भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-22

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5.गुरू कृष्ण

शरीर धारिणी ईसा के शरीर धारण के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है, उससे तुलना कीजिएः “जब सब वस्तुएं शान्त निस्तब्धता में मग्न थी और रात्रि अपने तीव्र पथ का आधा भाग पार कर चुकी थी, तब तेरा सर्वशक्तिमान् शब्द स्वर्ग में तेरे राजसिंहासन से नीचे आया। ऐलेलुइया।” अवतार के सिद्धान्त ने ईसाई-जगत् को काफ़ी कुछ विक्षुब्ध किया। एरियस का मत था कि पुत्र (ईसा) पिता के बराबर नहीं, अपितु उसके द्वारा उत्पन्न किया गया है। यह दृष्टिकोण, कि वे एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं, अपितु एक ही सत्ता के केवल विभिन्न प़क्ष हैं, सैबैलियस का सिद्धान्त है। पहली विचार धारा में पिता और पुत्र की पृथकता पर और पिछले सिद्धान्त में उन दोनों की एकता पर ज़ोर दिया गया है। अन्त में जो दृष्टिकोण प्रचलित हुआ वह यह था कि पिता और पुत्र बराबर हैं और एक ही तत्त्व है; परन्तु वे एक-दूसरे से पृथक् व्यक्ति हैं। मानवीय चेतना ऊपर उठकर अजन्मा शाश्वत के रूप में बदल जाती है।[1]कृष्ण का अवतार भगवान् का शरीर में रूपान्तरण उतना नहीं है, जितना कि मनुष्यत्व को ऊँचा उठाकर भगवान् में रूपान्तरण। यहां गुरू शनैः-शनैः शिष्य को उस स्तर तक पहुँचने के लिए मार्ग दिखाता है, जिस पर वह स्वयं पहुଁचा हुआ है, मम साधर्म्‍यम (मेरे साथ समानता)। शिष्य अर्जुन उस संघर्ष करती हुई आत्मा का प्रतीक है, जिसने अभी तक उद्धार करने वाले सत्य को उपलब्ध नहीं किया है।
वह अन्धकार, असत्य, सीमितता और मरणाशीलता की शक्तियों से, जो उच्चतर संसार के मार्ग को रोके हुए हैं, युद्ध कर रहा है। जब उसका सम्पूर्ण अस्तित्व किंकर्त्तव्‍यविमूढ़ हो जाता है, जब उसे यह पता नहीं चलता कि उचित कर्त्तव्‍य क्या है, तब वह अपने उच्चतर आत्म में, जिसका प्रतीक जगद्गुरू,[2]संसार-भर को उपदेश देने वाला कृष्ण है, शरण लेता है और उससे ज्ञान देने की कृपा करने की प्रार्थना करता है। “मैं तेरा शिष्य हूँ: मेरी चेतना को प्रकाशित कर; मुझमें जो कुछ तमोमय है, उसे हटा दे, जो कुछ मैं गंवा चुका हूँ, अर्थात् कर्म का एक स्पष्ट नियम, वह मुझे फिर प्रदान कर।” शरीर के रथ में सवार योद्धा अर्जुन है, परन्तु सारथी कृष्ण है और से ही इस यात्रा का मार्गदर्शन करना है। प्रत्येक व्यक्ति शिष्य है, पूर्णता तक पहुँचने का महत्त्ववाकांक्षी, भगवान् का जिज्ञासुः और यदि वह सचाई से श्रद्धा के साथ अपनी खोज जारी रखता है, तो लक्ष्य भगवान् ही मार्गदर्शक भगवान् बन जाता है। जहां तक गीता की शिक्षाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न है, इस बात का महत्त्व बहुत कम है कि इसका लेखक कोई ऐतिहासिक व्यक्ति है या मनुष्य के रूप में अवतरित स्वयं भगवान्ः क्योंकि आत्मा की वास्तविकताएं अब भी वहीं हैं, जो आज से हज़ारों साल पहले थीं और जाति एवं राष्ट्रीयता के अन्तर उन पर कोई प्रभाव नहीं डालते। असली वस्तु सत्य या सार्थकता है, और ऐतिहासिक तथ्य उसकी मूर्ति से अधिक कुछ भी नहीं है। [3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मेरे विचार से ईसाइयों के पुनरूत्थान के सिद्धान्त का अर्थ यही है। ईसा का शारीरिक पुनरूत्थान महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं हैं, अपितु दिव्य (ब्रह्म) का पुनरूत्थान महत्त्वपूर्ण वस्तु है। मनुष्य का पुर्नजन्म, जो उसकी आत्मा के अन्दर एक ऐसी घटना के रूप में होता है, जिसके फलस्वरूप उसे वास्तविकता (ब्रह्म) का गम्भीरतर ज्ञान हो जाता है और परमात्मा तथा मनुष्य के प्रति उसका प्रेम बढ़ जाता है, सच्चा पुनरुज्जीवन है, जो मानवीय जीवन को उसके अपने दिव्य स्वरूप और लक्ष्य की चेतना तक ऊँचा उठा लेता है। परमात्मा अविराम सृजनशीलता है, अनवरत कर्म। वह मनुष्य का पुत्र है, क्योंकि मनुष्य पुनः उत्पन्न परमात्मा ही तो है। जब सनातन और सामयिक के बीच का पर्दा हट जाता है, तब मनुष्य परमात्मा के साथ-साथ और उसके संकेत पर चलने लगता है। ऐंगेलस सिलेशियस से तुलना कीजिएः चाहे ईसा हज़ार बार बैथेलहम में जन्म ले, पर यदि उसने तेरे अन्दर जन्म नहीं लिया तो तेरी आत्मा अब भी भटकी हुई है; गलगोथा पर खड़ा क्रॉस तेरी आत्मा की रक्षा कभी न करेगा; तेरे अपने हृदय में खड़ा क्रॉस ही तुझे पूर्ण बना सकता है।
  2. तुलना कीजिएः अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाव्जनशलाकया। चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरूवे नमः।। मैं उस दिव्य गुरू को नमस्कार करता हूँ, जो अज्ञान के रोग से अन्धे हो गए लोगों की आँखों को ज्ञान का अंजन डालकर खोल देता है।
  3. स्पिनोज़ा से तुलना कीजिएः “मुक्ति प्राप्त करने के लिए शरीरधारी के रूप में ईसा को जानना बिलकुल आवश्यक नहीं है; परन्तु तथा कथित परमात्मा के उस शाश्वत पुत्र के सम्बन्ध में (डी ऐटर्नो इल्लो डेई फ़िलियो), जो परमात्मा का सनातन ज्ञान है, जो सब वस्तुओं में और मुख्य रूप से मनुष्य के रूप में और सबसे अधिक विशेष रूप में ईसा में व्यक्त हुआ है, बात ठीक इससे उल्टी है; उसके ज्ञान के बिना कोई मनुष्य परम आनन्द की अवस्था तक नहीं पहुँच सकता; क्योंकि इसके सिवाय और कोई वस्तु उसे यह नहीं सिखा सकती कि क्या सत्य है और क्या मिथ्या, क्या अच्छा है और क्या बुरा।” इस प्रकार स्पिनेज़ा ऐतिहासिक ईसा और आदर्श ईसा में भेद करता है। ईसा की दिव्यता एक ऐसा धर्म-सिद्धान्त है, जो ईसाइयों की अन्तरात्मा में पनपा है। खीस्तशास्त्रीय सिद्धान्त एक ऐतिहासिक तथ्य की धर्मविज्ञानी व्याख्या है। इस सम्बन्ध में लोइसी का कथन हैः “ईसा का पुनरुज्जीवन उसके भौतिक जीवन का अन्तिम कार्य, मनुष्यों के बीच उसकी सेवा का अन्तिम कार्य नहीं था, अपितु धर्मप्रचारकों की श्रद्धा और ईसाई धर्म की आध्यात्मिक स्थापना का पहला कार्य था।” मॉड पीटरः लोइसी (1944), पृ. 65-66

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