वर्षा ऋतु

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विवरण वर्षा ऋतु भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक ऋतु है। भारत में सामान्य रूप से 15 जून से 15 सितम्बर तक वर्षा की ऋतु होती है, जब सम्पूर्ण देश पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून हवाएं प्रभावी होती हैं।
समय श्रावण-भाद्रपद (जुलाई-सितंबर)
मौसम इस समय उत्तर पश्चिमी भारत में ग्रीष्म ऋतु में बना निम्न वायुदाब का क्षेत्र अधिक तीव्र एवं व्यवस्थति होता है। इस निम्न वायुदाब के कारण ही दक्षिणी-पूर्वी सन्मागी हवाएं, जो कि दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा की ओर से भूमध्य रेखा को पार करती है, भारत की ओर आकृष्ट होती है तथा भारतीय प्रायद्वीप से लेकर बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर पर प्रसारित हो जाती है।
अन्य जानकारी दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पवनें जब स्थलीय भागों में प्रवेश करती हैं, तो प्रचण्ड गर्जन एवं तड़ित झंझावत के साथ तीव्रता से घनघोर वर्षा करती हैं। इस प्रकार की पवनों के आगमन एवं उनसे होने वाली वर्षा को 'मानसून का फटना अथवा टूटना' कहा जाता है।

वर्षा ऋतु (अंग्रेज़ी: Rainy Season) भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक ऋतु है। हमारे देश में सामान्य रूप से 15 जून से 15 सितम्बर तक वर्षा की ऋतु होती है, जब सम्पूर्ण देश पर दक्षिण-पश्चिमी मानसून हवाएं प्रभावी होती हैं। इस समय उत्तर पश्चिमी भारत में ग्रीष्म ऋतु में बना निम्न वायुदाब का क्षेत्र अधिक तीव्र एवं व्यवस्थति होता हैं। इस निम्न वायुदाब के कारण ही दक्षिणी-पूर्वी सन्मागी हवाएं, जो कि दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा की ओर से भूमध्य रेखा को पार करती है, भारत की ओर आकृष्ट होती है तथा भारतीय प्रायद्वीप से लेकर बंगाल की खाड़ी एवं अरब सागर पर प्रसारित हो जाती है। समुद्री भागों से आने के कारण आर्द्रता से परिपूर्ण ये पवनें अचानक भारतीय परिसंचरण से घिर कर दो शाखाओं में विभाजित हो जाती हैं तथा प्रायद्वीपीय भारत एवं म्यांमार की ओर तेज़ीसे आगे बढ़ती है।
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पवनें जब स्थलीय भागों में प्रवेश करती हैं, तो प्रचण्ड गर्जन एवं तड़ित झंझावत के साथ तीव्रता से घनघोर वर्षा करती हैं। इस प्रकार की पवनों के आगमन एवं उनसे होने वाली वर्षा को 'मानसून का फटना अथवा टूटना' कहा जाता है। इन पवनों की गति 30 कि.मी. प्रति घंटे से भी अधिक होती है और ये एक महीने की भीतर ही सम्पूर्ण देश में प्रभावी हो जाती हैं। इन पवनों को देश का उच्चावन काफ़ी मात्रा में नियन्त्रित करता है, क्योंकि अपने प्रारम्भ में ही प्रायद्वीप की उपस्थिति के कारण दो शाखओं में विभाजित हो जाती हैं- बंगाल की खाड़ी का मानूसन तथा अरब सागर का मानसून।

किसान एवं वनस्पतियों के लिए वरदान

वर्षा ऋतु किसानों के लिए वरदान सिद्ध होती है। वे इस ऋतु में खरीफ़ की फ़सल बोते हैं। वर्षा ऋतु वनस्पतियों के लिए भी वरदान होती है। वर्षा काल में पेड-पौधे हरे-भरे हो जाते हैं। वर्षा-जल से उनमें जीवन का संचार होता है। वन-उपवन और बाग़-बग़ीचों में नई रौनक और नई जवानी आ जाती है। ताल-तलैयों व नदियों में वर्षा-जल उमड़ पड़ता है। धरती की प्यास बुझती है तथा भूमि का जलस्तर बढ़ जाता है। मेंढक प्रसन्न होकर टर्र-टर्र की ध्वनि उत्पन्न करने लगते हैं। झींगुर एक स्वर में बोलने लगते हैं। वनों में मोरों का मनभावन नृत्य आरंभ हो जाता है। हरी-भरी धरती और बादलों से आच्छादित आसमान का दृश्य देखते ही बनता है। वर्षा ऋतु गर्मी से झुलसते जीव-समुदाय को शांति एवं राहत पहुंचाती है। लोग वर्षा ऋतु का भरपूर आनंद उठाते हैं।

बंगाल की खाड़ी का मानसून

बंगाल की खाड़ी का मानूसन दक्षिणी हिन्द महासागर की स्थायी पवनों की वह शाखा है, जो भूमध्य रेखा को पार करके भारत में पूर्व की ओर प्रवेश करती है। इसके द्वारा सबसे पहले म्यांमार की अराकानयोमा तथा पीगूयोमा पर्वतमालाओं से टकराकर तीव्र वर्षा की जाती है। इसके बाद ये पवनें सीधे उत्तर की दिशा में मुड़कर गंगा के डेल्टा क्षेत्र से होकर खासी पहाड़ियों तक पहुंचती हैं तथा लगभग 15,00 मी. की ऊंचाई तक उठकर मेघालय के चेरापूंजी तथा मासिनराम नामक स्थानों पर घनघोर वर्षा करती हैं। ख़ासी पहाड़ियों को पार करने के बाद यह शाखा दो भागों में विभाजित हो जाती है। एक शाखा हिमालय पर्वतमाला के सहारे उसके तराई के क्षेत्र में घनघोर वर्षा करती है, जबकि दूसरी शाखा असम की ओर चली जाती है। हिमालय पर्वतमाला के सहारे आगे बढ़ने वाली शाखा ज्यो-त्यों पश्चिम की ओर बढ़ती जाती है। इन पवनों की शुष्कता का कारण इनका स्थानीय पवनों से मिलना भी है।

अरब सागर का मानसून

भूमध्यरेखा के दक्षिण से आने वाली स्थायी पवने जब मानसून के रूप में अरब सागर की ओर बढ़ती हैं तो सबसे पहले पश्चिमी घाट पहाड़ से टकराती हैं और लगभग 900 से 2,100 मी. की ऊंचाई पर चढ़ने के कारण आर्द्र पवनें सम्पृक्त होकर पश्चिमी तटीय मैदानी भाग में तीव्र वर्षा करती हैं। पश्चिमी घाट पर्वत को पार करते समय इनकी शुष्कता में वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण दक्षिण पठार पर इनसे बहुत ही कम वर्षा प्राप्त होती है तथा यह क्षेत्र वृष्टि छाया प्रदेश के अन्तर्गत आ जाता है। अरब सागरीय मानसून की एक शाखा मुम्बई के उत्तर में नर्मदा तथा ताप्ती नदियों की घाटी में प्रवेश करके छोटा नागपुर के पठार पर वर्षा करती है और बंगाल की खाड़ी के मानूसन से मिल जाती है। इसकी दूसरी शाखा सिन्धु नदी के डेल्टा से आगे बढ़कर राजस्थान के मरुस्थल से होती हुई सीधे हिमालय पर्वत से जा टकराती है। राजस्थान में इसके मार्ग में कोई अवरोधक न होने के कारण वर्षा का एकदम अभाव पाया जाता है, क्योंकि अरावली पर्वतमाला इनके समानान्तर पड़ती है।

वर्षा का वितरण

मौसम के अनुसार वर्षा का वितरण
वर्षा का मौसम समयावधि वार्षिक वर्षा का
प्रतिशत (लगभग)
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून जून से सितम्बर तक 73.7
परवर्ती मानसून अक्टूबर से दिसम्बर 13.3
शीत ऋतु अथवा उत्तरी पश्चिमी मानसून जनवरी - फरवरी 2.6
पूर्व-मानसून मार्च से मई 10.0

अधिक वर्षा वाले क्षेत्र

पश्चिमी घाट पर्वत का पश्चिमी तटीय भाग, हिमालय पर्वतमाला की दक्षिणावर्ती तलहटी में सम्मिलित राज्य- असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, पश्चिम बंगाल का उत्तरी भाग, पश्चिमी तट के कोंकण, मालाबार तट (केरल), दक्षिणी किनारा, मणिपुर एवं मेघालय इत्यादि सम्मिलित हैं। यहाँ वार्षिक वर्षा की मात्रा 200 सेमी. से अधिक होती है। विश्व की सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान मासिनराम तथा चेरापूंजी मेघालय में ही स्थित हैं।

साधारण वर्षा वाले क्षेत्र

इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा की मात्रा 100 से 200 सेमी. तक होती है। यह मानसूनी वन प्रदेशों का क्षेत्र है। इसमें पश्चिमी घाट का पूर्वोत्तर ढाल, पश्चिम बंगाल का दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र, उड़ीसा, बिहार, दक्षिणी-पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा तराई क्षेत्र के समानान्तर पतली पट्टी में स्थित उत्तर प्रदेश पंजाब होते हुए जम्मू कश्मीर के क्षेत्र शामिल हैं। इन क्षेत्रों में वर्षा की विषमता 15 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक पायी जाती है। अतिवृष्टि एवं अनावृष्टि के कारण फसलों की बहुत हानि होती है।

न्यून वर्षा वाले क्षेत्र

इसके अन्तर्गत मध्य प्रदेश, दक्षिणी का पठारी भाग गुजरात, उत्तरी तथा दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, हरियाणा तथा दक्षिणी उत्तरी प्रदेश आते हैं। यहाँ 50 से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा होती है। वर्षा की विषमता 20 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक होती है।

अपर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र

इन क्षेत्रों में होने वाली वार्षिक वर्षा की मात्रा 50 सेमी. से भी कम होती है। कच्छ, पश्चिमी राजस्थान, लद्दाख आदि क्षेत्र इसके अन्तर्गत शामिल किये जाते हैं। यहाँ कृषि बिना सिंचाई के सम्भव नहीं है।

आध्यात्मिक महत्व

वर्षा ऋतु को वर्षाकाल, वर्षोमास, चौमास अथवाचातुर्मास के नामों से भी जाना जाताहै। छह ऋतुओं में यदि वर्षा ऋतु नहीं, तो बाकी की ऋतुएं महत्वहीन हो जाती हैं। इसके बिना उनका सारा सौंदर्य जाता रहता है। वर्षाकाल ही अपने शीतल जल से धरती मां की प्यास बुझा कर उसे उर्वर बनाता है। बदले में धरती मां हमें धन-धान्य से परिपूर्णकर वैभवशाली बनाती है और इस प्रकार हमारी ही नहीं, इस पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। वर्षाकाल से ही हमारा ऋतु चक्र संभव हो पाता है। वर्षा न हो तो सूखा और अकाल पड़ना अवश्यंभावी है। लगभग सभी धर्मों में वर्षाकाल में संतों के एक ही स्थान पर रहने की पद्धति प्रचलित रही है। यह कोई विवेकहीन व्यवस्था नहीं है। इसके धार्मिक, वैज्ञानिक, पर्यावरणीय और सामाजिक कारण हैं। वर्षाकाल आते ही कुछ स्वाभाविक बदलाव प्रकृति में होने लगते हैं, जिनमें पर्यावरण का परिवर्तन सबसे प्रमुख है। जहां वर्षा का शीतल जल वातावरण को ठंडक प्रदान कर सुहावना और प्रिय बना देता है, वहीं यह नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति में भी सहायक बनता है। ऐसे में आवागमन का प्रयास जीव रक्षा की भावना अर्थात अहिंसा के भाव के प्रतिकूल साबित होता है। संतों का जीवन ही परोपकार के लिए होता है, वे दूसरों को इसकी शिक्षा देते हैं और समाज को जीव रक्षा के लिए प्रेरित करते हैं। अपनी यात्राओं या गतिविधियों में वे इस तथ्य को कैसे नजरअंदाज़कर सकते हैं। इसलिए संतों-महंतों का वर्षाकाल में एक ही स्थान पर रहना आवश्यक माना जाने लगा। वर्षाकाल में अध्यात्म की महती प्रगति होती है। अध्यात्म ही वास्तव में जीवन को गति और सही दिशा प्रदान करता है। इसके अभाव में मानव, दानव बन जाता है। इन्हीं कारणों से वर्षाकाल का प्रत्येक धर्म में महत्वपूर्ण स्थान है। अपनी-अपनी मान्यताओं और आस्थाओं के साथ इस काल में सभी धर्ममय हो जाते हैं। ऋतु चक्र और पर्यावरणीय विशेषताओं को ध्यान में रख कर निर्धारित किए गए हमारे धर्माचार हमारे जीवन को प्रकाशित कर हमें सन्मार्ग की ओर ले जाते हैं, जिससे हमारा जीवन सुगंधित बनता है। अत:वर्षाकाल हमारे जीवन का सुनहरा अवसर है। इस से लाभ प्राप्त करने के लिए हमें सदैव तत्पर रहना चाहिए। इन दिनों प्रकृति की समस्त कृपा हम पर बनी रहती है। शारीरिक दृष्टि से जप, तप, स्वाध्याय और मनन-चिंतन इस ऋतु में आवश्यक है, क्योंकि प्रकृति का परिवर्तन हमारे शरीर को प्रभावित करता है। जप-तप करने से इस परिवर्तन का कोई दुष्प्रभाव हम पर नहीं पड़ता।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्षा ऋतु का आध्यात्मिक महत्व -सुरेश चंद जैन (हिंदी) नव भारत टाइम्स। अभिगमन तिथि: 25 जनवरी, 2018।

बाहरी कड़ियाँ

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