मुग़लकालीन राजस्व प्रणाली

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मुग़लकालीन शासन व्यवस्था में राजस्व के स्रोत मुख्यतः दो भागों में बँटे थे- 'केन्द्रीय' एवं 'स्थानीय'। केन्द्रीय आय के कई महत्त्वपूर्ण स्रोत थे, जिनमें भू-राजस्व, चुंगी, टकसाल, उत्तराधिकारी के अभाव में प्राप्त आय, उपहार, नमक पर कर एवं प्रत्येक व्यक्ति पर लगने वाला पॉल-टैक्स या व्यक्ति कर शामिल था। इन सबमें ‘भू-राजस्व’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत था। वास्तविक कृषि उत्पाद या फ़सल में राज्य के अंश को 'माल' या 'ख़राज' (लगान, भूमिकर, चौथ) के रूप में अभिहित किया जाता था।

भूमि का विभाजन

भूमि कर के विभाजन के आधार पर मुग़ल साम्राज्य की समस्त भूमि तीन वर्गों में विभक्त थी-

  1. खालसा भूमि
  2. जागीर भूमि
  3. सयूरगल भूमि।

खालसा भूमि

प्रत्यक्ष रूप में बादशाह के अधिकार क्षेत्र में रहने वाली 'खालसा भूमि' से प्राप्त आय शाही कोष में जमा कर दी जाती थी। इस आय का उपयोग व्यक्तिगत ख़र्च पर (शाही परिवार), राजा के अंगरक्षक एवं निजी सैनिक पर, युद्ध की तैयारी आदि पर किया जाता था। सम्पूर्ण साम्राज्य का लगभग 20 प्रतिशत क्षेत्र खालसा भूमि के अन्तर्गत शामिल था। 1573 ई. में अकबर ने जागीर भूमि को कम करके खालसा भूमि के विस्तार का निर्णय लिया। जहाँगीर ने खालसा भूमि का आकार कम कर दिया था, पर शाहजहाँ ने इसका पुनः विस्तार किया। औरंगज़ेब के शासन काल के अन्तिम दिनों में खालसा भू-क्षेत्रों को जागीरों के रूप आवंटित किया जाने लगा।

जागीर भूमि

यह भूमि राज्य के प्रमुख कर्मचारियों को उनकी तनख़्वाह के बदले दी जाती थी। जब इस भूमि का केन्द्र के निरीक्षण में हस्तांतरण होता था, तब इसे ‘पायबाकी’ कहा जाता था। भूमि प्राप्त करने वाले को भूमि से कर वसूलने का भी अधिकार मिला रहता था। पदमुक्त होने पर इस भूमि पर से उस व्यक्ति का अधिकार जागीरदारों के हाथों में चला जाता था। जागीरदारों पर नियंत्रण रखने के लिए 'सावानिहनिगार' नामक विभाग होता था, जो जागीरदारों की कार्रवाई एवं अन्य विवरण केन्द्र को भेजता था।

सयूरगल भूमि

इस प्रकार की भूमि को 'मदद-ए-माश' भी कहा जाता था। यह भूमि अनुदान के रूप में धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों को दी जाती थी। इस तरह की अधिकांश भूमि अनुत्पादक होती थी। इस भूमि को ‘मिल्क’ भी कहा जाता था।

जहाँगीर ने ‘अलतमगा’ जागीर अनुदान में प्रदान की थी। यह जागीर वंशानुगत होती थी। ‘एम्मा जागीरें’ मुसलमान धर्मविदों और उलेमाओं को प्रदान की जाती थी।

अकबर की भू-राजस्व नीति

मुग़ल शासकों में अकबर ने ही सर्वप्रथम भूमि या भूमि कर व्यवस्था को संगठित करने का प्रयास किया। उसने शेरशाह सूरी की राजस्व व्यवस्था को प्रारम्भ में अपनाया। शेरशाह द्वारा भू-राजस्व हेतु अपनायी जाने वाली पद्धति ‘राई’ का प्रयोग अकबर ने भी राजस्व दरों के प्रयोग के लिए किया। अकबर ने शेरशाह की तरह भूमि की नाप-जोख करवाकर, भूमि को उत्पादकता के आधार पर एक-तिहाई भाग लगान के रूप में निश्चित किया था।

बैरम ख़ाँ के प्रभाव से मुक्त होने पर अकबर ने भू-राजस्व व्यवस्था के पुनः निर्धारण हेतु 1570-1571 ई. में मुज़फ्फर ख़ाँ तुरबाती एवं राजा टोडरमल को अर्थमंत्री के पद पर नियुक्त किया। उसने वास्तविक आंकड़ों के आधार पर भू-राजस्व का 'जमा-हाल हासिल' नामक नवीन लेखा तैयार करवाया। गुजरात को जीतने के बाद 1573 ई. में अकबर ने पूरे उत्तर भारत में ‘करोड़ी’ नाम के अधिकारी की नियुक्ति की। उसे अपने क्षेत्र से एक करोड़ दाम वसूल करना होता था। ‘करोड़ी’ की सहायता के लिए ‘आमिल’ नियुक्त किये गए। ये क़ानूनगों द्वारा बताये गये आंकड़े की भी जाँच करते थे। वास्तविक उत्पादन, स्थानीय क़ीमतें, उत्पादकता आदि पर उनकी सूचना के आधार पर अकबर ने 1580 ई. में 'दहसाला' नाम की नवीन प्रणाली को प्रारम्भ किया।

टोडरमल का बन्दोबस्त

अकबर के शासनकाल के 1571 ई. से 1580 ई. (10 वर्षों) के आंकड़ों के आधार पर भू-राजस्व का औसत निकालकर 'आइन-ए-दहसाला' लागू किया गया। इस प्रणाली के अन्तर्गत राजा टोडरमल ने अलग-अलग फ़सलों पर नक़द के रूप में वसूल किये जाने वाला लगान का 1571 से ई. के मध्य क़रीब 10 वर्ष का औसत निकालकर, उस औसत का एक-तिहाई भू-राजस्व के रूप में निश्चित किया। कालान्तर में इस प्रणाली में सुधार के अन्तर्गत न केवल ‘स्थानीय क़ीमतों’ को आधार बनाया गया, बल्कि कृषि उत्पादन वाले परगनों को विभिन्न कर हलकों में बांटा गया। अब किसान को भू-राजस्व स्थानीय क़ीमत एवं स्थानीय उत्पादन के अनुसार देना होता था ‘आइने दहसाला’ व्यवस्था को ‘टोडरमल बन्दोबस्त’ भी कहा जाता था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत भूमि की पैमाइश हेतु उसे 4 भागों में विभाजित किया गया-

अकबर के शासन काल में लगान भूमि की वास्तविक उपज पर लगभग एक-तिहाई भाग व अनाज के रूप में वसूल किया जाता था। अकबर ने सूर्य के आधार पर एक संवत चलाया, जिसे ‘इलाही संवत’ कहा जाता है। यही 'फ़सली संवत' था। इससे किसानों को भू-राजस्व अदा करने तथा मुग़ल शासन व्यवस्था को अपने राजस्व आलेख तैयार करने में सुविधा हुई।


इन्हें भी देखें: आइन-ए-दहसाला

  • लगान खेती के लिए प्रयुक्त भूमि पर ही वसूला जाता था।

भूमि की नाप का प्रचलन

लगान निर्धारण से पूर्व भूमि की माप कराई जाती थी। अकबर ने अपने शासन काल के 31वें वर्ष लगभग 1587 ई. में भूमि की पैमाइश हेतु पुरानी मानक ईकाई सन की रस्सी से निर्मित ‘सिकन्दरी गज़’ के स्थान पर ‘इलाही गज़’ का प्रयोग आरम्भ किया। यह गज़ लगभग 41 अंगुल या 33 इंच के बराबर होता था। वह ‘तनब’ तम्बू की रस्सी एवं ‘जरीब’ लोहे की कड़ियों से जुड़ी हुई बाँस द्वारा निर्मित होती थी। शाहजहाँ के काल में दो नई नापों का प्रचलन हुआ।

  1. बीघा-ए-इलाही
  2. दिरा-ए-शाहजहाँनी (बीघा-ए-दफ़्तरी)

औरंगज़ेब के शासन काल में 'दिरा-ए-शाहजहाँनी' का प्रयोग बंद हो गया था, परन्तु 'बीघा-ए-इलाही' का प्रयोग मुग़ल साम्राज्य के अंत तक चलता रहा।

जाब्ती प्रथा

अकबर के शासन काल में 15वें वर्ष लगभग 1570-1571 ई. में टोडरमल ने खालसा भूमि पर भू-राजस्व की नवीन प्रणाली, जिसका नाम ‘जाब्ती’ था, को प्रारम्भ किया। इस प्रणाली में भूमि की पैमाइश एवं खेतों की मूल वास्तविक पैदावार को आंकने के आधार पर कर की दरों को निर्धारित किया जाता था। यह प्रणाली बिहार, लाहौर, इलाहाबाद, मुल्तान, दिल्ली, अवध, मालवा एवं गुजरात में प्रचलित थी। इसमें कर निर्धारण की दो श्रेणी थी, एक को ‘तखशीस’ कर निर्धारण कहते थे और दूसरे को ‘तहसील’ व 'वास्तविक वसूली' कहते थे। लगान निर्धारण के समय राजस्व अधिकारी द्वारा लिखे गये पत्र को ‘पट्टा’, ‘कौल’ या ‘कौलकरार’ कहा जाता था।

उपर्युक्त प्रणाली के अन्तर्गत उपज के रूप में निर्धारित भू-राजस्व को नक़दी के रूप में वसूल करने के लिए विभिन्न फ़सलों के क्षेत्रीय आधार पर नक़दी भू-राजस्व अनुसूची (दस्तूरूल अमल) तैयार की जाती थी। मुग़ल काल में 'खुम्स' नामक कर समाप्त हो गया था, क्योंकि मुग़ल सैनिक वेतनभोगी होते थे। इस प्रकार उन्हें लूट की सम्पत्ति का कोई हिस्सा नहीं मिलता था। मुग़ल सम्राटों को अधीनस्थ राजाओं तथा मनसबदारों द्वारा समय-समय पर दिये जाने वाले एक निश्चित राजस्व को 'पेशकश' कहा जाता था। औरंगJeब ने आज्ञा दी थी, कि नक़द पेशकश को 'नज़र' कहा जाय तथा सम्राट द्वारा शाहज़ादों को दिये गये उपहार को 'नियाज' एवं अमीर के उपहार को 'निसार' कहा जाय।

लगान निर्धारण की अन्य प्रणालियाँ

मुग़ल काल में वारिसविहीन सम्पत्ति को 'राजगामिता क़ानून' के द्वारा 'बैतुलमान' (शाही ख़ज़ाना) में जमा कर दिया जाता था। लगान निर्धारण की अन्य प्रणाली ‘बंटाई’ या ‘गल्ला बख़्शी’ (फ़ारसी) मुग़ल काल की सर्वाधिक प्राचीन प्रचलित प्रणाली थीं। इस प्रणाली में किसानों को कर उपज या नक़दी, दोनों ही रूपों में देने की छूट होती थी, परन्तु सरकार का प्रयास राजस्व को नक़द में ही लेने का रहता था। कुछ ख़ास फ़सलें जैसे कपास, नील, तेल, बीज, गन्ना जैसी उपज पर कर नक़द ही लिया जाता था। इसलिए उन्हें ‘नक़दी खेती’ कहा जाता था। इस प्रणाली में खेती के बंटवारे के हिसाब से कर लगाया जाता था। तीन प्रकार की बंटाई होती थी - (1.) खेत बटाई, (2.) लंक बटाई एवं (3.) रास बटाई। इस प्रणाली का प्रचलन काबुल, कश्मीर एवं थट्टा में था। मुग़ल काल में कपास, नील, तिलहन, एवं गन्ना को ‘तिजारत फ़सल’ भी कहा जाता था।

नस्ख प्रणाली

नस्ख प्रणाली का मुग़ल काल में खूब प्रचलन था, परन्तु इसके विषय में विस्तृत जानकारी का अभाव है। सम्भवतः इस प्रणाली में भूमि को प्रत्येक वर्ष नहीं मापा जाता था। पटवारी के रिकार्ड में जो माप लिखी होती थी, उसी को मान लिया जाता था। इसमें कर का निर्धारण ‘नस्क पद्धति’ व फ़सल के अनुमान द्वारा निश्चित होता था। निर्धारण की इस कच्ची प्रणाली को ‘कनकूत’ भी कहा जाता था।

इलाही संवत

अकबर के शासन काल में लगान भूमि की वास्तविक उपज पर लगभग एक-तिहाई भाग व अनाज के रूप में वसूल किया जाता था। अकबर ने सूर्य के आधार पर एक संवत चलाया, जिसे ‘इलाही संवत’ कहा जाता है। यही 'फ़सली संवत' था। इससे किसानों को भू-राजस्व अदा करने तथा मुग़ल शासन व्यवस्था को अपने राजस्व आलेख तैयार करने में सुविधा हुई। अकबर की ही भू-राजस्व व्यवस्था को जहाँगीर ने भी अपनाया, परन्तु प्रबन्ध के क्षेत्र में वह अकबर की अपेक्षा कमज़ोर था। जहाँगीर ने अकबर की ‘जाब्ती’ व्यवस्था' को अधिक महत्व देते हुए बिना किसी परिवर्तन के इसे बंगाल में भी लागू किया। जहाँगीर के समय में भूमि को अनुदान के रूप में जागीरदारों में बांटने की प्रथा का विकास हुआ।

शाहजहाँ ने पिता जहाँगीर की भू-राजस्व व्यवस्था में परिवर्तन करते हुए सर्वप्रथम ‘धालसा भूमि’ से प्राप्त होने वाली लगान की आय को ‘भू-राजस्व’ से प्राप्त होने वाली राशि से अलग किया। सम्भवतः शाहजहाँ ने अपने शासनकाल में लगान पैदावार की 33 प्रतिशत से 50 प्रतिशत के मध्य लेना प्रारम्भ कर दिया था। इसने लगान वसूली के लिए ‘ठेकेदारी प्रथा’ को आरम्भ किया। शाहजहाँ प्रथम मुग़ल शासक था, जिसने दक्षिण भारत में मुर्शिद कुली ख़ाँ के सहयोग से भू-राजस्व व्यवस्था को संगठित करने का प्रयत्न किया। मुर्शीद कुली ख़ाँ को ‘दक्षिण को टोडरमल’ कहा जाता था।

कृषकों का वर्ग विभाजन

मुग़लकालीन प्रमुख फ़सलें
फ़सलें उत्पादन क्षेत्र
गन्ना उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार
नील उत्तर एवं दक्षिण भारत
गेहूं पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार आदि
अफीम मालवा एवं बिहार
चावल मद्रास, कश्मीर आदि
नमक सांभर झील, पंजाब की पहाड़ी, गुजरात, सिंध आदि
  • शराब, कपास एवं शोरा का उत्पादन लगभग पूरे देश में होता था।

औरंगज़ेब ने अपने शासन काल में ‘नस्ख प्रणाली’ को अपनाया। भू-राजस्व की राशि उपज की आधी कर दी गयी। औरंगज़ेब के समय में जागीरदारी प्रथा एवं ठेकेदारी (भूमि की) प्रथा का काफ़ी विस्तार हो चुका था। औरंगज़ेब ने हिन्दू राजस्व अधिकारी के स्थान पर मुस्लिम अधिकारी की नियुक्त की| मुग़ल काल में कृषक तीन वर्गों में विभाजित थे-

  1. खुदकाश्त - ये किसान उसी गाँव की भूमि पर खेती करते थे, जहाँ के वे निवासी थे। इनका भूमि पर अस्थायी अधिकार था। इसे ‘मलिक-ए-ज़मीन’ भी कहते थे।
  2. पाहीकाश्त - ये किसान दूसरे गाँव में जाकर कृषि कार्य कर जीविकोपार्जन करते थे। वहाँ इनकी अस्थायी झोपड़ी होती थी।
  3. मुजारियान - ‘मुजारियान’ कृषकों के पास इतनी कम भूमि होती थी, कि वे उस भूमि में अपने परिवार के कुल श्रम का भी प्रयोग नहीं कर पाते थे। इसलिए ये खुदकाश्त कृषकों की ज़मीन किराये पर लेकर कृषि कार्य करते थे। भूमिया वर्ग पैतृक ज़मीन के मलिक होते थे, जबकि गिरिसिया वर्ग को केवल ज़मीन संरक्षण का अधिकार था। मुग़ल काल में ज़मीदारों को खेती, मुकद्दमी, बिस्वी तथा भोगी भी कहा जाता था।

मुग़ल राजस्व व्यवस्था में लगान का निर्धारण फ़सल के रूप में किया जाता था, तथा इसकी वसूली नक़द के रूप में की जाती थी। साम्राज्य के दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्रों में अनाज या फ़सल के रूप में भी लगान वसूल करने की अनुमति थी। कश्मीर, उड़ीसा तथा राजपूताना के क्षेत्रों में गल्ले के रूप में मालगुज़ारी वसूली जाती थी। किसानों को लगान के अतिरिक्त अन्य विविध प्रकार के उपकर अदा करने पड़ते थे। खेतों की पैमाइश करने वाले को एक दाम प्रति बीघा ‘जबिताना’ कर देना पड़ता था। ‘दहसेरी’ नामक अन्य कर प्रति बीघा के हिसाब से वसूला जाता था। पशुओं, चरागाहों एवं बाग़ों पर भी कर लगते थे। अकाल पड़ने पर लगान में छूट दी जाती थी।

कृषि

अबुल फ़ज़ल की आईना-ए-अकबरी में रबी की 16 तथा ख़रीफ़ की 25 फ़सलों का उल्लेख मिलता है।

खनिज

खनिज पदार्थों में सोना, कुमायूँ पर्वत एवं पंजाब की नदियों से, लोहा देश के अनेक भागों से, ताँबा राजस्थान एवं मध्य भारत से, ‘लाल पत्थर’ फ़तेहपुर सीकरी एवं राजस्थान से, पीला पत्थर थट्टा से, ‘संगमरमर’ जयपुर एवं जोधपुर से तथा हीरा गोलकुण्डा एवं छोटा नागपुर की पहाड़ियों से प्राप्त किया जाता था।

उद्योग

उद्योग के क्षेत्र में रुई का उत्पादन एवं उससे निर्मित सूती वस्त्र निर्माण उद्योग सर्वाधिक विकसित था। सूती वस्त्र निर्माण के महत्त्वपूर्ण केन्द्र आगरा, बनारस, बुरहानपुर, पाटन, जौनपुर, बंगाल, मालवा आदि थे। रंगसाजी अर्थात कपड़े को रंगने का उद्योग भी अयोध्या (फैजाबाद) एवं ख़ानदेश में खूब प्रचलित था। ढाका (बंगाल), लाहौर, आगरा, गुजरात आदि क्षेत्र रेशमी कपड़े एवं मलमल के लिए प्रसिद्ध थ। जहाँगीर ने अमृतसर में ऊनी वस्त्र उद्योग की स्थापना की थी।

व्यापार

व्यापार की स्थिति मुग़ल काल में बेहतर थी। इस समय फ्राँस से ऊनी वस्त्र, इटली एवं फ़ारस से रेशम, फ़ारस से कालीन, मध्य एशिया तथा अरब से अच्छी नस्ल के घोड़े, चीन से कच्चा रेशम एवं सोना तथा चाँदी का आयात होता था। भारत की प्रमुख निर्यातक वस्तुयें थीं - सूती कपड़ा (मुख्यतः यूरोप), नील, अफीम, मसाले, चीनी, शोरा, काली मिर्च, नमक आदि। निर्यात के दो महत्त्वपूर्ण स्थल मार्ग थे - लाहौर से काबुल एवं मुल्तान से कंधार। मुग़ल काल में महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह के रूप में चीन, नागापट्टम, चटगाँव, सोनारगाँव, चैल, बसीन आदि थे। बन्दरगाह का प्रमुख अधिकारी ‘शाह बन्दर’ कहलाता था। राज्य निर्यात की जाने वाली या आयात की जाने वाली वस्तुओं पर 3.5 प्रतिशत चुंगी (व्यापारिक कर) लेता था।

मुद्रा व्यवस्था

बाबर ने काबुल में शाहरुख नामक चाँदी का सिक्का तथा कंधार में बाबरी (चाँदी) सिक्का चलाया। मुग़ल काल में मुख्य रूप से तीन प्रकार के धातु के सिक्के ‘सोने की मुहर’, ‘चाँदी का रुपया’ एवं ताँबा के दाम, प्रचलन में थे। अकबर ने 1577 ई. में दिल्ली में एक टकसाल स्थापित किया तथा ख़्वाजा अब्दुस्समद को उसका प्रमुख बनाया। अपने शासन काल के प्रारंभ में अकबर ने ‘मुहर’ नामक सिक्का चलाया। सोने के सिक्कों में शहनशाह, आत्मा बिसात, चुगुल और जलाली महत्त्वपूर्ण हैं। ‘चाँदी का रुपया’ एवं तांबे के दाम प्रचलन में थे। ‘चाँदी का रुपया’ मुग़लकालीन अर्थव्यवस्था का आधार था। यह 178 ग्रेन का था। चाँदी के रुपये का प्रचलन सर्वप्रथम शेरशाह सूरी ने किया था। अकबर ने ‘जलाली’ नाम का चौकोर आकार का रुपया चलाया। तांबे का ‘दाम' व 'पैसा’ या ‘फलूस’ 323.5 ग्रेन का बना होता था।

स्वर्ण का सर्वाधिक प्रचलित सिक्का ‘इलाही’ एवं सबसे बड़ा सिक्का ‘शंसब’ था। अकबर ने कुछ सिक्कों पर रामसीता की मूर्ति अंकित करवायी तथा उस पर ‘राम-सिया’ लिखवाया। टकसाल का अधिकारी चौधरी कहलाता था। केन्द्री टकसाल से कोई भी व्यक्ति 5 या 6 प्रतिशत शुल्क देकर सिक्का ढलवा सकता था। असीरगढ़ विजय के उपलक्ष्य में अकबर ने एक सोने का सिक्का चलवाया, जिस पर एक ओर बाज की आकृति थी। दैनिक लेन-देन व छोटे लेन-देन में तांबे के दाम का प्रयोग होता था। जहाँगीर ने ‘निसार’ (एक रुपये का चौथाई) नामक सिक्का चलाया। शाहजहाँ ने दाम और रुपये के मध्य ‘आना’ नामक नये सिक्के का प्रचलन करवाया। मुग़ल काल में रुपये की सर्वाधिक ढलाई औरंगज़ेब के शासन काल में हुई। जहाँगीर ने अपने समय में सिक्कों पर अपनी आकृति बनवायी साथ ही अपना नाम तथा नूरजहाँ का नाम उस पर अंकित करवाया। औरंगज़ेब के समय में रुपये का वज़न 180 ग्रेंन होता था। एक रुपये में 40 ‘दाम’ होते थे। औरंगज़ेब ने सिक्कों पर कलमा अंकन की प्रथा बंद कर दी तथा अन्तिम काल में जारी सिक्कों पर मीर अब्दुल बाकी शाहबाई द्वारा रचित पद्य अंकित करवाया। मुहर मुग़ल काल में सबसे प्रचलित सिक्का था। इसका मूल्य 1 रुपया था। अबुल फ़ज़ल के अनुसार सोने के सिक्के ढालने के लिए 4 टकसालें, चाँदी के 14 तथा तांबे के सिक्के के लिए 42 टकसालें थीं।


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