राग
राग भारतीय शास्त्रीय संगीत की आत्मा हैं। यह संगीत का मूलाधार है। 'राग' शब्द का उल्लेख भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' में भी मिलता है। 'राग' में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वरों होते हैं। राग वह सुन्दर रचना है, जो कानों को अच्छी लगे।
सृजन
रागों का सृजन बाईस श्रुतियों के विभिन्न प्रकार से प्रयोग, विभिन्न रस या भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है। प्राचीन समय में रागों को पुरुष व स्त्री रागों में अर्थात राग व रागिनियों में विभाजित किया गया था। सिर्फ़ यही नहीं, कई रागों को पुत्र राग का भी दर्जा प्राप्त था। उदाहरणत: राग भैरव को पुरुष राग और भैरवी, बिलावली सहित कई अन्य रागों को उसकी रागिनियाँ तथा राग ललित, बिलावल आदि रागों को इनके पुत्र रागों का स्थान दिया गया था। बाद में आगे चलकर पंडित विष्णुनारायण भातखंडे ने सभी रागों को दस थाटों में बॉंट दिया। अर्थात एक थाट से कई रागों की उत्पत्ति हो सकती थी। अगर थाट को एक पेड़ माना जाए व उससे उपजी रागों को उसकी शाखाओं के रूप में देखा जाए तो यह ग़लत नहीं होगा। उदाहरणत: राग शंकरा, राग दुर्गा, राग अल्हैया बिलावल आदि राग थाट बिलावल से उत्पन्न होते हैं। थाट बिलावल में सभी स्वर शुद्ध माने गए हैं। अत: तकनीकी दृष्टि से इस थाट से उपजे सभी रागों में सारे स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाने चाहिए। किंतु दस थाटों के इस सिद्धांत के बारे में कई मतांतर हैं, क्योंकि कुछ राग किसी भी थाट से मेल नहीं खाते, किंतु उन्हें नियमरक्षा हेतु किसी न किसी थाट के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है।[1]
- 'अभिनव रागमंजरी' में राग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
योऽयं ध्वनि-विशेषस्तु स्वर-वर्ण-विभूषित:।
रंजको जनचित्तानां स राग कथितो बुधै:।।
- अर्थात्
स्वर और वर्ण से विभूषित ध्वनि, जो मनुष्यों का मनोरंजन करे, राग कहलाता है।
विभाजन
किसी भी राग में अधिक से अधिक सात व कम से कम पाँच स्वरों का प्रयोग करना आवश्यक है। इस तरह रागों को मूलत: तीन जातियों में विभाजित किया जा सकता है-
- औडव जाति - जहाँ राग विशेष में पाँच स्वरों का प्रयोग होता हो।
- षाडव जाति - जहाँ राग में छ: स्वरों का प्रयोग होता हो।
- संपूर्ण जाति - जहाँ राग में सभी सात स्चरों का प्रयोग किया जाता हो।
स्वरों का महत्त्व
किसी भी राग में दो स्वरों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इन्हें 'वादी स्वर' व 'संवादी स्वर' कहते हैं। वादी स्वर को "राग का राजा" भी कहा जाता है, क्योंकि राग में इस स्वर का बहुतायत से प्रयोग होता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण स्वर है संवादी स्वर, जिसका प्रयोग वादी स्वर से कम मगर अन्य स्वरों से अधिक किया जाता है। इस तरह किन्हीं दो रागों में जिनमें एक समान स्वरों का प्रयोग होता हो, वादी और संवादी स्वरों के अलग होने से राग का स्वरूप बदल जाता है। उदाहरणत: राग भूपाली व देशकार में सभी स्वर समान हैं, किंतु वादी व संवादी स्वर अलग होने के कारण इन रागों में आसानी से अंतर बताया जा सकता है। हर राग में एक विशेष स्वर समुह के बार-बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार-बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।
स्वरूप
राग के स्वरूप को आरोह व अवरोह गाकर प्रदर्शित किया जाता है जिसमें राग विशेष में प्रयुक्त होने वाले स्वरों को क्रम में गाया जाता है। उदाहरण के लिए राग भूपाली का आरोह कुछ इस तरह है: सा रे ग प ध सां।
पहचान
हर राग में एक विशेष स्वर समूह के बार बार प्रयोग से उस राग की पहचान दर्शायी जाती है। जैसे राग हमीर में 'ग म ध' का बार बार प्रयोग किया जाता है और ये स्वर समूह राग हमीर की पहचान हैं।
प्रकार
मुग़ल़कालीन शासन के दौरान ही शायद रागों के गाने बजाने का निर्धारित समय कभी प्रचलन में आया। जिन्हें उनकी प्रकृति के आधार पर विभाजित किया गया। जिनका वर्णन निम्न प्रकार से दिया जा सकता है:-
- जिन रागों को दोपहर के बारह बजे से मध्यरात्रि तक गाया बजाया जाता था उन्हें पूर्व राग कहा गया।
- मध्यरात्रि से दोपहर के बीच गाए बजाए जाने वाले रागों को उत्तर राग कहा गया।
- कुछ राग जिन्हें भोर या संध्याकालीन समय में गाया जाता था उन्हें संधिप्रकाश राग कहा गया। *यही नहीं कुछ राग ऋतुप्रधान भी माने गए। जैसे राग मेघमल्हार वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला राग है। इसी तरह राग बसंत को वसंत ऋतु में गाए जाने की प्रथा है।
लक्षण
प्राचीन काल में राग के दस लक्षण माने जाते थे, जिनके नाम हैं– ग्रह, अंश, न्यास, अपन्यास, षाडवत्व, ओडवत्व, अल्पत्व, बहुत्व, मन्द और तार। इनमें से कुछ लक्षण आज भी परिवर्तित रूप में प्रयोग किये जाते हैं। आधुनिक समय में राग के निम्नलिखित लक्षण माने जाते हैं–
- ऊपर यह बताया गया है कि वह रचना जो कानों को अच्छी लगे, राग कहलाती है। इसलिए यह स्पष्ट है कि राग का प्रथम लक्षण या विशेषता है कि प्रत्येक राग में रंजकता अवश्य होना चाहिए।
- राग में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वर होने चाहिए। पाँच स्वरों से कम का राग नहीं होता है।
- प्रत्येक राग को किसी न किसी ठाट से उत्पन्न माना गया है। जैसे राग भूपाली को कल्याण ठाट से और राग बागेश्वरी को काफ़ी ठाट से उत्पन्न माना गया है।
- किसी भी राग में षडज अर्थात् सा कभी वर्जित नहीं होता, क्योंकि यह सप्तक का आधार स्वर होता है।
- प्रत्येक राग में म और प में से कम से कम एक स्वर अवश्य रहना चाहिए। दोनों स्वर एक साथ वर्जित नहीं होते। अगर किसी राग में प के साथ शुद्ध म भी वर्जित है, तो उसमें तीव्र म अवश्य रहता है। भूपाली राग में म वर्जित है तो मालकोश में प, किन्तु कोई राग ऐसा नहीं है जिसमें म और प दोनों एक साथ वर्ज्य होते हों।
- प्रत्येक राग में आरोह-अवरोह, वादी-साम्वादी, पकड़, समय आदि आवश्यक हैं।
- राग में किसी स्वर के दोनों रूप एक साथ एक दूसरे के बाद प्रयोग नहीं किये जाने चाहिए। उदाहरणार्थ कोमल रे और शुद्ध रे अथवा कोमल ग और शुद्ध ग दोनों किसी राग में एक साथ नहीं आने चाहिए। यह अवश्य ही सम्भव है कि आरोह में शुद्ध प्रयोग किया जाए और अवरोह में कोमल, जैसे खमाज राग के आरोह में शुद्धि नि और अवरोह में कोमल नि प्रयोग किया जाता है।
भारत की संस्कृति का एक स्तंभ भारतीय शास्त्रीय संगीत, जीवन को संवारने और सुरुचिपूर्ण ढंग से जीने की कला है। यह आधार है हर तरह के संगीत का साथ ही ऐसी गरिमामयी धरोहर है, जिससे लोक और लोकप्रिय संगीत की अनेक धाराएँ निकलती हैं। यह न केवल तीज त्योहारों में राग रंग भरती हैं बल्कि विभिन्न संस्कारों और अवसरों में भी उल्लासमय बनाते हुए अनोखी रौनक प्रदान करती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय शास्त्रीय संगीत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2012।
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