भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-65

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27. पूजा

 
6. श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि।
भूर्यप्पभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते।।
अर्थः
मेरा भक्त श्रद्धा से मुझे केवल जल ही चढ़ाता है, तो वह मुझे अत्यंत प्रिय है। लेकिन जिसकी मुझ पर भक्ति नहीं है, उसकी दी हुई बहुत सी सामग्री भी मुझे संतोष नहीं देती।
 
7. योगस्य तपस्श्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः।
महर् जनस् तपः सत्यं भक्तियोगस्य मद्गतिः।।
अर्थः
योग, तप, संन्यास से महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक जैसी निर्मल गति प्राप्त होती है। लेकिन भक्तियोग की गति मैं (ही)- परमात्मा- हूँ।
 
8. देवर्षि- भूताप्त-नृणां पितृणां
न किंकरो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं
गतो मुकुंदं परिहृत्य कर्ततम्।।
अर्थः
संसाररूपी भेद-भाव के गड्ढे से बचकर जो सर्वात्मभाव से शरणागत वत्सल मुकुंद की शरण जाता है, वह देव, ऋषि, आप्त-इष्ट, मानव, पितर और अन्य प्राणिमात्र के ऋण से मुक्त हो जाता है, वह किसी का किंकर नहीं होता, यानी किसी के बंधन में नहीं रहता।
 
9. तस्मात् त्वमुद्धवोत्सृज्य चोदनां प्रतिचोदनाम्।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च श्रोतव्यं श्रुतमेव च।।
अर्थः
इसलिए उद्धव! श्रुति- स्मृति में कथित विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति, सुनने योग्य और सुने हुए सब विषयों का त्याग कर और-
 
10. मामेकमेव शरणं आत्मानं सर्व-देहिनाम।
याहि सर्ववात्म-भावेन मया स्या ह्यकुतोभयः।।
अर्थः
सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप मुझ एक की ही पूर्ण शरण आ, जिससे तू सब ओर से निर्भय हो जाएगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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