मनोविज्ञान
मनोविज्ञान (अंग्रेज़ी: Psychology) वह शैक्षिक व अनुप्रयोगात्मक विद्या है, जो मानव-मस्तिष्क के कार्यों एवं मानव के व्यवहार का अध्ययन करती है। यह ऐसा विज्ञान है, जो प्राणी के व्यवहार तथा मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है।
- अन्य शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है, जो क्रमबद्ध रूप से प्रेक्षणीय व्यवहार[1] का अध्ययन करता है तथा प्राणी के भीतर के मानसिक एवं दैहिक प्रक्रियाओं, जैसे- चिन्तन, भाव आदि तथा वातावरण की घटनाओं के साथ उनका संबंध जोड़कर अध्ययन करता है। इस परिप्रेक्ष्य में मनोविज्ञान को व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं[2] के अध्ययन का विज्ञान कहा गया है।
- व्यवहार में मानव व्यवहार तथा पशु व्यवहार दोनों ही सम्मिलित होते हैं। मानसिक प्रक्रियाओं में चिंतन, भाव-संवेग एवं अन्य तरह की अनुभूतियों का अध्ययन सम्मिलित होता है।
- मनोविज्ञान अनुभव का विज्ञान है, इसका उद्देश्य चेतनावस्था की प्रक्रिया के तत्त्वों का विश्लेषण, उनके परस्पर संबंधों का स्वरूप तथा उन्हें निर्धारित करने वाले नियमों का पता लगाना है।
- ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो प्राक्-वैज्ञानिक काल में मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र की एक शाखा था। जब विल्हेल्म वुण्ट ने 1879 में मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला स्थापित की, तब मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र के चंगुल से निकलकर एक स्वतंत्र विज्ञान का स्थान पा सकने में समर्थ हो सका।
- मनोवैज्ञानिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन का शुभारंभ उनके औपचारिक स्वरूप आने के बाद पहले से हो चुका था। सन 1834 ई. में वेबर ने स्पर्शेन्द्रिय संबंधी अपने प्रयोगात्मक शोधकार्य को एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किया था।
- सन 1831 में फेक्नर स्वयं एकदिश धारा विद्युत के मापन के विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित कर चुके थे। कुछ वर्षों बाद सन 1847 में हेल्मो ने ऊर्जा सरंक्षण पर अपना वैज्ञानिक लेख लोगों के सामने रखा। इसके बाद सन 1856, 1860 तथा 1866 में उन्होंने "ऑप्टिक" नामक पुस्तक तीन भागों में प्रकाशित की थी।
- 1851 तथा 1860 ई. में फेक्नर ने भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ- 'ज़ेंड आवेस्टा' तथा 'एलिमेंटे डेयर साईकोफ़िजिक' प्रकाशित किए थे।
आधुनिक मनोविज्ञान मनोविज्ञान आधुनिक युग की नवीनतम विद्या है। वैसे तो मनोविज्ञान का प्रारम्भ आज से 2,000 वर्ष पूर्व यूनान में हुआ था। प्लेटो ओर अरस्तू के लेखों में उसे हम देखते हैं। मध्यकाल में मनोविज्ञान चिंतन की यूरोप में कमी हो गई थी। आधुनिक युग में इसका प्रारंभ ईसा की अठारहवी शताब्दी में हुआ। परंतु उस समय मनोविज्ञान केवल दर्शनशास्त्रों का सहयोगी था। उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। मनोविज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्व 19 वीं शताब्दी में हुआ, परंतु इस समय भी विद्वानों को मनुष्य के चेतन मन का ही ज्ञान था। उन्हें उसके अचेतन मन का ज्ञान नहीं था। जब अचेतन मन की खोज हुई तो पता चला कि जो ज्ञान मन के विषय में था वह उसके क्षुद्र भाग का ही था।
इन्हें भी देखें: अभिव्यक्ति एवं आसज्जा
आधुनिक मनोविज्ञान की खोज, चिकित्सा विज्ञान के कार्यकर्ताओं की देन हैं। इन खोजों की शुरुआत डॉ. फ्रायड ने की। उनके शिष्य अलफ्रेड एडलर चार्ल्स युगं विलियम स्टेकिल और फ्रेंकजी ने इसे आगे बढ़ाया। डॉ. फ्रायड स्वयं प्रारंभ में शारीरिक रोगों के चिकित्सक थे। उनके यहाँ कुछ ऐसे रोगी आए जिनकी सब प्रकार की शारीरिक चिकित्सा होते हुए भी रोग जाता नहीं था। ऐसे कुछ जटिल रोगियों का उपचार डॉ. ब्रूअर ने केवल प्रतिदिन बातचीत करके तथा रोगी की व्यथा को प्रतिदिन सुनकर किया। डॉ. ब्रूअर के इस अनुभव से यह पता चला कि मनुष्य के बहुत से शारीरिक ओर मानसिक रोग ऐसे भी होते हैं, जो किसी प्रकार की प्रबल भावनाओं के दमित होने से उत्पन्न हो जाते हैं और जब इन भावनाओं का धीरे-धीरे प्रकाशन हो जाता है तो ये समाप्त भी हो जाते हैं।
डॉ. फ्रायड की प्रमुख देन दमित भावनाओं की खोज की ही है। इनकी खोज करते हुए उन्हें पता चला कि मुनष्य के मन के कई भाग हैं। साधारणतया जिस भाग को वह जानता है, वह उसका चेतन मन ही है। इस मन के परे मन का वह भाग है जहाँ मनुष्य का वह ज्ञान संचित रहता है जिसे वह बड़े परिश्रम के साथ इकट्ठा करता है। इस भाग में ऐसी इच्छाएँ भी उपस्थित रहती हैं जो वर्तमान में कार्यन्वित नहीं हो रही होती हैं परंतु जिन्हें व्यक्ति ने बरबस दबा दिया है। मन का यह भाग अवचेतन मन कहा जाता है।
इसके परे मनुष्य का अचेतन मन है। मन के इस भाग में मुनष्य की ऐसी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, स्मृतियाँ और संवेग रहते हैं, जिन्हें उसे बरबस दबाना और भूल जाना पड़ता है। ये दमित भाव तथा इच्छाएँ व्यक्ति के अचेतन मन में संगठित हो जाती हैं और फिर वे उसके व्यक्तित्व में खिंचाव और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न कर देती हैं। इस प्रकार के दमित भावों, इच्छाओं ओर स्मृतियों को मानसिक ग्रंथियाँ कहा जाता हैं। मानसिक रोगी के मन में ऐसी अनेक प्रबल ग्रंथियाँ रहती हैं इनका रोगी को स्वयं ज्ञान नही रहता और उनकी स्वीकृति भी वह करना नहीं चाहता। ऐसी ही दमित ग्रंथियाँ अनेक प्रकार के मानसिक तथा शारीरिक रोगों में व्याप्त होती हैं। हिस्टीरिया का रोग उन्हीं में से एक हैं। यह रोग कभी कभी शारीरिक रोग बनकर प्रगट होता है तब इसे रूपांतररित हिस्टीरिया कहा जाता है।
मनुष्य के अचेतन मन में न केवल दमित अवांछनीय और अनैतिक भाव रहते हैं, वरन् उन्हें दमन करनेवाली नैतिक धारणाएँ भी रहती हैं। इन नैतिक धारणाओं का ज्ञान व्यक्ति के चेतन मन को न होने के कारण उनमें सरलता से परविर्तन नहीं किया जा सकता। मनुष्य के सुस्वत्व और उसके अचेतन मन में उपस्थित वासनात्मक, असामाजिक भावों और इच्छाओं का संघर्ष मुनष्य के अनजाने ही होता है। मुनष्य का सुस्वत्व उस कुत्ते के समान है जो मनुष्य के अचेतन मन में उपस्थित असामाजिक विचारों और इच्छाओं को चेतना के स्तर पर आकर प्रकाशित नहीं होने देता। फिर ये दमित भाव अपना रूप बदलकर मनुष्य की जाग्रत अवस्था में अथवा उसकी स्वप्नावस्था में, जबकि उसका सुस्वत्व कुछ ढीला हो जाता है, रूप बदलकर प्रकाशित होते हैं। यही भाव अनेक प्रकार के रूप बदलकर शारीरिक रोगों अथवा आचरण के दोषों में प्रकाशित होते हैं। डॉ. फ्रायड ने स्वप्न के लिए नया विज्ञान ही खड़ा कर दिया। उनके कथनानुसार स्वप्न अचेतन मन में उपस्थित दमित भावनाओं के कार्यों का परिणाम है। किसी व्यक्ति के स्वप्न को जानकर और उसका ठीक अर्थ लगाकर हम उसके दमित भावों को जान सकते हैं और उसके मानसिक विभाजन को समाप्त करने में उसकी सहायता कर सकते हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान की खोज डॉ. फ्ऱायड के उपर्श्युक्त खोजों के आगे भी गई हैं। उनके शिष्य डॉ. युंग ने बताया कि मनुष्य के सुस्वत्व की जड़ केवल उसके व्यक्तिगत अनुभव में नहीं है, वरन् यह संपूर्ण मानवसमाज के अनुभव में है। इसी कारण जब मनुष्य समाज की मान्यताओं के प्रतिकूल आचरण करता है तो उसके भीतरी मन में अकारण ही दंड का भय उत्पन्न हो जाता है। यह भय तब तक नहीं जाता जब तक मनुष्य अपनी नैतिकता संबंधी भूल स्वीकार नहीं कर लेता और उसका प्रायश्चित नहीं कर डालता। इस तरह की आत्मस्वीकृति और प्रायश्चित से मनुष्य के भोगवादी स्वत्व और सुस्वत्व अर्थात् समाजहितकारी उपस्थित स्वत्व में एकता स्थापित हो जाती है। मनुष्य को मानसिक शांति न तो भोगवादी स्वत्व की अवहेलना से मिलती है और न सुस्वत्व की अवहेलना से। दोनों के समन्वय से ही मानसिक स्वास्थ्य और प्रसन्नता का अनुभव होता है।
इंग्लैंड के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डॉ. विलियम ब्राउन मन के उपर्युक्त सभी स्तरों के परे मनुष्य के व्यक्तित्व में उपस्थित एक ऐसी सत्ता को भी बताते हैं, जो देश और काल की सीमा के परे है। इसकी अनुभूति मनुष्य को मानसिक और शारीरिक शिथिलीकरण की अवस्था में होती है। उनका कथन है कि जब मनुष्य अपने सभी प्रकार के चिंतन को समाप्त कर देता है और जब वह इस प्रकार शांत अवस्था में पड़ जाता है, तब वह अपने ही भीतर उपस्थित एक ऐसी सत्ता से एकत्व स्थापित कर लेता है जो अपार शक्ति का केंद्र है और जिससे थोड़े समय के लिए भी एकत्व स्थापित करने पर अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग शांत हो जाते हैं। इससे एकत्व स्थापित करने के बाद मनुष्य के विचार एक नया मोड़ ले लेते हैं। फिर ए विचार रोगमूलक न होकर स्वास्थ्यमूलक हो जाते हैं।
आधुनिक मनोविज्ञान अब भगवान् बुद्ध और महर्षि पातंजलि की खोजों की ओर जा रहा है। मन के उपर्युक्त तीन भागों के परे एक ऐसी स्थिति भी है जिसे एक ओर शून्य रूप और दूसरी ओर अनंत ज्ञानमय कहा जा सकता है। इस अवस्था में द्रष्टा और दृश्य एक हो जाते हैं और त्रिपुटी जन्य ज्ञान की समाप्ति हो जाती है।[3]
|
|
|
|
|