ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1857- (3)

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ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1857


फ़र्रुख़ाबाद और कानपुर के बीच गुरसहायगंज में अनियमित स्वयंसेवकों की एक टुकड़ी थी । यह पता नहीं किस कारण विद्रोही हो गई और फ्लैचर हेज सहित अपने अफ़सरों को मारकर दिल्ली की ओर चल पड़ी । ऐसी ही ख़बर शाहजहाँपुर से भी मिली है । फ़र्रुख़ाबाद और फतेहगढ़ में भी सिपाहियों से यही शंकायें हो रही हैं । आगरा में शान्ति है । मथुरा का विद्रोह हमारे लिये ईश्वरीय चेतावनी के रूप में रहा । इससे 44 वीं और 67 वीं पल्टनों का नि:शस्त्रीकरण बन गया । अब वे लोग छुट्टी पर अपने अपने घर जा रहे हैं । इसलिये अब हम इस भीतरी भय और चिन्ता से मुक्त होते जा रहे हैं । हमारा विश्वास है कि सेना के असन्तोष को कम करने के लिये जितना जल्दी कार्रवाई की जाय, वह अच्छा होगा । जैसा कि काल्विन का सोचना है -दो कौलम दो दिशाओं से कूंच करें- एक दोआब से और दूसरा जमुना किनारे से । देश का सबसे ज़्यादा पीड़ित भाग शान्त हो लेगा । लेकिन विद्रोहियों के अकूत दल हैं । 15 हज़ार से 20 हज़ार लोगों ने विद्रोह किया है । इनमें से अधिसंख्य तो खिसक लिये हैं किन्तु अब भी काफ़ी बागी हैं, जो देश को बरबाद कर सकते हैं। मार्क थॉर्नहिल ने कुछ नौकरों और स्वयंसेवकों की सहायता से मथुरा पर पुन: अधिकार कर लिया है । वहाँ सभी कुछ शान्त है । बलवाई गुंडों ने काफ़ी भवनों को जलाया था और लूट की थी। दूसरे दिन नीमच के विद्रोही आ गये । अधिकारियों को उनकी अपेक्षा थी । फल यह हुआ कि काफ़ी संपत्ति लूट ली गई । विद्रोहियों से निबटने की तैयारी की गई । ये लगभग 4000 थे और इसके आधे लगभग हमारे ही प्रशिक्षित किये हुए थे । आठवीं यूरोपियन सेना की सात कम्पनियाँ हमारा बल था । दुश्मन के पास चार तोपें थीं । ये तोपें उन्होंने फ़तेहपुर सीकरी मार्ग पर स्थित सुसिया गांव में जमा रखी थी । और स्वयं विद्रोहियों ने पीछे मैदान में पड़ाव डाल रखा था । हमारी सेना पंक्तिबद्ध आगे बढ़ी । तोपखाना सबसे आगे था । घुड़सवार पीछे थे । जब हम गाँव से 600 गज़ पर थे कि उनके तोपखाने ने आग उगलनी शुरू कर दी । तत्काल ही हमारी ओर से डी-ओयले के तोपखाने ने इतनी तेज़ीसे उत्तर दिया कि वे शान्त हो गये ।


चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी

ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

- सुभद्राकुमारी चौहान


इस समय इन्फेंट्री कुछ सफलता पा सकती थी जैसा कि हैवलॉक ने कानपुर में और अयरे ने बीबीगंज में किया था किन्तु सेनाधिकारियों में से किसी ने भी यह नहीं किया । बल्कि सेना को आगे बढ़ा दिया । हमारी निष्क्रियता से दुश्मन का हौसला बढ़ गया था । तोपची अपनी जगह लौट आये और उन्होंने हमारी सेना पर आग उगलना शुरू कर दिया । साथ ही उनके घुड़सवारों ने फ्रन्ट पर और पीछे से संकट पैदा कर दिया और उनकी पैदल सेना की बढ़त ने हमारे पैर उखाड़ दिये । जब हम इस प्रकार धीर-धीरे कूँच कर रहे थे कि तोपगाड़ी पर बैठा हुआ डी-ओयले घायल हो गया । उसका घोड़ा पहले ही मर चुका था । जब उसके गोली लगी वह चिल्लाया- 'उनका पीछा करो- पीछा करो ।' इस प्रकार वह तोपखाने का अन्तिम दम तक संचालन करता रहा । वह जानता था कि उसका घाव घातक है किन्तु फिर भी आदेश देता रहा । अन्तत: जब दर्द ने उसे दबोच लिया तो पास खड़े व्यक्ति से वह बोला- 'उन्होंने मुझे मार डाला । मेरी क़ब्र पर एक पत्थर रख देना और बता देना कि मैं अपनी तोपों की रक्षा में मरा हूँ ।' उसकी इह लीला समाप्त हो गई । इस बीच हमारी धीमी बढ़त का प्रभाव यह हुआ कि दुश्मन विद्रोहियों ने दो यूरोपियन कम्पनियों के लिये गाँव छोड़ दिया । हमें लगा कि हमारी विजय होने वाली है कि तभी पता चला कि हमारा गोला बारूद समाप्त हो चुका है । अब वापिस लौटने के सिवाय कोई चारा न था । हमारी धीमीगति का लाभ उठाकर दुश्मन अपनी तोंपें ले जा चुका था हम सवारों से घिरे हुए पीछे पलायन कर रहे थे । यदि उन्हें सुराग मिल जाता तो वे हमारे एक एक आदमी को काट सकते थे । किन्तु वे लाल कोटधारी फिरंगियों से अब भी भयभीत थे । परन्तु वे उन्हें पीट न सके । फिर भी उन्हें घेरे रहे और उनकी हँसी उड़ाते रहे । अन्तत: वे क़िले की दीवारों में छिप गये । हमारे 500 जवानों में से 140 मारे गये । उनके नुक़सान का पता नहीं लगा । यह आश्चर्य है कि दुश्मन ने इसका लाभ नहीं उठाया । दूसरे दिन वह अलीगढ़ और दिल्ली की ओर बढ गया । उसे मात्र यह सन्तोष रहा कि उसने जेल से 4000 बदमाशों को मुक्त करा दिया है । हमारे लोग क़िले में सुरक्षित हो गये । अब कर्नल ग्रीथैड की सेना आ पहुँची थी । दिल्ली के घेरे और उस पर फिर से अधिकार करने की गाथा से पू्र्व यह बताना आवश्यक है कि सभी पर्वतीय ज़िलों में क्या हो रहा था।


मई के अन्त में हासी हिसार और सिरसा में तैनात हरियाणा इनफेंट्री के जवानों ने अपने अफ़सरों पर हथियार तान दिये थे । उन्होंने काफ़ी फिरंगियों और दूसरे अफ़सरों को मार ड़ाला, लूटमार की और वे दिल्ली की ओर बढ़ लिये । देश के इस भाग में हर एक गांव एक छोटा मोटा क़िला बना हुआ है । गांवों के प्रत्येक निवासी की सहानुभूति विद्रोहियों के साथ है और दिल्ली के बादशाह के नाम पर वे एकजुट विद्रोह में उठ खड़े हुए हैं । जो भी राहगीर उन्हें मिला, उनकी निर्ममता का शिकार बना। कुछ गाँव इस हत्याकांड़ में बख्श भी दिये गये । यह एक सत्य है और इसके सैंकड़ों गवाह हैं कि कर्नल ग्रीथैड जब एक सबसे बड़े विद्रोही गाँव में पहुँचा, वहाँ भी एक यूरोपियन महिला का अस्थिपंजर सिर कटा हुआ पड़ा था, जिस पर उत्पीड़न के निशान थे । इससे स्पष्ट होता है कि हमारे शासकों में मानवता के प्रति कोई सहानुभूति शेष नहीं है ।

आगरा क़िले में फिरंगी

इलाहाबाद के आफ़ीसर कमांडिग को 16 जुलाई 57 को सी0 बी0 थॉर्नहिल, स्थानापन्न सेक्रेटरी टु द नार्थ वैस्टर्न प्रोविंस को लिखे गये पत्र का सार- '500 फिरंगियों और तोपखाने तथा नीमच के श्रेष्ठ विद्रोहियों के बीच जो संघर्ष हुआ, उसके बाद यूरोपियन रेजीमेंट आगरा के क़िले में लौट आई । यहीं क्रिश्चियन समुदाय पहले से एकत्र था । विद्रोहियों का समुदाय अब मथुरा जा चुका था । यह अब वहीं है यदि उसे भारी तोपें मिल जातीं तो वह अब भी क़िले में हम पर हमला कर सकता था । ग्वालियर के विद्रोही रेजीमेंट अभी आगरा में ही पड़ाव डाले हुए हैं । अभी शीघ्र उनके चले जाने की आशा भी नहीं है ।'

ग्वालियर रेजीमेंट में विद्रोह

ग्वालियर की जो रेजीमेंट मैनपुरी और अलीगढ़ तैनात थी, जून में विद्रोही हो गई थी । अत: यूरोपियन अफ़सर विवश होकर आगरा लौट आये । विद्रोहियों ने थाने क़ायम किये । आगरा ज़िले में विद्रोहियों ने थाने स्थापित कर लिये हैं, घुड़सवार सेना के अभाव में हम उन्हें हटा नहीं सकते । बहुत से पुराने अफ़सरों ने इन थानों में नौकरी स्वीकार कर ली है । मेरठ के आस पास का क्षेत्र इस समय काफ़ी शान्त है । पहाड़ों में तो पूर्ण शान्ति है ही । पंजाब भी पूरा ख़ामोश है । दोआबे तक यूरोपियन बल का कूँच होना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है ।

भरतपुर में बेचैनी

सरदारों ने भरतपुर स्थित एजेंट से दरबार छोड़कर चले जाने को कहा है और वह अजमेर की तरफ चल दिया है । भरतपुर के सरदारों ने हमारे साथ अभी सद्भावना बरती है । अभी कल ही भारी डाक वहां से हमें मिली है । पत्र वाहक को कृपया 500 रुपये दे दें ।

आगरा के विद्रोहियों का दिल्ली कूँच

मेजर मैकलियौड ने 19 जुलाई 1857 को आगरा से गवर्नर जनरल और कमांडर इनचीफ को तार दिया वह सूचित करता है कि 5 जुलाई की कार्रवाई के बाद विद्रोही मथुरा की ओर गये हैं, जहाँ वे 18 जुलाई तक रहे हैं और दिल्ली जाने की कह गये हैं । उनके पास बहुत थोड़ा गोला बारूद और धन है । डब्ल्यू. मूर का 'बौम्बे टाइम्स' को पत्र-

"आगरा में हमारी स्थिति इसलिये कुछ सीमा तक नाज़ुक है कि हमें यूरोपियन सेना द्वारा यहाँ की विशाल जेल की रक्षा करानी होती है । क्योंकि जेलगार्ड एक साथ चले गये हैं । जून के आरम्भ में लगभग 600 सशस्त्र कोटा कंटिजेंट तोपों के साथ यहाँ आ गई है । कुछ समय के लिय यह आगरा और मथुरा के बीच पड़ाव डाले रही और तब यह सादाबाद की ओर कूच कर गई यहाँ इसने क्षेत्र में शान्ति स्थापना का इतना अच्छा प्रयास किया कि राजस्व आना शुरू हो गया । जैसे ही नीमच टुकड़ी से हमारा संकट बढ़ना शुरू हुआ, यह टुकड़ी भी 3 जुलाई के लगभग आगरा की ओर आ गई और हमारी छावनी के पास शुक्रवार को टिक गई । साधारणतया विश्वास किया गया था कि यूरोपियन तोपों के साथ यह टुकड़ी काफ़ी मज़बूत थी । किन्तु यूरोपियन अफ़सरों के प्रति, विशेषकर सवारों में एक अनादर की भावना के लक्षण दिखाई दे रहे थे । जैसाकि शहर में भी उनके प्रति सन्देह व्याप्त था आगरा ज़िले में शान्ति स्थापित करने में किरावली घुड़सवारों का नायक सैफुल्ला अब तक सबसे ज़्यादा सहायक सिद्ध हुआ था । यह टुकड़ी अब आगरा आ पहुँची थी और शत्रुओं के मार्ग पर तैनात हो गई थी । इस शुद्ध सैनिक बल के अतिरिक्त हमारे पास क्लर्कों, सिविलियनों और अफ़सरों की एक संगठित मिलीशिया भी थी । इनमें 50-60 घुड़सवार और 200 पैदल थे । दो तीन सप्ताह कवायद की प्रक्रिया में थे और सैनिक कार्रवाई में अदक्ष थे। ग्वालियर कंटिजेंट के विद्रोही हो जाने से धीरे धीरे उसका प्रभाव उस टुकड़ी पर पड़ रहा था जो हमारी सहायता कई स्थानों पर कर रही थीं। जून के अन्त या जुलाई के आरम्भ में मैनपुरी में राइके के घुड़सवार, हाथरस में अलैक्जेडर के और अलीगढ़ में बर्ल्टन के सवार विद्रोही और हिंसक हो गये। नौ पाउंडर तोपों का तोपखाना भी उनका अनुगामी हो गया । फलत: सभी यूरोपियन अफ़सर आगरा आ गये। मैनपुरी, अलीगढ़ और मथुरा के मजिस्ट्रेट भी आगरा आ गये । जब नीमच सैनिक विद्रोही हम पर टूटे, हमारी स्थिति इसी प्रकार थी। पहली जुलाई बुधवार को गुप्त सूचना मिली कि आगरा से कोई 22 मील दूर वे फ़तहपुर सीकरी पर हैं और कि उन्होंने हमारे कुछ अफ़सरों को घेर लिया है, जो उनकी ओर मिलने को गये थे । तहसीलदार पकड़ लिया गया है और उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया और उसकी बाँह तोड़ दी गयी है। विद्रोहियों नेक मुंसिफ को तहसीलदार बना दिया है और थानेदार तथा रिसालदार अपने अपने पदों पर ज्यों के त्यों रख छोड़े गये हैं । अधिकाधिक असहाय कौमों को स्कूल आदि को क़िले में बुलाने के लेफ्टिनेंट गवर्नर के न्यायिक प्रयास प्रगति पर रहे हैं । लगभग सभी महिलायें जो अब तक बाहर थीं अब क़िले में पहुँच चुकी हैं । पुरुष बाहर सोते हैं।"

कोटा कटिंजेंट का विद्रोहियों से विलय

मिलीशिया घुड़सवारों की एक टुकड़ी आगरा से तीन चार मील दूर पिथौली पर तैनात की गयी थी । शनिवार 4 जुलाई को सूचना मिली कि दुश्मन पिथौली और फ़तेहपुर सीकरी के बीच पहुँच लिया है और कि उनका एडवांस गारद चला आ रहा है । इस पर यह निश्चय किया गया कि हमारा सैन्यबल उसका मुक़ाबला करने को चल देना चाहिए। अपरान्ह में कोटा कंटिजेंट वहाँ रवाना होने को था और यूरोपियन रेजींमेंट रात के आठ बजे जाना था। सैफुल्ला की किरावली टुकड़ी पहले से ही उसी दिशा में थी । अपरान्ह में कोटा कंटिजेंट रवाना हुआ और शहर के बाहर ठहर गया । तभी उसने विद्रोह कर दिया । घुड़सवार सबसे पहले विद्रोह पर आमादा हुए और पीछे से तोपखाना और पैदल भी साथ हो लिये । उन्होंने हमारे अफ़सरों पर गोलियाँ दागीं किन्तु एक सार्जेंट ही मारा जा सका । कोर शत्रु की ओर जा मिला । हमारी मिलीशिया टुकड़ी पास ही थीं, जा गहराते तूफ़ान में वापिस लौटते सैन्यबल का अनुगमन करने लगी । कुछ को काटा और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि हमारी तोपें और बारूदखाना वापिस लौट आया । सैफुल्ला के सैन्यबल के साथ जो दो तोपें दी गयी थीं वे पिछली रात ही अहतियात के तौर पर मंगा ली गयीं थीं । इससे ही सैन्यबल में सन्देह पैदा हो गया था । और असहाय छोड़े जाने की दशा में उनसे घर चले जाने का आदेश दिया गया । यह स्वीकार हो जाने पर अपनी टुकड़ी के साथ सैफुल्ला इतवार की सुबह जगनेर की तरफ चला और कुछ घुड़सवार शत्रु से भी जा मिले। अलवर सेना के विषय में हमने और अधिक नहीं सुना । इसने विद्रोहियों को तबाह करने का वादा किया था । इस प्रकार हम तीसरी यूरोपियन सेना, तोपखाने और मिलीशिया के साथ अकेले रह गये ।

विद्रोहियों का भौदागांव पर अधिकार

रविवार 5 जुलाई के दोपहर से कुछ पूर्व हमारे एक दस्ते ने आकर सूचना दी कि शत्रु आगरा से दो या तीन मील पर है । उनका एडवांस गार्ड गवर्नमेंट हाउस के पास शाहगंज तक आ गया है । आगे बढ़ने के लिये हमने तत्काल कार्रवाई की । पचास सिपाहियों के साथ जेल गार्ड को मुख्य सेना से जुड़ने को कहा गया और सबने मिलकर एक बजे कू च किया । तीसरी यूरोपियन सेना के 200 और मिलीशिया के एक हिस्से को क़िले की रक्षार्थ पीछे छोड़ दिया गया । इस प्रकार यूरोपियन सेना के कुल 500 सवार ही उपलब्ध रहे । तोपखाने की कम्पनी कुशल स्थिति में थी । इसके नायक कुशल- डी औयल, पियरसन, लैम्ब और फुलर थे । सेना शाहगंज में लगभग आधे घन्टे रूकी जिससे कि जेल टुकड़ी आ मिले और कुछ सुस्ता भी लें । तब वे आगे बढ़े कि शत्रु अपने तोपखाने के साथ है, बाग़ की एक ऊँची दीवार के सहारे पोजीशन लेकर बैठ गये । तब रेजीमेंट पंक्तिबद्ध होकर आगे बढ़ी । सामने सड़क थी । सामने ही गांव भौदागाँव था । एक डेढ़ मील पर आख़िर उन्होंने शत्रु को देख लिया । यूरोपियन पैदलों ने सेंटर बनाया । इसके सीधे हाथ को डीऔयले के अधीन तोपखाना था । दूसरे हाथ को पियरसन की कमांड में तोपखाना था । तोपखाने की सुरक्षा घुड़सवार और पैदल कर रहे थे । इसी विधि से हम चलकर सड़क पर पहुँचे । 2 और 3 बजे के बीच जब हम भौदागाँव से आधा मील दूर थे, विद्रोहियों की सेना ने अपने दाहिने बाजू से अप्रत्याशित ही गोले दागना शुरू कर दिया । हम गाँव के दोनों तरफ जमना चाहते थे । उनके पास छै और नौ पाउन्डर ग्यारह-बारह तोंपें दीखती थीं । विद्रोहियों के लगभग 2000 मज़बूत जवानों ने गाँव घेर रखा था । हमारे घुड़सवारों में से लगभग 600 से 800 सवार चारों ओर फैल हुए थे ।

गोलों का आदान-प्रदान

हमारे तोपखाने ने शत्रु के गोलों का उत्तर देने में जरा भी देर न की । एक भयंकर तोप युद्ध छिड़ गया । हम आगे बढते चले गये । हमारी पैदल सेना भी गाँव में पहुँच ली । तोपयुद्ध इतना भयंकर था कि सवारों को दीवारों या पेड़ों की आड़ में लेटकर गोली चलाने के निर्देश दिये गये । इसी बीच शत्रु की सटीक निशानेबाज़ी से लगी गोलियों से हमारी दो शस्त्रवाहक गाड़ियाँ उड़ गयी और एक और तोपगाड़ी नष्ट हो गई । बची हुई दो तोपों की गाड़ियाँ वहाँ से 60 गज़ पीछे कर दी गई जिससे कि वे अग्नि विस्फोटकों के संपर्क से दूर रहें । इससे शत्रु पक्ष में हर्ष की लहर दौड़ गयी । हमारे बायें को अब शत्रु के घुड़सवार अपार संख्या में प्रकट हुए । उन्होंने एक साथ हमला किया जिसने उसी ओर की हमारी तोप को थर्रा दिया । हमारी बायीं क़तार के 25 स्वयंसेवक घुड़सवारों से उनका सामना हुआ जिन्होंने उनकी गति को रोका । शत्रु के घोडे संख्या में इतने अधिक थे कि यद्यपि हम सुरक्षित स्थान पर खड़े थे फिर भी वे हमारे दल के चारों ओर छा गये और हमारे पैदलों को मारने काटने लगे । किन्तु एक गोले ने उनको पीछे खदेड़ दिया । यदि घोड़ों का वह प्रभूत समुदाय साहस दिखाता या नेतृत्व कुशल होता तो हमारी स्थिति गम्भीर बना सकता था । हमारे दाहिने की तोप बराबर आगे बढ़ रही थी । हमारी पैदल सेना ने गाँव में आग लगाकर और घमासान करके शत्रु के छक्के छुड़ा दिये । तभी सभी को विस्मय हुआ कि शस्त्रवाहनों के नष्ट होने और तेज़ गोलीबारी से हमारा गोला बारूद का स्टाक समाप्त हो गया । अब सिवाय पीछे हटने कोई चारा न था । तोपखाने और असंख्य अश्व समूह के घटाटोप के रहते यह प्रशंसनीय ढंग से हुआ । शाम 5 बजे लश्कर क़िले पर पहुँच गया । कार्रवाई पूरे दो घन्टे चली । हमारे 30 सैनिक मरे और 80 घायल हुए । शत्रु की हानि का हमें पता नहीं । यद्यपि वे गाँव का 'कवर' लिये हुए थे, उनकी मृतक संख्या हमारे से अधिक ही रही होगी । उनके ब्रिगेड के मेजर के दोनों हाथ कट गये और सुना कि बाद में वह मर गया । यद्यपि मैदान उनके हाथों ही रहा किन्तु वे अविलम्ब मथुरा की ओर कूच कर गये । सत्य यह है कि उनके पास भी गोला बारूद उतना ही कम था जितना हमारे पास । हम भारी झंझटों में भी विजय के समीप थे और यदि हम दूसरे दिन अच्छा गोला बारूद लेकर फिर जाते तो हम उन्हें अवश्य पराजित करके भगा देते । बहुत से कारकों से यह न हो सका।

विद्रोही मथुरा को

इस युद्ध के कुछ हमारे अधिकारी आलोचकों का कहना है कि यूरोपियन पैदल सेना को बहुत पहले गाँव पर हमला करने को भेजना था और गोला बारूद समाप्त होने से पहले ही शत्रु मुँह की खा जाता । मुझे इसके औचित्य की जाँच नहीं करनी । मैं परिणाम से सन्तुष्ट हूँ । भयानक कठिनाइयों में हम आगे बढ़े । हमारा सारा गोला बारूद चुक गया । शीघ्रता से हम पीछे हटे और दूसरे दिन शत्रु वहाँ से नदारद था । यद्यपि भौंदागाँव से शत्रु सेना का एक बड़ा भाग तो चला गया किन्तु बिखरे हुए सवार शहर के ईदगिर्द मंडराते रहे और छावनी और बंगलों में आगजनी करते रहे और शहर के असामाजिक तत्त्वों को लूटपाट और खूँरेजी के लिये भड़काते और उकसाते रहे । हमारे पीछे लौटते दस्तों ने देखा कि पू्र्व लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा बनवाई गई नार्मल स्कूल की भव्य इमारम में आग लगा दी गई । घोडों को कुदाते जंगली सवार इस भवन के चारों ओर क़िले से देखे जा सकते थे । सारी रात जलते हुए मकानों की आग शहर को प्रकाशित करती रही । भाग्यवश लेफ्टिनेंट गवर्नर की दूरदर्शिता से चन्द साहसी ईसाइयों को छोड़कर सभी ईसाई क़िले में सुरक्षित थे । क़िले की सहज पहुँच में दो या एक गोले से मुक़ाबला करने के सिवाय क़िले से और कुछ भी उस शाम संभव नहीं हो सका । दूसरे सवेरे जब मुसलमानों ने इस अफवाह पर, कि हम सभी मारे गये – आपस में विचार किया कि अब विद्रोहियों से जा मिला जाय । जबकि हमारे अनुयायियों ने हर्ष व्यक्त किया कि विद्रोही भाग गये । काफ़ी समय तक हमें यह पता नहीं चला कि वे भाग गये क्योंकि बाहर के शोर से हम यही समझे हुए थे कि अभी शत्रु हैं और इसीलिये हम अपनी तैयारी कर रहे थे । यह शोर स्वयं विद्रोहियों ने ही अपने प्रस्थान को 'कवर' करने के लिये ही शायद कराया हो । किन्तु हमले की पूरी तैयारी में थे । हमारे पास क़िले में दो महीने के लिये रसद पानी था, जो उनके पास नहीं था ।

यूरोपियन क़िले में बन्दी

सोमवार और मंगलवार निष्क्रियता में गुजरे । हम सब क़िले में बन्द रहे । यद्यपि हमारे विरोध के लिये एक भी व्यक्ति नहीं था । बुधवार 8 जुलाई को शहर में एक प्रदर्शन एक दस्ते की मार्च से किया गया । मुझे यह करते हुए खेद है कि सैनिक बाज़ार में एक बड़े मुसलमान व्यापारी की दुकान लूट ली गई । शहर से हमारे मित्रगण अब आने जाने लगे हैं और पुलिस को पुन: संगठित करने के क़दम उठाये जा रहे हैं । हमारे कलक्टर आर0 ड्रमण्ड ने दंगों के दौरान अनुशासन स्थापित रखा है । वस्तुत: एक शहर के निवासी-असुरक्षित और बेपनाह होंगे जब शत्रु की क्रूरता को समक्ष देखा और देखा कि हमारे छोटे से सैन्यदल को शत्रु ने मार खदेड़ा। साधारण शासन सूत्र कट गये । नागरिक शासन का स्थान सैनिक शासन ने ले लिया । इसके अतिरिक्त इस बिन्दु पर ड्रमंड ने इस सैनिक शासन की पद्धति में एक गम्भीर और परेशानी पैदा करने वाली कमी देखी । सलाह और सूचना के लिये उसने न केवल सभ्रान्त मुसलमान को विश्वास किया था बल्कि राजस्व और पुलिस विभागों के छोटे और ऊँचे पदों पर भी शासन की सेवा में नियुक्त किया था। वे लोग उन परिस्थिति में भले ही कितने ही विश्वासपात्र और सर्वश्रेष्ठ रहे हों, अब सैनिक शासन में जो मुसलमान तत्त्व विद्रोही आन्दोलन में प्रमुख थे। उन धार्मिक और मुस्लिम नज़रों में वे कसौटी पर आ गये थे । समस्त पुलिस अधिकारियों और अन्य लोगों ने (अधिकांश मुसलमानों ने) अपने अपने पद छोड़ दिये थे ।


शहर में हमारे साथ शत्रुता में और लूट पाट में अब बरकन्दाज सर्वाग्रगण्य बताये जाते हैं । जबकि कुछ प्रभावशाली मुसलमान शासन के भीतर और बाहर संदेहास्पद बन गये हैं । उनमें से कुछ शत्रुपक्ष से मिल गये हैं । अनेक सभ्रान्त और नितान्त स्वामिभक्त जो हमारे पुनर्गठन में अनिवार्य सहभाग के पात्र थे, अब कट्टर मुस्लिम विरोधी भावना के कारण वे पीछे हो गये थे और सतर्क हो गये थे । परिणामत: छोटे और बड़े दोनों प्रकार के मुसलमान बड़ी संख्याओं में आगरे से पलायन कर गये थे । इनमें कुछ तो आत्मा पीड़ित थे और कुछ उपरिलिखित भय के मारे भागे थे । इस डर से अधिकांश नागरिक और सैनिक अधिकारी पीड़ित थे । कहा जाता है कि मथुरा में विद्रोहियों के शिविर में भीडें एकत्र हो रही थीं। ये लोग हमारे द्वारा किये जा रहे कल्पना जनित अत्याचारों की और ज्यादतियों की शिकायत करते थे, जो हमने उन पर किये बताये जाते थे । विद्रोही जनरल ने इनकी सहायतार्थ एक टुकड़ी भेजने का वादा किया था । इस भाँति पुलिस के पलायन के बाद अब यह अपरिहार्य हो गया था कि शान्ति स्थापित होने के बाद अब नई पुलिस व्यवस्था बनायी जाया । लेफ्टिनेंट गवर्नर, जो एक सप्ताह तक बीमार होकर शय्याग्रस्त रहा और अभी हाल में ही कार्यरत हुआ था, ने न्यायिक दृष्टि से हिन्दुओं के माध्यम से काम करने का निश्चय किया जिन पर एक संस्था के रूप में वर्तमान नाज़ुक घड़ी में मुसलमानों के प्रति बिना कोई शत्रुता या अविश्वास सक्रिय रूप में दिखाये हुए निर्भर कर सकते थे । यह नीति ड्रमंड की पूर्व नीति और पद्धति के इतनी विपरीत पड़ी कि गवर्नमेंट को ड्रमंड को सुपरसीड करना और दूसरे अधिकारी को उसकी जगह नियुक्त करना पड़ा । इस प्रकार शहर की सुरक्षा हेतु व्यवस्था प्रभाव और शान्ति के साथ सम्पन्न हुई ।

22 जुलाई 1857 ई. में काल्विन ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक को लिखता है-

आगरा यहाँ हम 5 जुलाई तक निर्बाध रहे, जब नीमच के विद्रोहियों का बल एक के बाद एक सड़क पर टिड्डियों की तरह आया और छावनी मुख्यावास तक पहुँचा । हमारा एक मात्र यूरोपियन घुड़सवारों दस्ता जो एक दम नया था किन्तु एक श्रेष्ठ अफ़सर डी0 औयले के नेतृत्व में था, उसका सामना करने चला । शत्रु का सैन्यबल अत्यन्त श्रेष्ठ था । उसके पास 800 घोड़े थे जब कि हम उससे वंचित थे । हमारे पास छावनी के सज्जनों के घोड़ों का एक स्वयंसेवी दस्ता भर था । हमने उन्हें भगा दिया । किन्तु अन्त में हमारी दो शस्त्र गाड़ियाँ उड़ा दी गई और हमारा गोला बारूद चुक गया । तब हमारे सैन्य दस्तों को पीछे क़िले में अनुशासित रूप में लौटना पडा । उस रात लूटपाट और आगजनी की कार्रवाई शत्रु की ओर से बंगलों, कचहरी आदि में चलती रही । हमने स्वयं जेल से कैदियों को धीर-धीरे छोड़ना शुरू किया । यह उनकी संख्या कम करने को किया गया । किन्तु अब सभी वस्तुत: छूट चुके हैं । संपत्ति अभिलेख आदि की हानि गम्भीर हुई है, किन्तु अपेक्षाकृत यूरोपियन लोगों की जानहानि कम हुई है। । लगभग पूरी ईसाई आबादी-देशी ईसाइयों सहित-सुरक्षा पूर्वक क़िले में ले आई गयी । उनकी संख्या बहुत ज़्यादा है और प्रतिरक्षा में वे बड़ी कठिनाइयों के कारण हैं ।

नीमच के विद्रोहियों का दिल्ली कूच

नीमच सेना के विद्रोही यहाँ से मथुरा को चले गये हैं, जहाँ उन्होंने महाजनों से धन वसूला है और भरतपुर रेजीमेंट से भारी तोपें इस क़िले पर हमला करने के घोषित इरादे से माँगी हैं । उन्होंने दिल्ली से भी गोला बारूद माँगा प्रतीत होता है । लेकिन वहाँ से उन्हें कुछ नहीं दिया गया और वहाँ उन्हें जल्दी ही बुलाया गया है । वे चले गये हैं ।

एटा में अहीर सक्रिय एटा ज़िले में कुछ अहीर लूटपाट कर रहे हैं । किन्तु वहाँ का कलक्टर उनसे निबटने के लिये मज़बूत नहीं है ।

घाटों पर झड़पें

ज़िले में विद्रोहियों ने भिन्न-भिन्न घाटों पर कई प्रदर्शन किये हैं । उन्होंने कछला घाट पार करके 11 तारीख को 150 जाट घुड़सवारों को भगा दिया है, जो उनकी गतिविधियों को देखने को वहाँ तैनात थे । इस झड़प में शत्रु के सात जवान मारे गये और कप्तान मुरे का एक जवान काम आया । उसका एडजुटेंट लेफ्टिनेंट हैनेसी गम्भीर रूप से घायल हो गया ।

गाँव पर हमला

यद्यपि शत्रु संख्या में बहुत भारी और मज़बूत था किन्तु आगे नहीं बढ़ सका । कप्तान मुरे उनकी क़तारों से जूझता रहा और आख़िर कासगंज चला गया । तब विद्रोहियों ने ओढ़ी गाँव पर हमला किया किन्तु वहाँ के स्वामिभक्त ज़मींदार दारासिंह की अडिगता से उन्हें सफलता न मिल सकी । रात में वे कई मृतकों को छोड़कर चले गये जिन्हें दफनाने को वे दूसरे दिन आये किन्तु तब कोई बदमाशी उन्होंने नहीं की ।

जनरल पैनी एटा में

जनरल पैनी के सैन्यबल के आने से एटा में शान्ति स्थापित हुई । आगरा-एटा राजमार्ग स्थित मुस्तफाबाद पर अहीर आफत ढ़ा रहे हैं । जनरल पैनी के सैन्यबल का लाभ उठाते हुए डैनियल उन्हें दंडित करने गया है ।

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