि परम्परा से हटकर माना जा सकता है और अब यह पावर-लूम के रूप में विकसित हुई मानी जा सकती है। बनारसी साड़ी बनाने वाले अधिकतर कारीगर मुस्लिम अनसारी होते हैं। भारत के प्रसिद्ध कवि कबीर भी एक बुनकर थे। मुख्य रूप से इस साड़ी के ख़रीददार गुजराती, मारवाड़ी और राजपूत होते हैं। प्राचीन समय से ही बनारसी साड़ियों का प्रयोग विशेषतौर से विवाह समारोहों में दुल्हन व नवविवाहित स्त्रियों द्वारा प्रयोग किया जाता था। भारतीय समाज में आज भी यह परम्परा कुछ परिवर्तनों के साथ जारी है।

ज़री का काम

ज़री का प्रयोग

बनारसी साड़ियों पर ज़री का प्रयोग अधिकांत: किया जाता है, जिससे साड़ियों की सुन्दरता में वृद्धि होती है। ज़री के इस कार्य को ज़रदोज़ी कहा जाता है। ज़री सोने का पानी चढ़ा हुआ चाँदी का तार है। काशी ज़री उद्योग का केंद्र रहा है। बनारस की प्रसिद्ध बनारसी सड़ियाँ और दुपट्टे शताब्दियों से लोकप्रिय रहे हैं। आज इनकी खपत, अमेरिका, ब्रिटेन और रूस आदि देशों में क्षिप्र गति से वृद्धि प्राप्त कर रही है। गुजरात वर्तमान भारतीय ज़री तार उद्योग का केंद्र है। इसके पूर्व काशी ही इसका केंद्र था।

डिज़ायन बनाना

साड़ियों पर तरह-तरह के डिज़ायन बनाये जाते हैं, जिनमें ज़री का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। ज़री की ख़ासियत ये होती है कि साड़ियों पर इसका प्रयोग हाथ से किया जाता है। इसमें किसी भी तरह की मशीन का कोई इस्तेमाल नहीं होता है। हाथ से किया गया ये काम इतना बारीक़ और ख़ूबसूरत होता है कि कोई भी इसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकता। हाथ से की गई इस कारीगरी में एक डिज़ायन को पूरा करने में कई-कई दिन लग जाते हैं। लकड़ी का अड्डा (फ्रेम) बनाकर उसमें सलमा-सितारे, कटदाना, कसब, नलकी, मोती, स्टोन आदि बड़ी सफाई से टांकते है।[1]

बूटी

साड़ियों में बूटी छोटी तस्वीरों की आकृति लिए हुए होता है। इसके अलग-अलग पैटर्न दो या तीन रंगों के धागे की सहायता से बनाये जाते हैं। यदि पाँच रंग के धागों का प्रयोग किया जाता है तो इसे 'पचरंगा'[2] कहा जाता है। यह बनारसी साड़ी के लिए प्रमुख आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण डिज़ायनों में से एक है। इससे साड़ी की जमीन या मुख्य भाग को सुसज्जित किया जाता है। पहले रंग को 'हुनर का रंग' कहा जाता है, जो साधारणत: सोने या चाँदी की एक अतिरिक्त भरनी से बनाया जाता है, जिसके लिए 'सिरकी' का प्रयोग किया जाता है।

बनारसी साड़ियाँ

यद्यपि वर्तमान में इसके लिए रेशमी धागों का भी प्रयोग किया जाता है, जो 'मीना' कहलाता है। यह रेशमी धागे से ही बनता है।

बूटा

बनारसी साड़ी में यदि बूटी की आकृति को बड़ा कर दिया जाये, तो इस बढ़ी आकृति को 'बूटा' कहते हैं। छोटे-बड़े पेड़-पौधे, जिसके साथ छोटी आकार की पत्तियाँ, फूल लगे हों, इसी आकृति को बूटे से उकेरा जाता है। यह पेड़-पौधे भी हो सकते हैं और कुछ फूल भी। सोने, चाँदी या रेशमी धागे या इनके मिश्रण से बूटा की कढ़ाई की जाती है। रंगों का चयन डिज़ायन तथा आवश्यकता के अनुसार किया जाता है। बूटा साड़ी के किनारों, पल्लु तथा आंचल में काढ़ा जाता है, जबकि ब्रोकेड के आंगन में। कभी-कभी साड़ी के किनारे में एक विशेष प्रकार के बूटे को काढ़ा जाता है, जिसे स्थानीय लोग अपनी भाषा में 'कोनिया' कहकर सम्बोधित करते हैं।

कोनिया

एक विशेष आकृति के बूटे को बनारसी साड़ियों के कोने में काढ़ा जाता है, इसे ही 'कोनिया' कहते हैं। साड़ी में डिज़ायन आकृति को इस तरह से बनाया जाता है, कि वे कोने के आकार में आसानी से आ सकें। बूटे से साड़ी को और अच्छी तरह से अलंकृत किया जा सके। जिन वस्त्रों में स्वर्ण तथा चांदी के धागों का प्रयोग किया जाता है, उन्हीं में कोनिया को बनाया जाता है। साधारणत: कोनिया काढ़ने के लिए रेशमी धागों का प्रयोग नहीं किया जाता, क्योंकि रेशमी धागों से शुद्ध फूल पत्तियों का डिज़ायन सही ढ़ग से नहीं उभर पाता। पल्लु के डिज़ायन के बाद, कोने से कोनिया बनाया जाता है, जो प्राय: आम के आकार का रहता है और जो बनाने में बहुत कठिन होता है। क्योंकि इसमें एक साथ तीन जालों से बुनाई की जाती है।

बेल

विभिन्न प्रकार की बनारसी साड़ियाँ

बेल आरी या धारीदार फूल और पत्तियों या ज्यामितीय ढंग से सजाए गए डिज़ायन होते हैं। इन्हें क्षैतिज आड़े या टेड़े-मेड़े तरीके से बनाया जाता है, जिससे कि एक भाग को दूसरे भाग से पृथक् किया जा सके। कभी-कभी बूटियों को इस तरह से सजाया जाता है कि वे पट्टी की आकृति में आये। विभिन्न जगहों पर अलग-अलग प्रकार के बेल बनाए जाते हैं। बेल साडी के किनारे पर लगती है और चार अंगुल में नापी जाती है। इस प्रकार से साड़ी के घूँघट का नाप तय किया जाता है। फूल-पत्तियों के अतिरिक्त विभिन्न पशु-पक्षियों व मानव की आकृतियाँ भी इसमें बनाई जाती हैं।

जाल का प्रयोग

साड़ी में जाल का प्रयोग जाल के आकृति लिए हुए होता है। जाल एक प्रकार का बंदिश है, जिसके भीतर बूटी बनाई जाती है। इसे जाल या फिर जंगला भी कहा जाता है। यह डिज़ायन प्राकृतिक तत्वों से प्रभावित है। जंगला कतान और ताना का प्लेन वस्त्र है। ताना-बाना कतान का रहता है और डिज़ायन के लिए सुनहरी अथवा चाँदी की ज़री का प्रयोग किया जाता है। इसमें समस्त फूल, पत्ते, जानवर और पक्षी इत्यादि बनाये जाते हैं। जंगला, जाल से बहुत कुछ मिलता जुलता है। अगर जंगले में मीनाकारी करनी हो तो विभिन्न रंग के रेशम के धागों का प्रयोग होता है। यही विधि बेल जंगला बनाने में भी अपनाई जाती है।

झालर

झालर के प्रयोग से साड़ी की सुन्दरता और बढ़ जाती है। बॉर्डर के तुरंत बाद ही, जहाँ से कपड़े का मुख्य भाग 'अंगना' शुरु होता है, वहीं एक विशेष प्रकार का डिज़ायन साड़ी को अधिक अलंकृत करने के लिए दिया जाता है, जिसे 'झालर' कहते हैं। साधारणत: यह बॉर्डर के डिज़ायन से रंग तथा मटेरियल से मेल लिए हुए होता है। झालर में तोता, मोर, पान, पत्तियाँ, मोटिव डिज़ायन आदि बनाए जाते हैं। ये बनारस की अपनी अलग परम्परा नहीं है, किंतु अब लोगों ने बनारसी साड़ी में भी ज़रदोज़ी का काम करना प्रारम्भ कर दिया है। बनारसी साड़ी तथा वस्त्र के अतिरिक्त अन्य साड़ी, सूट के कपड़े, पर्दा, कुशन कवर आदि में भी अधिकांशतः मुस्लिम सम्प्रदाय के कारीगर लगे हुए हैं। ज़रदोज़ी बहुत ही कलात्मक तथा धैर्य का काम है। इसकी बारीकी को समझने के लिए यह आवश्यक है कि इसे कम आयु से ही सीखा जाए।

कपड़ा मंत्रालय का संरक्षण

देश-विदेश में अपने बेहतरीन डिज़ायनों के लिए मशहूर बनारस की साड़ी और ज़री के काम को भौगोलिक रुप से क़ानूनी संरक्षण मिल गया है। यह संरक्षण कपड़ा मंत्रालय के तहत कपड़ा समिति ने भौगोलिक संकेत क़ानून 1999 के तहत प्रदान किया है। समिति कपड़ा मंत्रालय के तहत एक संवैधानिक संस्था है। देश के इस परम्परागत ख़ज़ाने पर घरेलू उत्पादकों और आयातकों द्वारा हमेशा अतिक्रमण किया जाता रहा है। इन उत्पादों की ऊँची कीमत और बाज़ार हिस्से को अतिक्रमण के ज़रिये उड़ा लिया जाता था। संरक्षण से बनारस के इन उत्पादों को देश और विदेश में विकास करने में मदद मिलेगी।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धुंधली पड़ रही है जरी कारीगरी की चमक (हिन्दी) (पी.एच.पी) जनोक्ति। अभिगमन तिथि: 2 मई, 2011
  2. जामेवार
  3. ज़री के काम को क़ानूनी मान्यता (हिन्दी) (पी.एच.पी) complete Grassroots news update। अभिगमन तिथि: 2 मई, 2011

बाहरी कड़ियाँ

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