भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-31

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11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक

9. न तथा बध्यते विद्वान् तत्र तत्रादयन् गुणान्।
प्रकृतिस्योऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः।।
अर्थः
ज्ञानी पुरुष, प्रकृति में स्थित होकर भी और उन-उन इंद्रियों के विषयों को ग्रहण करते हुए भी अज्ञानी पुरुष की तरह बद्ध नहीं होता; वह आकाश, सूर्य और वायु की तरह अलिप्त रहता है।
 
10. वैशारद्येक्षयाऽसंग-शितया छिन्न-संशयः।
प्रतिबुद्ध इव स्वप्नात् नानात्वाद् विनिवर्तते।।
अर्थः
असंग ने तीक्ष्ण की हुई उसकी निर्मल दृष्टि के कारण उसके सारे संदेह मिट जाते हैं। स्वप्न से जगे पुरुष की तरह नानात्व से वह निवृत्त हो जाता है।

11. यस्य स्युर वीतसंकल्पाः प्राणेंद्रिय-मनो-धियाम्।
वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्योऽपि हि तद्गुणैः।।
अर्थः
जिस पुरुष के प्राण, इंद्रिय, मन, बुद्धि इनकी सभी वृत्तियाँ संकल्प रहित होती है, वह देहस्थ होकर भी देह के गुणों से मुक्त रहता है।
 
12. यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्रैर् ये किंचिद् यदृच्छया।
अर्च्यते वा क्वचित् तत्र न व्यतिक्रियते बुधः।।
अर्थः
उस तत्वज्ञ पुरुष के शरीर को कोई हिंसक पीड़ा दें या स्वेच्छा से कोई उसकी पूजा करें, उसके चित्त में किसी तरह का विकार उत्पन्न नहीं होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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