बनारस या वाराणसी में पीतल एवं तांबे से बने कलात्मक चीजों एवं पात्रों का प्रचलन अन्य उद्योग जैसे साड़ी तथा काष्ठकला के समान ही अति प्राचीन है। इसका मुख्य कारण काशी का पुण्यधाम होना है। जब तीर्थयात्री बनारस आते थे तो वे लोग यहां पर विभिन्न तरह के संस्कार तथा पूजा पाठ में उपयुक्त होने वाले पात्रों को ख़रीदते थे। कुछ पात्र ख़रीदकर घर भी ले जाते थे। इन्हीं कारणों से यह उद्योग विकसित तथा पुष्पित होता रहा। यहां के पात्रों की कलात्मकता इतनी अच्छी थी कि इनकी मांग धीरे-धीरे अन्य धार्मिक स्थानों एवं नगरों में भी होने लगी। एक समय ऐसा भी आया जब यहां के अनुष्ठानी पात्र तथा सिहांसन, त्रिशूल, घंटी, घंटा, घुंघरू आदि की मांग देवघर, वृन्दावन, उज्जैन और तो और नेपाल के काठमांडू शहर के पशुपतिनाथ मंदिर के परिसर तक होने लगी। इसी के साथ-साथ धीरे-धीरे यहां के ताम्र कलाकारों ने और भी बहुत से सजावट की वस्तु, घरेलू उद्योग के पात्र, मूर्ति एन्टीक पीस इत्यादि भी बनाना प्रारंभ कर दिया। इससे भी इसका विस्तार होने लगा, तथा जगह-जगह पर इनके द्वारा बनाए गए 'कला-कृतियों' की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ ती गयी।[1]
प्रारंभ में यहां केवल धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण होता रहा। इन पात्रों में प्रमुख नाम इस प्रकार है:
क्रमांक | पात्र | चित्र |
---|---|---|
1 | पंचपात्र | |
2 | अर्ध्य | |
3 | आचमन | |
4 | दीप | |
5 | घंटी | |
6 | घंटा | |
7 | मंगल कलश | |
8 | त्रिशूल | |
9 | लोटा | |
10 | कमण्डल | |
11 | मूर्ति | |
12 | घुंघरू |
ताम्रकला उद्योग का सार्वभौमिक स्वरूप
मुसलमानों के भारत आगमन के बाद ताम्र उद्योग (कला) पर भी इस्लाम का प्रभाव पड़ा। परन्तु इस कला ने भी इस्लाम की कला को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। धीरे-धीरे यहां के ताम्र-कलाकारों ने मुसलमानों के शादी-विवाह या अन्य उत्सवों में प्रयुक्त होने वाले नक़्क़ाशीयुक्त बर्तन (पात्र), थाल, तरवाना इत्यादि बनाना प्रारंभ किया। पात्रों की कलात्मक में अत्यधिक आकर्षण था। इस कलात्मकता आकर्षण से हिन्दू भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। धीरे-धीरे हिन्दुओं ने भी इन पात्रों का उपयोग अपने यहां के उत्सवों तथा शादी-विवाह आदि के आयोजनों में करना प्रारम्भ कर दिया।
'बदना' का निर्माण
कालान्तर में मुसलमानों द्वारा व्यवहार में लाया जाने वाला 'बदना' का निर्माण भी पूर्णतः कलात्मक ढंग से काशी के कसेरों ने प्रारंभ किया। 'बदना' में इनके द्वारा निखारी गयी कलात्मकता ने सभ्रान्त मुसलमान, यहां तक कि मुग़ल बादशाहों, रईसों और लखनऊ के नवाबों का भी मन मोह लिया। इनकी कला-क्षमता तथा प्रयोगवादिता से प्रभावित होकर इन लोगों ने काशी के ताम्र कलाकारों को प्रोत्साहित करना शुरु किया। प्रोत्साहन आर्थिक मदत तथा सामाजिक मर्यादा या सम्मान दोनों ही रुप में दिया जाता था। ताम्र कलाकार इससे और अधिक प्रोत्साहित होकर एक से एक कलात्मक तथा मनमोहक ताम्र-कलाकृतियों का निर्माण करते रहे। इनकी कलाकृति आश्चर्यजनक, आकर्षक, प्रयोगवादी तथा अपने आप में एक अनूठी चीज थी।
इसके अतिरिक्त बनारस के ताम्र-कलाकारों ने हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ रखा। इस तरह से यहां की ताम्र-कला तीव्रगति से आगे बढ़ते हुए फलती-फूलती तथा विकसित होती रही। कुछ अंश में स्थानीय लोग तथा बहुतायत में तीर्थयात्रियों द्वारा इन कला-कृतियों की खपत होती रही। रईसों ने भी इनसे अपना सम्पर्क बनाए रखा।[1]
इतिहास
70 तथा 80 के दशक में बजार में एकाएक इस्पात (स्टील) तथा एल्युमिनियम का धमाके के साथ आगमन हुआ। जहां तांबे, पीतल, कांसे आदि के बने पात्रों की कीमत दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी वहीं इस्पात के बर्तन काफ़ी सस्ते पड़ते थे। चूंकि बर्तनों का निर्माण बड़े बड़े फैक्ट्रियों में किया जाता था अतः स्वाभाविक रुप से इसमें मज़दूरी भी धातु की तुलना में काफ़ी कम लगती थी। कुछ ही वर्षों में इन दोनों चीजों ने ख़ासकर इस्पात ने पूरे बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा कर लिया। लोग इस्पात के उपकरणें के दिवाने होने लगे। इस्पात का उपकरण 'आइडेन्टीटी प्राइड' बन गया। फिर क्या था थाली, रसोई के बर्तन, ग्लास, कप और न जाने क्या-क्या चीज इस्पात की बनने लगी। और तो और पूजा के थाल, फूलों की डलिया, कमण्डल इत्यादि जैसे चीजों का भी निर्माण इस्पात से होने लगा। हालांकि यज्ञ-अनुष्ठानों एवं धार्मिक कार्यों के लिए एल्यूमिनियम के बर्तन को अपवित्र माना गया, परन्तु पण्डितों एवं शास्रज्ञों ने बहुत से अनुष्ठानिक क्रिया-कलापों में भी इस्पात के पात्र को व्यवहार में लाने की इजाजत लोगों को दे दी। धीरे-धीरे स्थिति इतनी विकराल हो गई कि काशी के विश्वनाथ गली में ताम्रपात्र तथा अन्य कलाकृति बेचने वाले ताम्रपात्र कम और इस्पात के पात्र अधिक बेचने लगे। एकाएक ऐसा लगने लगा मानो 'ताम्रकला' का नामो-निशान ही मिट जाएगा। इसमें सदियों से लगे 'ताम्र-कलाकार' तथा ताम्र-व्यवसायी दोनों ही काफ़ी परेशान हो गए।
लोग वर्तमान पुनः प्राचीन तथा परम्परागत चीजों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। आजकल लोगों का ध्यान प्राकृतिक चिकित्सा, तथा हर्बल चिकित्सा पर भी बढ़ा है। इसी के क्रम में अच्छे डाक्टरों तथा सभ्रान्त एवं पढ़े-लिखे लोगों के घरों में भी ताम्बे-पीतल तथा अन्य धातुओं के बर्तनों का प्रयोग पानी पीने, पानी रखने तथा कभी-कभी भोजन बनाने के पात्रों के रुप में भी किया जा रहा है। हालांकि यह एक तदर्थ बात है कि पिछले पचास वर्षों में विभिन्न कारणों से वाराणसी के 'मेटल वर्करों' की संख्या में कमी आयी है। यह एक आश्चर्यजनक बात है। एक ओर जहां सिल्क साड़ी तथा वस्र उद्योग एवं काष्ठ-कला में कार्यरत लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। वहीं ताम्र तथा अन्य धातु उद्योग में लगे कलाकारों की संख्या में दिन प्रतिदिन ह्यस। निश्चित ही यह एक विचारणीय प्रश्न है।[1]
कलाकारों का वर्गीकरण
वाराणसी के ताम्र कलाकारों को मोटे तौर पर चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- रिपोजी या इन्ग्रेवींग करने वाले कलाकार
- धार्मिक अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण करने वाले कलाकार
- सजावटी समान (एन्टीक पीस) इत्यादि का निर्माण करने वाले कलाकार।
- घरेलू बर्तनों का निर्माण करने वाले कलाकार।
ताम्र कलाकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो पुराने तांबे के पात्रों को गलाने का काम करता है। तांबे को गलाकर फिर उसके केक को पिटउआ बर्तन या पात्र बनाने के लिए ताम्र कलाकारों को ये दे देते हैं।
प्रमुख कलाकृतियो के नाम
- लोटा
- कमण्डल
- फूलों की डालिया
- गंगाजल पात्र
- वरगुणा
- पंचपात्र
- घुंघरु
- बदना
- पानदान
- घंटी
- देवी-देवताओं की मूर्तियां
- मंगल कलश
- झूले
- पालना
- तबला
- झालर
- रसोई में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न पात्र
- घण्टी
- तरबाना (इसे प्रचलित भाषा में कोपर भी कहा जाता है। शादी विवाह के समय कन्यादान के समय प्रयुक्त किया जानेवाला पात्र।)
- आचमनी।[1]
प्रयुक्त किये जानेवाले उपकरण
ताम्रकला में उपकरण (औजार) की तुलना में हाथ की सफाई तथा मानसिक सोच का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें बहुत ही सीमित औजारों का प्रयोग किया जाता है। जो लोग पूर्व में व्यवहार किये गये उपकरणों को ख़रीद कर उसे गलाते हैं और गलाकर प्लेट बनाते हैं वे निम्नलिखित औजारों का प्रयोग करते हैं:
- छोटी संख्या
- बड़ी संडसी
- छोटा चिमटा
- बड़ा चिमटा
- कलछुल (बड़े साइज का)
- सब्बल (दो बड़े आकार में)
- घड़ियां (यह ताप का कुचालक होता है। घड़ियां वनारस में नहीं बनाई जाती बल्कि यह चेन्नई से बनकर यहां आती है। यह घड़े तथा बाल्टी की आकृति में होती हैं। इसका व्यवहार कच्चे माल को गलाने के लिये किया जाता है।)
- डाई (इसमें गले पिघले हुए माल को डालकर उसका प्लेट बनाया जाता है।)
- हथोड़ा।
एक 25 न. के घड़िया में (घड़िया विभिन्न नम्बरों तथा आकृतियों में उपलब्ध होता है।) 40 किलो तक कच्चे माल को पिघलाया जाता है। अगर लगातार बिजली उपलब्ध हो तो 3 आदमी मिलकर 12 घंटे में 2 कुंतल माल को गला लेते हैं। पुराने (कच्चे) माल को थोक के व्यापारियों से ख़रीदा जाता है। इसी तरह से पीटकर बनाए जाने वाले पात्रों के निर्माण के लिए निम्नलिखित औजारों को उपयोग में लाया जाता है।
- सबरा
- मधन्ना
- हथौड़ा
मधन्ना एक प्रकार की छोटी हथौड़ी है जिससे पीटा जाता है और उपकरण तैयार किया जाता है। मशीन से बनाए जाने वाले पात्रों एवं कलाकृतियों में केवल निम्नलिखित औजारों का प्रयोग हाथ द्वारा यहां के कलाकार करते हैं।
- हवाई स्टील (यह छोटे बड़े विभिन्न आकार में उपलब्ध होता है।)
- डाइमण्ड स्टील (इसका प्रयोग काटने के लिए किया जाता है)।
- हवाई स्टील का काम खुरचने तथा आकृति देने के लिए किया जाता है।
- इसी प्रकार एन्टीक पीस, बनाने के लिए भी मधन्ना, सबरा, हथौड़ा, प्रकाल, स्केल इत्यादि औजारों की सहायता ली जाती है।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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