महाराष्ट्र की संस्कृति
महाराष्ट्र का सांस्कृतिक जीवन प्राचीन भारतीय संस्कृति, सभ्यता और ऐतिहासिक घटनाओं के प्रभावों का मिश्रण है। मराठी भाषा और मराठी साहित्य का विकास महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान की अभिव्यक्ति है। स्थानीय व क्षेत्रीय देवताओं के प्रति भक्ति, ज्ञानेश्वर व तुकाराम जैसे संत कवियों की शिक्षाओं और छत्रपति शिवाजी व अन्य राजनीतिक तथा सामाजिक नेताओं के प्रति आदरभाव, महाराष्ट्र की संस्कृति की विशेष पहचान है। कोल्हापुर, तुलजापुर, पंढरपुर, नासिक, अकोला, फल्तन, अंबेजोगाई और चिपलूण व अन्य धार्मिक स्थलों पर दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मेलों और त्योहारों का भी महत्व कम नहीं है। महाराष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन में गणेश चतुर्थी, रामनवमी, अन्य स्थानीय व क्षेत्रीय मेले और त्योहार महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके द्वारा लोगों का स्थानीय तथा क्षेत्रीय मेल-मिलाप होता है और ये सामाजिक एकता को बढ़ावा देते हैं। अन्ध धर्मों के त्योहारों में भी लोग बड़ी संख्या में शामिल होते हैं, जो सांस्कृतिक जीवन के महानगरीय चरित्र को दर्शाता है। ‘महानुभाव मत’ और डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर द्वारा पुनर्जीवित किए गए बौद्ध धर्म से सांस्कृतिक जीवन को नया आयाम मिला है।
- रंगमंच
1990 के दशक में महाराष्ट्र में रंगमंच पर विशेष ध्यान दिया गया; वी. खादिलकर और विजय तेंदुलकर जैसे नाटककार और बालगंधर्व जैसे कलाकारों ने मराठी नाटक को कला के रूप में स्थापित कर दिया। भारत के फ़िल्म उद्योग की शुरुआत का श्रेय दादा साहब फाल्के और बाबूराव पेंटर जैसे अग्रणियों को जाता है। पुणे की प्रभात फ़िल्म कम्पनी, संत तुकाराम और ज्ञानेश्वर के निर्माण के लिए प्रसिद्ध हुई। हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में नाना पाटेकर और माधुरी दीक्षित जैसे मराठी कलाकार विशेष रूप से सफल रहे हैं। मराठी साहित्य की ही तरह महाराष्ट्र में संगीत की भी प्राचीन परम्परा है। लगभग 14वीं शताब्दी में इसका मेल भारतीय संगीत से हुआ। आधुनिक काल में पंडित पलुस्कर और पंडित भातखण्डे ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को नई दिशा दी। विलायत हुसैन, अल्ला रक्खा जैसे अन्य वादकों की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आज पंडित भीमसेन जोशी और लता मंगेशकर जैसे गायक महाराष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन में संगीत की महत्त्वपूर्ण भूमिका का प्रतिनिधित्व करते हैं। महाराष्ट्र में कला की भी प्राचीन परम्परा है, जो अजन्ता व एलोरा की गुफ़ाओं, वस्त्र, सोने-चाँदी के आभूषण, लकड़ी के खिलौनों, चमड़े के सामान और मिट्टी के बर्तन की डिज़ाइनों में देखा जा सकता है।
1833 में स्थापित सर जे.जे स्कूल ऑफ़ आर्ट, कला शिक्षा के क्षेत्र में पहला आधुनिक संस्थान था। अब महाराष्ट्र के अधिकांश नगरों और बड़े शहरों में कला संस्थान हैं। शास्त्रीय नृत्य शैलियों ने प्रतिभाओं को आकर्षित किया है और पुणे जैसे बड़े नगरों में इनके प्रशिक्षण विद्यालय फल-फूल रहे हैं। लावणी (रूमानी गीत), पोवाड़ा (ओजस्वी नृत्य) और तमाशा जैसी संगीत, नाटक व नृत्य से युक्त लोककथाएँ पुनर्जीवित हुई हैं। कला और फ़िल्म निदेशालय और साहित्य और संस्कृति बोर्ड, राज्य सरकार की गहरी रुचि के परिचायक हैं। महाराष्ट्र की संस्कृति का प्रभाव महाराष्ट्र से बाहर भी फैला है। भूतपूर्व मराठा साम्राज्य की राजधानियाँ, जैसे बड़ौदा (अब वडोदरा), ग्वालियर और अन्य नगरों में महाराष्ट्र मण्डल इसमें सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
मुम्बई की संस्कृति
मुम्बई का सांस्कृतिक जीवन इसकी जातीय विविधतायुक्त जनसंख्या को प्रतिबिम्बित करता है। शहर में बहुत से संग्रहालय, पुस्तकालय, साहित्यिक एवं कई अन्य सांस्कृतिक संस्थान, कला, दीर्घाएँ व रंगशालाएँ हैं। भारत का कोई अन्य शहर अपनी सांस्कृतिक एवं मनोरंजन सुविधाओं के मामले में इतनी उच्च श्रेणी की विविधता और गुणवत्ता का शायद ही दावा कर सके। मुम्बई भारतीय फ़िल्म उद्योग का गढ़ है। साल भर यहाँ पश्चिमी व भारतीय संगीत सम्मेलन एवं महोत्सव और भारतीय नृत्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इंडो—सार्सेनिक वास्तुशिल्प की एक इमारत में द प्रिंस आफ़ वेल्स म्यूज़ियम आफ़ वेस्टर्न इंडिया है, जिसमें कला, पुरातत्त्व व प्राकृतिक इतिहास के तीन प्रमुख विभाग हैं। निकट ही जहाँगीर आर्ट गैलरी है, जो मुम्बई की पहली स्थायी कला दीर्घा है और सांस्कृतिक व शैक्षिक गतिविधियों का केन्द्र है
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