रॉबिन बनर्जी

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रॉबिन बनर्जी
रॉबिन बनर्जी
रॉबिन बनर्जी
पूरा नाम रॉबिन बनर्जी
जन्म 12 अगस्त, 1908
जन्म भूमि बहरामपुर, पश्चिम बंगाल
मृत्यु 6 अगस्त, 2003
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र पर्यावरणविद्, चित्रकार, फोटोग्राफर और दस्तावेजी फिल्म निर्माता
पुरस्कार-उपाधि पद्म श्री, 1971
प्रसिद्धि वन्यजीव विशेषज्ञ
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान
अन्य जानकारी रॉबिन बनर्जी ने कुल 32 डॉक्यूमेंट्री बनायीं, जिनमें काज़ीरंगा, वाइल्ड लाइफ ऑफ़ इंडिया, ड्रैगन्स ऑफ़ कॉमोडो आइलैंड, द अंडरवॉटर वर्ल्ड ऑफ शार्क्स, राइनो कैप्चर, ए डे एट ज़ू, वाइट विंग्स इन स्लो मोशन, मॉनसून, द वर्ल्ड ऑफ़ फ्लेमिंगो जैसी डॉक्यूमेंट्रीज़ शामिल हैं।

रॉबिन बनर्जी (अंग्रेज़ी: Robin Banerjee, जन्म- 12 अगस्त, 1908; मृत्यु- 6 अगस्त, 2003) असम के गोलघाट के एक प्रसिद्ध वन्यजीव विशेषज्ञ, पर्यावरणविद्, चित्रकार, फोटोग्राफर और दस्तावेजी फिल्म निर्माता थे। उन्होंने कुल 32 डॉक्यूमेंट्री बनायीं। उन्होंने वाइल्ड-लाइफ को बचाने और सहेजने के लिए खुद को इस तरह से समर्पित कर दिया था कि अपने मेडिकल प्रोफेशन को बिल्कुल ही छोड़ दिया। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति रॉबिन बनर्जी के इसी समर्पण के लिए उन्हें 1971 में ‘पद्म श्री’ से नवाज़ा गया। उन्हें अपनी वाइल्ड-लाइफ फिल्मों के लिए 14 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया था।

परिचय

असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क के बारे में सब ने पढ़ा और सुना है। जिन्हें वाइल्ड-लाइफ में थोड़ी-सी भी दिलचस्पी है, उन लोगों का सपना होता है कि वे एक बार तो काज़ीरंगा जाएं और जो भी यहाँ जाता है उसे इस जंगल से, यहाँ के जीव-जन्तुओं से जैसे मोहब्बत हो जाती है। ऐसा ही कुछ डॉ. रॉबिन बनर्जी के साथ हुआ, तभी तो एक मशहूर डॉक्टर कब वाइल्ड-लाइफ फिल्म-मेकर बन गया, पता ही नहीं चला। डॉ. रॉबिन बनर्जी पेशे से एक डॉक्टर थे जिन्होंने दूसरे विश्व युद्ध में रॉयल नेवी में अपनी सेवाएं दीं थीं। पेशे से पर्यावरणविद, एक फोटोग्राफर और डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर- जिन्होंने काज़ीरंगा का परिचय पूरी दुनिया से कराया।[1]

जन्म तथा शिक्षा

12 अगस्त, 1908 को पश्चिम बंगाल के बहरामपुर में जन्मे डॉ. रॉबिन बनर्जी की प्रारम्भिक शिक्षा शांतिनिकेतन से हुई। फिर उन्होंने 'कोलकाता मेडिकल कॉलेज' से डिग्री ली। इसके बाद की उनकी पढ़ाई लिवरपूल और एडिनबर्ग से हुई। साल 1937 में उन्होंने लिवरपूल में रॉयल नेवी को जॉइन किया। दूसरे विश्व युद्ध में ड्यूटी निभाने वाले डॉ. बनर्जी पर युद्ध का बहुत प्रभाव पड़ा और इसके बाद वह अपनी ज़िन्दगी कहीं शांति और सुकून के बीच बिताना चाहते थे। इसलिए उन्होंने भारत वापिस लौटने का निर्णय किया। यहाँ साल 1952 में असम चबुआ टी एस्टेट में उन्हें एक स्कॉटिश डॉक्टर के साथ काम करने का मौका मिला।

प्रकृति प्रेम

यही वह समय था जब उनका परिचय काज़ीरंगा से हुआ। हाथी पर बैठकर उन्होंने इस मंत्रमुग्ध कर देने वाले जंगल की सिर्फ एक यात्रा की और इस जगह ने उनके दिल में अपनी जगह बना ली। कुछ समय बाद उन्हें 1954 में बोकाखाट के धनाश्री मेडिकल एसोसिएशन के चीफ मेडिकल अफसर के पद पर नियुक्त किया गया। बोकाखाट, काज़ीरंगा से बहुत पास है और यहाँ से उनके प्रकृति प्रेम की शुरुआत हुई।

फ़िल्म निर्माण

डॉ. रोबिन के एक ब्रिटिश दोस्त ने उन्हें बहुत छोटा 8 मि.मी. वाला सिने-कैमरा गिफ्ट किया था और इसी कैमरे से उन्होंने एक फोटोग्राफर और फिल्म-मेकर के तौर अपने कॅरियर की दूसरी पारी की शुरुआत की। अब वह हर थोड़े दिनों में नेशनल पार्क की सैर करने लगे। जल्दी ही उनके 8 मि.मी. कैमरे की जगह एक प्रोफेशनल 16 मि.मी. कैमरे, पोलार्ड बोरेक्स ने ले ली। इसके छह साल बाद बहुत से फिल्मिंग सेशन के बाद, एक फिल्म, ‘काज़ीरंगा’ सामने आई। किसी ने भी ऐसा कुछ पहले नहीं देखा था। बताया जाता है कि डॉ. रॉबिन बनर्जी ने खुद इसे शूट किया और इसकी एडिटिंग की।[1]

ड्रेस्डेन के ज़ूओ गार्डन के डायरेक्टर डॉ. वोफगंग वुलरिच और जूओलॉजिकल सोसाइटी, फ्रैंकफर्ट के एक प्रोफेसर, डॉ. बर्नार्ड ज़ेमिएक ने 1961 में रॉबिन बनर्जी से इस फिल्म को बर्लिन में एक जर्मन टीवी पर ब्रॉडकास्ट करने की अनुमति मांगी। यह काज़ीरंगा का दुनिया से शायद पहला परिचय था। पहली बार दुनिया के लोग स्क्रीन पर एक सींग वाले राइनो को देख रहे थे और यह उनके लिए किसी अजूबे से कम नहीं था। और फिर विश्व को एक महान वाइल्ड-लाइफ फिल्म-मेकर मिल गया।

रॉबिन बनर्जी ने कुल 32 डॉक्यूमेंट्री बनायीं, जिनमें काज़ीरंगा, वाइल्ड लाइफ ऑफ इंडिया, ड्रैगन्स ऑफ़ कॉमोडो आइलैंड, द अंडरवॉटर वर्ल्ड ऑफ़ शार्क्स, राइनो कैप्चर, ए डे एट ज़ू, वाइट विंग्स इन स्लो मोशन, मॉनसून, द वर्ल्ड ऑफ़ फ्लेमिंगो जैसी डॉक्यूमेंट्रीज़ शामिल हैं। उन्होंने वाइल्ड-लाइफ को बचाने और सहेजने के लिए खुद को इस तरह से समर्पित कर दिया कि अपने मेडिकल प्रोफेशन को बिल्कुल ही छोड़ दिया।

सम्मान व पुरस्कार

प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उनके इसी समर्पण के लिए उन्हें 1971 में ‘पद्म श्री’ से नवाज़ा गया। उन्हें अपनी वाइल्ड-लाइफ फिल्मों के लिए 14 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया।

बच्चों से प्रेम

जंगलों और वहां के प्राणियों के अलावा डॉ. रोबिन को बच्चों से बहुत मोहब्बत थी। उन्हें बच्चों से बातें करना, उनके साथ वक़्त बिताना बहुत अच्छा लगता था और बच्चों से ही उन्हें उनका नाम मिला- ‘रॉबिन अंकल’! उन्होंने गोलाघाट में 9 बीघा ज़मीन बच्चों के स्कूल बनाने के लिए दान में दी और उनके प्रयासों से यहां असम के बच्चों के लिए विवेकानंद स्कूल शुरू हुआ।

मृत्यु

रॉबिन बनर्जी की ख्वाहिश थी कि गोलाघाट में उनके घर को बच्चों के लिए एक म्यूजियम में तब्दील किया जाये। पर वह अपनी ज़िन्दगी में ऐसा करने में असफल रहे। साल 2003 में 6 अगस्त को 94 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के छह साल बाद उनके घर को एक म्यूजियम में बदला गया और इसका नाम रखा गया- ‘अंकल रॉबिन्स चिलर्न म्यूजियम’।[1]

रॉबिन बनर्जी का घर प्रकृति प्रेमियों के लिए अनमोल खजाना है क्योंकि यहां पर वाइल्ड-लाइफ के बारे में दुर्लभ से दुर्लभ किताबें, जर्नल आदि मिल जाएँगी। इस म्यूजियम में उनकी डॉक्यूमेंट्रीज़ के ऑरिजिनल प्रिंट भी मिल जायेंगे। यहां पर रॉबिन बनर्जी द्वारा दुनिया भर से लाये गए बच्चों के खिलौनों का भी एक कलेक्शन है, जिनमें 587 डॉल और 262 अन्य शो-पीस शामिल हैं। इसके अलावा, उनके वाइल्ड-लाइफ फोटोग्राफ्स भी यहाँ लगे हुए हैं। यहाँ पर 194 पेंटिंग और 93 आर्टिफेक्टस हैं। इन आर्टिफेक्ट में एक टरकोइज़ का बना हुआ घोड़ा और एक नागा योद्धा की हेड हंटिंग बास्केट बहुत खास हैं।


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