मूकज्जी -शिवराम कारंत
मूकज्जी -शिवराम कारंत
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लेखक | शिवराम कारंत |
मूल शीर्षक | मूकज्जी |
प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी 2004 |
ISBN | 81-263-0594-0 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 223 |
भाषा | हिंदी |
मूकज्जी शिवराम कारंत की एक रचना (उपन्यास) है जो अपने पोते के माध्यम से इतिहास का ऊहापोह करती अनेक पात्रों की जीवन-गाथा में अपनी समस्त कोमल संवेदनाओं को उड़ेलती है और हमे सिखाती है कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति और मनुष्यता का सबसे बड़ा गुण है करुणा। मूकज्जी मिथ्यात्व और छलनाओं से भरी इन तथाकथित नैतिकताओं को चुनौती देती है और हमें जीवन की यथार्थ दृष्टि प्रदान करती है। मूकज्जी जिसने स्वयं जीवन की वंचना भोगी है। सैक्स और काम के सम्बन्ध में खुलकर बोलने वाली बन गयी है, वैज्ञानिक हो गयी है।
प्रस्तुति
भारतीय साहित्य के श्रेष्ठ कृतित्व को हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करना भारतीय ज्ञानपीठ की ‘राष्ट्रभारती’ ग्रन्थमाला का उद्देश्य है जो विख्यात ‘लोकोदय ग्रन्थमाला’ का अंग है। भारतीय साहित्य में श्रेष्ठ क्या है और श्रेष्ठ में भी श्रेष्ठतर या श्रेष्ठतम क्या है इसका एक सुनियोजित आधार देश के सामने है-भारतीय ज्ञानपीठ का साहित्य पुरस्कार ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’। इस उद्देश्य से गठित ‘प्रवर परिषद्’ प्रतिवर्ष भारतीय संविधान द्वारा मान्य पन्द्रह भारतीय भाषाओं में से प्रत्येक की श्रेष्ठ कृतियों में से श्रेष्ठतम को चुनती है और उसके लेखक को एक लाख रुपये की राशि तथा प्रशस्ति द्वारा सम्मानित करती है। इस प्रकार के बारह सम्मान-समारोह आयोजित हो चुके हैं। इस श्रृंखला में तेरहवाँ पुरस्कार डॉ. के. शिवराम कारंत को उनके उपन्यास 'मूकज्जिय कनसुगलु' के लिए समर्पित है जिसे 1961 से 1970 के बीच प्रकाशित भारतीय साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
‘मूकज्जी' का अर्थ
‘मूकज्जी का अर्थ है, वह अज्जी (आजी-दादी) जो मूक है। इस उपन्यास में कारन्त ने अस्सी वर्ष की एक ऐसी विधवा बुढ़िया पात्र की सृष्टि की है जिसमें वेदना सहते-सहते, मानवीय स्थितियों की विषमता देखते-बूझते, प्रकृति के विशाल खुले प्रांगण में, बरसों से एक पीपल के नीचे उठते-बैठते, सब कुछ मन-ही-मन गुनते-गुनते, एक ऐसी अद्भुत अतीन्द्रिय क्षमता जाग्रत हो गयी है कि उसने प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान काल तक की समस्त मानव-सभ्यता के विकास को आत्मसात् कर लिया है। किन्तु, मात्र इतिहास-क्रम बताना इस उपन्यास का उद्देश्य नहीं है। इतिहास तो मूकज्जी की परा-चेतना का एक आनुषंगिक अंग है। वास्तव में तो यह उपन्यास अनेक क्रिया-कलापों और घटनाओं के सन्दर्भ में मानव चरित्र की ऐसी छवि है जिसमें हम सब और हमारी सारी मनोवृत्तियाँ प्रतिबिम्बित हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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