रहीमन कीन्हीं प्रीति -रहीम
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
‘रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं ।
जिनके अनगिनत मीत, समैं ग़रीबन को गनै ॥
- अर्थ
मालिक से हमने प्रीति जोड़ी, पर उसे हमारी प्रीति पसन्द नहीं। उसके अनगिनत चाहक हैं, हम ग़रीबों की साईं के दरबार में गिनती ही क्या।
रहीम के दोहे |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख