बुद्धू का काँटा भाग-3

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कुएँ पर देखा कि छह-सात स्त्रियाँ पानी भरने और भरकर ले जाने की कई दशाओं में हैं। गाँवों में परदा नहीं होता। वहाँ सब पुरुष सब स्त्रियों से और सब स्त्रियाँ सब पुरुषों से निडर होकर बातें कर लेती हैं। और शहरों के लम्बे घूँघटों के नीचे जितना पाप होता है, उसका दसवाँ हिस्सा भी गाँवों में नहीं होता। इसी से तो कहावत में बाप ने बेटे को उपदेश दिया है कि लंबे घूँघट-वाली से बचना। अनजान पुरुष किसी भी स्त्री से ‘बहन’ कहकर बात कर लेता है और स्त्री बाजा में जाकर किसी भी पुरुष से ‘भाई’ कहकर बोल लेती है। यही वाचिक संधि दिन भर के व्यवहारों में ‘पासपोर्ट’ का काम दे देती है। हँसी-ठट्ठा भी होता है, पर कोई दुर्भाव नहीं खड़ा होता। राजपूताने के गाँवों में स्त्री ऊँट पर बैठी निकल जाती है और खेतों के लोग ‘मामीजी, मामीजी’ चिल्लाया करते हैं न उनका अर्थ उस शब्द से बढ़कर कुछ होता है और न वह चिढ़ती है। एक गाँव में बारात जीमने बैठी। उस समय स्त्रियाँ समधियों को गाली गाती हैं। पर गालियाँ न गाई जाती देख नागरिक-सुधारक बराती को बड़ा हर्ष हुआ। वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, ‘बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनी तरक़्क़ी हो गई है।’ बुड्ढा बोला, ‘हाँ साहब, तरक़्क़ी हो रही है। पहले गालियों में कहा जाता था, फलाने की फलानी के साथ और अमुक को अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थे, हँस देते थे। अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची हो रही हैं। अब गालियाँ गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनके निकलते हैं। तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियाँ बाद करो, क्योंकि वे चुभती हैं।

रघुनाथ यदि चाहता तो किसी भी पानी भरने वाली से पीने को पानी माँग लेता। परंतु उसने अब तक अपनी माता को छोड़कर किसी स्त्री से कभी बात नहीं की थी। स्त्रियों के सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पिता की कठोर शिक्षा से बालकपन से ही उसे वह स्वभाव पड़ गया था कि दो वर्ष प्रयाग में स्वतंत्र रहकर भी वह अपने चरित्र को, केवल पुरुषों के समाज में बैठकर, पवित्र रख सका था। जो कोने में बैठकर उपन्यास पढ़ा करते हैं, उनकी अपेक्षा खुले मैदान में खेलने वालों के विचार अधिक पवित्र रहते हैं- इसीलिए फुटबॉल और हॉकी के खिलाड़ी रघुनाध को कभी स्त्री विषयक कल्पना ही नहीं होती थी; वह मानवी सृष्टि में अपनी माता को छोड़कर और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ था। विवाह उसकी दृष्टि में एक आवश्यक किन्तु दुर्ज्ञेय बंधन था जिसमें सब मनुष्य फँसते हैं और पिता की आज्ञानुसार वह विवाह के लिए घर उसी रुचि से आ रहा था जिससे कि कोई पहले-पहल थिएटर देखने जाता है। कुएँ पर इतनी स्त्रियों को इकट्ठा देखकर वह सहम गया, उसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह बिना पानी पिये ही लौट जाता। अस्तु, चुपचाप डोर लोटा लेकर एक कोने पर जा खड़ा हुआ और डोर खोलकर फाँसा देने लगा।

प्रयाग के बोर्डिंग की टोटियों की कृपा से, जन्म भर कभी कुएँ से पानी नहीं खींचा था, न लोटे में फाँसा लगाया था। ऐसी अवस्था में उसने सारी डोर कुएँ में बखेर दी और उसकी जो छोर लोटे से बाँधी, वह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर लटकाती और कभी सत्तर पर। डोर के जब बट खुलते हैं तब वह पहुँच पेंच खाती है। इन पेंचों में रघुनाथ की बाँहें भी उलझ गईं। सिर नीचा किए ज्यों ही वह डोर को सुलझाता था, त्यों ही वह उलझती जाती थी। उसे पता नहीं था कि गाँव की स्त्रियों के लिए वह अद्भुत कौतुक नयनोत्सव हो रहा था।

धीरे-धीरे टीका-टिप्पणी आरंभ हो गई। एक ने हँसकर कहा, ‘पटवारी है, पैमाइश की जरीब फैलाता है।’

दूसरी बोली, ‘ना, बाजीगर है, हाथ-पाँव बाँधकर पानी में कूद पड़ेगा और फिर सूखा निकल आएगा।’

तीसरी बोली, ‘क्यों लल्ला, घरवालों से लड़कर आए हो?’

चौथी ने कहा, ‘क्या कुएँ में दवाई डालोगे? इस गाँव में तो बीमारी नहीं है।’

इतने में एक लड़की बोली, ‘काहे की दवाई और कहाँ का पटवारी? अनाड़ी लोटे में फाँसा देना नहीं आता। भाई, मेरे घड़े को मत कुएँ में डाल देना, तुमने तो सारी मेंड़ ही रोक ली!’ यों कहकर वह सामने आकर अपना घड़ा उठाकर ले गई।

पहली ने पूछा, ‘भाई तुम क्या करोगे?’

लड़की बात काटकर बोल उठी, ‘कुएँ को बाँधेंगे।’

पहली- ‘अरे! बोल तो।’ लड़की- ‘माँ ने सिखाया नहीं।’

संकोच, प्यास, लज्जा और घबराहट से रघुनाथ का गला रुक रह था; उसने खाँसकर कण्ठ साफ़ करना चाहा। लड़की ने भी वैसी ही आवाज की। इस पर पहली स्त्री बढ़कर आगे आई और डोर उठाकर कहने लगी, ‘क्या चाहते हो? बोलते क्यों नहीं?’

लड़की -’फारसी बोलेंगे।’

रघुनाथ ने शर्म से कुछ आँखें ऊँची कीं, कुछ मुँह फेरकर कुएँ से कहा, ‘मुझे पानी पीना है, -लोटे से निकाल रहा- निकाल लूँगा।’

लड़की- ‘परसों तक।’

स्त्री बोली, ‘तो हम पानी पिला दें। ला भाग्यवन्ती, गगरी उठा ला। इनको पानी पिला दें।’

लड़की गगरी उठा लाई और बोली, ‘ले मामी के पालतू, पानी पी ले, शरमा मत, तेरी बहू से नहीं कहूँगी।’

इस पर सब स्त्रियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं। रघुनाथ के चहरे पर लाली दौड़ गई। उसने यह दिखाना चाहा कि मुझे कोई देख नहीं रहा, यद्यपि दस-बारह स्त्रियाँ उसके भौचक्केपन को देख रही थीं। सृष्टि के आदि से कोई अपनी झेंप छिपाने को समर्थ न हुआ, न होगा। रघुनाथ उल्टा झेंप गया।

‘नहीं, नहीं, मैं आप ही-’ लड़की- ‘कुएँ में कूद के।’

इस पर एक और हँसी का फौवारा फूट पड़ा।

रघुनाथ ने कुछ आँखें उठाकर लड़की की ओर देखा। कोई चौदह-पंद्रह बरस की लड़की, शहर की छोकरियों की तरह पीली और दुबली नहीं, हष्ट-पुष्ट और प्रसन्नमुख। आँखों के डेले, काले सफेद, नहीं कुछ मटिया नीले और पिघलते हुए। यह जान पड़ता था कि डेले अभी पिघलकर बह जाएँगे। आँखों के चौतरंग हँसी; ओठों पर हँसी और सारे शरीर पर निरोग स्वास्थ्य की हँसी। रघुनाथ की आँखें और नीची हो गईं।

स्त्री ने फिर कहा, ‘पानी पी लो जी, लड़की खड़ी है।’

रघुनाथ ने हाथ धोये। एक हाथ मुँह के आगे लगाया; लड़की गगरी से पानी पिलाने लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने श्वास लेते-लेते आँखें ऊँची कीं। उस समय लड़की ने ऐसा मुँह बनाया कि ठि-ठि करके रघुनाथ हँस पड़ा, उसकी नाक में पानी चढ़ गया और सारी आस्तीन भीग गई। लड़की चुप।

रघुनाथ को खाँसते, डगमगाते देखकर वह स्त्री आगे चली आई और गगरी छीनती हुई लड़की को झिड़ककर बोली- ‘तुझे रात-दिन ऊतपन ही सूझता है। इन्हें गलसूंड चला गया। ऐसी हँसी भी किस काम की। लो, मैं पानी पिलाती हूँ।’

लड़की- ‘दूध पिला दो, बहुत देर हुई; आँसू भी पोंछ दो।’

सच्चे ही रघुनाथ के आँसू के आँसू आ गए थे। उसने स्त्री से जल लेकर मुँह धोया और पानी पिया। धीरे से कहा, ‘बस जी, बस।’

लड़की- ‘अब के आप निकाल लेंगे।’

रघुनाथ को मुँह पोंछते देखकर स्त्री ने पूछा, ‘कहाँ रहते हो?’

‘आगरे।’

‘इधर कहाँ जाओगे?’

लड़की- (बीच ही में)- ‘शिकारपुर! वहाँ ऐसों का गुरुद्वारा है।’ स्त्रियाँ खिलखिला उठीं।

रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। ‘मैं पहले कभी इधर आया नहीं, कितनी दूर है, कब तक पहुँच जाऊँगा?’ अब भी वह सिर उठाकर बात नहीं कर रहा था।

लड़की- ‘यही पंद्रह-बीस दिन में। तीन-चार सौ कोस तो होगा।’

स्त्री- ‘छिः, दो-ढाई भर है, अभी घंटे भर में पहुँच जाते हो।’

‘रास्ता सीधा ही है न?’

लड़की- ‘नहीं तो बाएँ हाथ को मुड़कर चीड़ के पेड़ के नीचे दाहिने हाथ को मुड़ने के पीछे सातवें पत्थर पर फिर बाएँ मुड़ जाना, आगे सीधे जाकर कहीं न मुड़ना; सबसे आगे एक गीदड़ की गुफा है, उससे उत्तर को बाड़ उलाँघकर चले जाना।’

स्त्री- ‘छोकरी तू बहुत सिर चढ़ गई है, चिकर-चिकर करती ही जाती है! नहीं जी एक ही रास्ता है; सामने नदी आवेगी; परले पार बाएँ हाथ को गाँव है।’

लड़की- ‘नदी में भी यों ही फाँसा लगाकर पानी निकालना।’

स्त्री उसकी बात अनसुनी करके बोली, ‘क्या उस गाँव में डाक-बाबू होकर आए हो?’

रघुनाथ- नहीं, मैं तो प्रयाग में पढ़ता हूँ।’

लड़की- ‘ओ हो, पिरागजी में पढ़ते हैं! कुएँ से पानी निकालना पढ़ते होंगे?’

स्त्री- ‘चुप कर, ज्यादा बक-बक काम की नहीं; क्या इसीलिए तू मेरे यहाँ आई है?’

इस पर महिला-मण्डल फिर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबराकर इलाही की ओर देखा तो वह मजे में पेड़ के नीचे चिलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ईर्ष्या होने लगी। उसने सोचा कि हज से लौटते समय समुद्र में खतरे कम हैं, और कुएँ पर अधिक।

लड़की – ‘क्यों जी, परागजी में अक्कल भी बिकती है?’

रघुनाथ ने मुँह फेर लिया।

स्त्री- ‘तो गाँव में क्या करने जाते हो?’

लड़की- ‘कमाने-खाने।’

स्त्री- ‘तेरी कैंची नहीं बंद होती! यह लड़की तो पागल हो जाएगी।’

रघुनाथ- ‘मैं वहाँ के बाबू शोभारामजी का लड़का हूँ।’

स्त्री- ‘अच्छा, अच्छा, तो क्या तुम्हारा ही ब्याह है?’

रघुनाथ ने सिर नीचा कर लिया।


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