'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' ब्रह्मगुप्त की प्रथम रचना है। यह संस्कृत में है। इसकी रचना सन 628 ई. के आसपास हुई। ब्रह्मस्फुट सिद्धांत को सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक विभिन्न अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये- 0/0 = 0। उन्होंने शक संवत 550 (685 विक्रमी) में 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना की। इन्होंने स्थान-स्थान पर लिखा है कि आर्यभट, श्रीषेण, विष्णुचन्द्र आदि की गणना से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध नहीं आता है, इसलिए वे त्याज्य हैं और 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' में दृग्गणितैक्य होता है, इसलिय यही मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मगुप्त ने 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना ग्रहों का प्रत्यक्ष वेध करके की थी और वे इस बात की आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वेध में अन्तर पड़ने लगे तो वेध के द्वारा गणना शुद्ध कर लेनी चाहिए। ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की और ज्योतिष और गणित के विषयों को अलग-अलग अध्यायों में बाँटा।
विशेषता
इस ग्रन्थ में अन्य बातों के अलावा गणित के निम्नलिखित विषय वर्णित हैं-
- शून्य की गणितीय भूमिका की अच्छी समझ है।
- धनात्मक और ऋणात्मक दोनो प्रकार की संख्याओं के साथ गणितीय संक्रियाएँ करने के नियम दिए गये हैं।
- वर्गमूल निकालने की एक विधि।
- रैखिक समीकरणों तथा कुछ वर्ग समीकरणों के हल करने की विधियाँ।
- गणितीय श्रेणियों का योग निकालने की विधियाँ।
- ब्रह्मगुप्त सर्वसमिका (Brahmagupta's identity) ।
- ब्रह्मगुप्त प्रमेय मौजूद है।