भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-52

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20. योग-त्रयी

 
1. योगास् त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो-विधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्।
अर्थः
मनुष्य के कल्याण के लिए ( अधिकार भेद से ) मैंने तीन योग बतलाए हैं। वे तीन योग हैं : ज्ञान, कर्म और भक्ति। मोक्ष के लिए इनके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है।
 
2. निर्विण्णानां ज्ञान-योगो न्यासिनां इह कर्मसु।
तेष्वनिर्विण्ण-चित्तानां कर्म-योगस्तु कामिनाम्।।
अर्थः
जो विरक्त होकर कर्म और उनके फलों को त्याग चुके हैं, उनके लिए ज्ञानयोग है और जिनके चित्त में उनके विषय में वैराग्य नहीं हुआ है, ऐसे सकाम लोगों के लिए कर्मयोग है।
 
3. यदृच्छया मत्कथादौ जात-श्रद्धस्तु यः पुमान्।
न निर्विण्णो नाति-सक्तो भक्ति-योगोऽस्य सिद्धि-दः।।
अर्थः
जो पुरुष न तो अत्यंत विरक्त है और न अत्यंत आसक्त ही, लेकिन संयोगवश मेरी लीला कथाओं में जिसे श्रद्धा पैदा हो गयी, उसे भक्ति योग से हीसिद्धि मिलती है।
 
4. तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथा-श्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते।।
अर्थः
जब तक वैराग्य उत्पन्न नहीं होता अथवा मेरी कथा सुनने में श्रद्धा नहीं होती, तब तक वेदविहित कर्म करने चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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