भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-90

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भागवत धर्म मिमांसा

3. माया-संतरण

'
(4.2) नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्म-मृत्युना।
गृहापत्याप्त पशुभिः का प्रीतिः साधितैश् चलैः।।[1]

वित्त का यह वर्णन है। दुर्लभेन- दुर्लभ। नित्यार्तिदेन- सदैव कष्ट देने वाला। वित्त की प्राप्ति अत्यंत कठिन है। उसके लिए सतत कष्ट भोगना पड़ता है। उसमें अपने सारे विचारों की हत्या ही है- आत्ममृत्यु है। वित्त पाया तो क्या लाभ हुआ? गृह, अपत्य, आप्त और पशु- सारा संसार बढ़ाया। पर ये कोई स्थिर वस्तुएँ हैं? का प्रीतिः साधितैः चलैः- इन चंचल वस्तुओं को प्राप्त करके भी क्या आनंद मिला? यदि कोई स्थायी चीज हथ लगती,तो समझ सकते थे कि यत्न करते हुए कुछ तकलीफ हुई तो भी कोई हर्ज नहीं। तकलीफ के लायक ही काम था, क्योंकि वह स्थायी चीज है। पुण्य या प्रेम प्राप्त किया होता तो कोई चीज थी। लेकिन पैसा, आप्त, घर ये सारे तो क्षयी है, इनका क्षय निश्चित है। ऐसों को प्राप्त कर का प्रीतिः? ये सारी बातें सुनकर सब लोग मेरे पास आकर यह कहें कि ‘आपका उपदेश हमें बहुत अच्छा लगा, हम घर-बार सब कुछ छोड़ आपके पास आए हैं। अब आप ही समझाइए कि हम क्या करें?’ तो बाबा क्या कहेगा? यही कि ‘जो कर रहे हो, उसमें विवेक रखी।’ घर-बार छोड़ने के लिए बाबा नहीं कहेगा, बल्कि उसमें विवेक रखने के लिए कहेगा। नित्य-अनित्य का विवेक रख। विवेक रखकर अपनी शक्ति का उपयोग करें, जिससे स्थिर वस्तु हाथ में आ जाए। यहाँ अनित्य वस्तुएँ तो खूब पड़ी हैं। स्वयं देह ही अनित्य है। फिर भी इस अनित्य का आधार लेकर, अनित्य व्यवहार में काम करते हुए नित्य वस्तु प्राप्त करने की दृष्टि रखनी चाहिए। शाम को सोने के पहले सोचना चाहिए कि ‘आज मैंने क्या किया?’ क्या कोई ऐसी बात की, जो मेरे साथ आएगी या ऐसा ही सब कुछ किया, जिसे छोड़कर ही जाना पड़ेगा? दिनभर जो व्यवहार किए, वे सारे प्रयोग है। व्यापार एक प्रयोग है और नौकरी भी एक प्रयोग। इन प्रयोगों से कोई स्थिर चीज आज हमने निकाली, कुछ आविष्कृत की? परोपकार का मौका आने पर परोपकार किया? कोई दुःखी मिला तो उसकी मदद करने की कोशिश की? कहीं करुणा का कार्य, प्रेम का कार्य, सहयोग का कार्य किया, जिससे चित्त शुद्धि हो? कल हमारे चित्त की जो शक्ति थी, क्या उससे अधिक शक्ति आज हम अनुभव कर रहे हैं? कल की अपेक्षा आज हमारा चित्त अधिक निर्मल है? व्यापारी रात को दिनभर की लेन-देन का हिसाब करता है, तब उसे पूँजी की कल्पना आती है। गत दिन से पूँजी बढ़ी तो समझता है कि व्यापार अच्छा हुआ। ठीक इसी तरह हम दिनभर जो व्यापार करते हैं, उनका महत्व नहीं। दिन के अंत में जो पूँजी कमाएंगे, उसी का महत्व है। उसे ही ‘धर्म’ कहते हैं। सारांश, हमारे हाथ से कौन सा धर्माचरण हुआ, यह देखना चाहिए। इसलिए मनु महाराज ने एक कसौटी बता दी है। जब हम इस दुनिया से जाएंगे, तब हमारे साथ क्या रहेगा? वे कहते हैं धर्मस्तिष्ठति केवलः। जो कुछ धर्म का काम किया होगा, वही पूँजी हमारे साथ रहेगी। बाकी सारी चीजें यहीं छूट जाएंगी। धर्म ही हमारी आखिरी पूँजी है। इसलिए दिनभर के व्यवहार से यदि हमारे सद्गुण बढ़े हों, दुर्गुण कम हुए हों, चित्त की अधिक शुद्धि हुई हो, तो कुछ कमाई हुई, यह समझें। उसका निरीक्षण करें, इतना ही बाबा कहता है। यह नहीं कहता कि सब लोग नौकरी छोड़ दें, व्यापार धंधा छोड़ दें। जो भी कुछ करें, उसके परिणाम में अपनी पूँजी गिना करें, तो बस है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.3.19

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