भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-37

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13 हंस-गीत

5. ऐवं विमृश्य गुणतो मनसस् त्र्यवस्था
मन्मायया मयि कृता इति निश्चतार्याः।
संछिद्य हार्दमनुमान-सदुक्ति-तीक्ष्ण-
ज्ञानासिना भजत माखिलसंशयाधिम्।।
अर्थः
इस तरह गुणानुसार मेरी ही माया द्वारा मुझमें ही कल्पित, मन की ये तीन अवस्थाएँ हैं- ऐसा विचार कर संदेहरहित हो जाएं तथा अनुमान और आप्तवाक्य द्वारा तीक्ष्णीकृत ज्ञान-खड्ग से हृदय की सर्वसंशयरूप सभी व्याधि को काटकर मुझे भज।
 
6. ईक्षेत विभ्रर्मामदं मनसो विलासं
दृष्टं विनष्टमतिलोलमलातचक्रम्।
विज्ञानमेकमुरुधेव विभाति माया
स्वप्नस् त्रिधा गुणविसर्ग-कृतो विकल्पः।।
अर्थः
चिंतन करें कि- यह विश्व भ्रम है। वह मन का विलास है। उसे घूमती हुई लुकारियों की उस बनेठी की तरह समझे, जो दीखंत ही नष्ट हो जाए, इतनी अति चंचल है। विज्ञान एक ही होकर अनेक प्रकार से मानो भासता है वह माया है, वह स्वप्न है, गुणविक्रिया से उत्पन्न हुआ वह त्रिविध विकल्प है।
 
7. दृष्टि ततः प्रतिनिवर्त्य निवृत्त-तृष्णस्
तृर्ष्णो भवेत् निजसुखानुभवो निरीहः।
संदृश्यते क्व च यदीदमवस्तु-बुद्धय्या
त्यक्तं भ्रमाय न भवेत् स्मृतिरानिपातात्।।
अर्थः
( फिर ) इन ( विकल्पों ) से अपनी दृष्टि हटाकर, तृष्णा छोड़कर निरिच्छ वृत्ति से आत्मसुख का अनुभव करते हुए शातं रहे। ( ऐसी स्थिति में ) यह ( दृश्य जगत् ) यदि कभी दीख पड़े, तो नहीं होगा ( और ) देहपात एक आत्म-स्मृति बनी रहेगी।
 
8. देहं च नश्वरमवस्थित मुत्थितं वा
सिद्धो न पश्यति यतोऽध्यगमत् स्वरूपम्।
दैवादपेतमुत दैववशादुपेतं
वासो यथा परिकृतं मदिरा-मदांधः।।
अर्थः
नश्वर देह कायम है या गिर गयी है यह सिद्ध पुरुष देखता नहीं, क्योंकि वह स्वरूप को प्राप्त कर चुका होता है। जैसे मदिरा-मदांध मनुष्य पहना हुआ वस्त्र दैवयोग से खुल गया है या जगह पर है यह नहीं जानता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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